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चीन की हरकतें

जयपुर से डा. दुष्यन्त कौशिक ने लिखा- 'पत्रिका के २८ अगस्त अंक में चीन को लेकर जो सामग्री प्रकाशित की गई, वह चीन की चालबाजियों का कच्चा चिट्ठा है। चीन की हरकतें नई तो नहीं हैं, लेकिन अब उसने नए मुद्दे उठाने शुरू कर दिए हैं। जैसे कश्मीर का मुद्दा। पाकिस्तान के साथ उसकी दोस्ती पुरानी है। फिर भी कश्मीर मुद्दे को वह दोनों देशों का अन्दरूनी मामला बताता रहा है। पहले उसकी पैंतरेबाजियां अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, लद्दाख क्षेत्रों तक थीं। अब कश्मीर मुद्दे को चीन ने बहुत सोच-समझाकर उठाया है। वह भारत को उकसाना चाहता है। पर धन्य हैं हम और हमारी सरकार। आज भी हमारा रवैया 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' जैसा बना हुआ है। एक बार हम अपनी पीठ में छुरा घुपवा चुके हैं। अब दूसरी बार चीन हमारे सीने में ही खंजर घोंपने को आमादा है।'


प्रिय पाठकगण! भारत की उत्तरी सैन्य कमान के कमाण्डर लेफ्टिनेंट जनरल बी।एस. जसवाल को चीन का वीजा देने से इनकार का मामला हाल ही सुर्खियों में आया। रक्षा विशेषज्ञों, राजनीतिक विश्लेषकों और कूटनीतिज्ञों के बीच यह मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है। दूसरी ओर चीन की हरकतों की नई-नई जानकारियां लगातार उजागर हो रही हैं। ऐसे में भारत को क्या करना चाहिए? अनेक लोग महसूस करते हैं कि भारत-चीन सम्बन्धों पर गंभीरता से विचार करना जरूरी है। चीन की नई गतिविधियों और भारत के रवैए को लेकर पाठकों ने जबरदस्त प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं, जो दोनों देशों के रिश्तों की समीक्षा के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।

अहमदाबाद से प्रो. दीपक सोनी ने लिखा- 'लेफ्टिनेंट जनरल जसवाल के बहाने चीन ने कश्मीर मुद्दे पर अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं कि वह पाकिस्तान के साथ है। हालांकि चीन के अब तक के रुख से भी साफ जाहिर था कि वह भारत के साथ नहीं है। लेकिन इतने स्पष्ट तौर पर उसने यह बात कभी स्वीकार नहीं की थी। यानी कश्मीर मसले पर चीन ने भारत के समक्ष दोहरा खतरा पैदा कर दिया है। एक, कूटनीतिक स्तर पर और दूसरा सामरिक स्तर पर। 'न्यूयार्क टाइम्स' ने हाल ही यह उजागर किया कि पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगिट-बलिस्तान क्षेत्र का नियंत्रण चीन को सौंप दिया है। चीन यहां रेल और सड़क मार्ग बनवा रहा है। यह क्षेत्र विधिक तौर जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा है। इन तथ्यों की रोशनी में भारत की कूटनीति और रक्षा नीति दोनों फेल साबित हो रही हैं।'


कोटा के दीपेन्द्र सिंह ने लिखा- 'लेफ्टिनेंट जसवाल को वीजा से इनकार करना भारत का अपमान है। आखिर जसवाल सरकारी यात्रा पर बीजिंग जाने वाले थे। इस यात्रा के लिए वार्षिक रक्षा वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच रक्षा समझाौते के लिए आपसी सहमति बनी थी। इसमें तय हुआ था कि दोनों देश एक-दूसरे के जनरल स्तर के सैन्य अधिकारी भेजेंगे। चीन का इससे पलट जाना अन्तरराष्ट्रीय कूटनीतिक संहिता के खिलाफ है।'इंदौर से शैलेन्द्र कुमार 'भारतीय' ने लिखा- 'चीन गरम और भारत नरम' यह नीति आखिर कब तक चलेगी? यह हमारी सैन्य गुप्तचर सेवा की नाकामी ही कही जाएगी कि गिलगित क्षेत्र में चीनी गतिविधियों की जानकारी हमें अमरीका से मिल रही है। फर्ज करें कि हमारे गुप्तचरों को यह जानकारी थी तो सवाल है, हमारी सरकार ने इस पर क्या कदम उठाया?'


जोधपुर से दामोदर अवस्थी ने लिखा- 'भारत को रक्षात्मक की बजाए आक्रामक कूटनीति अपनानी होगी। हमारी रक्षात्मक कूटनीति का ही यह नतीजा है कि आज चीन हमारे सिर (कश्मीर) पर आ बैठा है। 'चाणक्य नीति' भारत में ईजाद हुई, पर इस्तेमाल चीन कर रहा है, वह भी हमारे ही खिलाफ!'उदयपुर से गौरव मेहता ने लिखा- 'भारत को दक्षिण पूर्व एशिया खासकर, फिलीपींस, इण्डोनेशिया, मलेशिया, वियतनाम, बर्मा, नेपाल आदि देशों से मजबूत सम्बन्ध बनाने चाहिए। जापान, कोरिया जैसे विकसित राष्ट्रों को ज्यादा तरजीह देनी चाहिए।'


भोपाल से अजीज अहमद ने लिखा- 'चीन को जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की तो फिक्र है, लेकिन पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित-बलिस्तान के स्थानीय शिया मुस्लिमों की जरा भी फिक्र नहीं, जिनके लोकतांत्रिक अधिकार पाकिस्तान बेरहमी से कुचल रहा है।'


बेंगलूरु से निर्मल अलेक्सेन्द्र ने लिखा- 'चीन की कारगुजारियों की लम्बी फेहरिस्त है। चीन ने २००८ में रिकार्ड २७० बार भारत में घुसपैठ की। गत वर्ष जुलाई में भारतीय सीमा के भीतर चीनी लाल सेना फिर घुस आई और अपने देश का नाम लिख दिया। हिमाचल के स्पीति और जम्मू-कश्मीर के लद्दाख इलाकों में चीनी घुसपैठ हुई। अरुणाचल प्रदेश को चीन दक्षिण तिब्बत कहकर अपना क्षेत्र बताता है। सिक्किम को चीन २००३ में मान्यता दे चुका था। लेकिन यहां भी वह घुसपैठ करता रहता है। भारतीय सीमा क्षेत्र के पास मिसाइलें तान देता है। इन सबके जवाब में हमारे रक्षा मंत्री ए।के. एंटनी क्या कहते हैं- हमारे रक्षा सम्बन्धों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। चीन के साथ हमारे करीबी सम्बन्ध हैं। यह तो हद है। यह सहनशीलता नहीं कायरता है।'


श्रीगंगानगर से पवन बग्गा ने लिखा- 'हमें चीन से पूछना चाहिए कि वह पाकिस्तान को रक्षा सहायता क्यों देता है, जो आतंकवाद का जनक है। हम चीन से यह भी पूछें वह हमारी १९६२ में हथियाई ४३ हजार वर्ग किमी. भूमि कब लौटाएगा? हमें पूछना चाहिए कि चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता को कब समर्थन देगा? हम चीन से यह भी पूछें कि वह तिब्बतवासियों को लोकतांत्रिक अधिकारों से कब तक वंचित रखेगा? हम पूछें कि चीन भारतीय कश्मीरी नागरिकों और अरुणाचलवासियों को वीजा की सुविधा कब शुरू करेगा?'

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नाक की चिन्ता


भोपाल के पाठक धर्मेन्द्र सोलंकी का पत्र यहां हूबहू दिया जा रहा है-

'कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन में एक ट्रक भरकर घोटाले सामने आ चुके हैं। भारतीय करदाता के टैक्स से भरा सरकारी खजाना सोमालिया के समुद्री लुटेरों की तरह लूटा जा चुका है। फिर भी कुछ भले मानुषों का यह सद्विचार है कि फिलहाल इन सबको छोड़ दो। पहले आयोजन हो जाने दो। फिर सब घोटालेबाजों से एक-एक कर देख लेंगे। कुछ महानुभावों का तर्क है कि भ्रष्टाचारियों पर अभी प्रहार करने से कार्यकर्ता मायूस होंगे। खेल इंतजाम, जो पहले से ही गड़बड़ाए हुए हैं, वे पूरी तरह मटियामेट हो जाएंगे। मीडिया को इन लोगों की चेतावनी है कि वह थोड़ा चुप रहे, वरना पूरी दुनिया में हमारी नाक कट जाएगी।

'बिलकुल ठीक। नाक की चिंता हर भारतवासी को है। वह खेलों का नहीं भ्रष्टाचार का विरोधी है। इसलिए एक भारतीय के तौर पर मेरी चिंता यह है कि जिस आयोजन समिति पर कालिख पुत चुकी है, वह अपने दागिल चेहरे के साथ कॉमनवेल्थ खेलों के प्रबंध में जब देश की ओर से भागीदारी करेगी तो हमारी नाक कटेगी या बचेगी?'

कोटा से अर्जुन देव सारस्वत ने लिखा- 'देश की गरिमा की दुहाई देने वाली हमारी सरकार और मंत्रियों को यह तो मालूम होगा कि हमारा देश दुनिया के दस सबसे अधिक भ्रष्ट देशों की सूची में शामिल है। इसलिए जब राष्ट्रमंडल खेलों के लिए देश का 35 हजार करोड़ रुपए का खजाना दांव पर लगा हो तो जनता को पाई-पाई का हिसाब कौन देगा? कुछ लोग यह खर्च 80 हजार करोड़ रुपए तक आंक रहे हैं। जाहिर है, यह भारी-भरकम धनराशि हमारा देश अन्तरराष्ट्रीय श्रेय हासिल करने के लिए खर्च कर रहा है, न कि भ्रष्टाचारियों, दलालों और कमीशनखोरों के घर भरने के लिए।'

प्रिय पाठकगण! कॉमनवेल्थ खेल आयोजनों में निरन्तर भ्रष्टाचार उजागर होने के बाद केन्द्र सरकार ने देशवासियों को आश्वस्त किया है कि एक बार आयोजन सफलतापूर्वक हो जाए, उसके बाद भ्रष्टाचारियों को बक्शा नहीं जाएगा। कुछ अधिकारियों को निलम्बित करके तो कुछ नए अधिकारियों को नियुक्त करके उसने अपने मंसूबे जाहिर करने की कोशिश की है। लेकिन क्या आम नागरिक इससे संतुष्ट हैं? उसे सरकार के वादे पर कितना भरोसा है? पाठकों की प्रतिक्रियाओं में उनका मंतव्य स्पष्ट है।

जयपुर से अनिल खण्डेलवाल ने लिखा- 'दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों में भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड टूट चुके हैं। 7 लाख रुपए में दुनिया की सबसे उम्दा ट्रेड मिल खरीदी जा सकती है। सामान्य मशीन की कीमत 1 लाख रुपए है। लेकिन अधिकारियों ने महज किराए पर 10 लाख रुपए प्रति मशीन खर्च कर डाले। पन्द्रह-बीस हजार में बिकने वाले फ्रिज के किराए पर ही 42 हजार रुपया प्रति फ्रिज फूंक दिया गया। और देखिए- सौ रुपए में बाजार में बिकने वाला डस्टबिन 1,167 रुपए में किराए पर लिया गया। लिक्विड सोप डिस्पेन्सर का खरीद मूल्य 92 रुपए, किराया 3,397 रुपए। लेपटाप का खरीद मूल्य 22,943 रुपए। किराया 89,502 रुपए। बहुत लंबी सूची है ऐसी चीजों की जिनकी कीमत से चार-पांच गुना ज्यादा तो किराया ही चुका दिया गया। यह तो भ्रष्टाचार का एक मामूली नमूना है। अंदाज लगाएं उन निर्माण कार्यों का, जिनमें बहुत बड़ी-बड़ी डील की गई। प्रारंभिक रूप से जो तथ्य सामने आ रहे हैं उससे साफ है कि यह भ्रष्टाचार नहीं, देश की संपत्ति की बेरहमी से लूट है।'

अजमेर से जयदीप ने लिखा- 'नेहरू स्टेडियम में रंग-रोगन पर ही 900 करोड़ रुपए का खर्चा कर दिया। हम खेलों में तो स्वर्ण पदक जीत सकते हैं, लेकिन विश्वसनीयता में कांस्य पदक भी नहीं जीत पाएंगे।'

कोलकाता से डी.सी. डागा ने लिखा, 'शुक्रिया अदा करना चाहिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग का जिसने सबसे पहले खेल सम्बन्धी 15 परियोजनाओं में घपला पाया। इसी आधार पर केंद्रीय जांच ब्यूरो ने प्राथमिकी दर्ज की। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने लगातार भ्रष्टाचार के मामले उजागर किए। शुरुआत में आयोजन समिति से जुड़े अफसर और पदाधिकारी बहुत भुनभुनाए। मीडिया पर लाल-पीले हुए। सुरेश कलमाड़ी ने तो अखबार और न्यूज चैनलों पर मानहानि का मुकदमा करने की धमकी तक दी। लेकिन बाद में सब ठंडे पड़ गए। भ्रष्टाचार की परतें रोजाना उधड़ती ही रही।'

सिरोही से पंकज सिंह ने लिखा- 'राष्ट्रमंडल खेल दिल्ली में आयोजित होंगे, यह वर्ष 2003 में ही तय हो गया था। इतने वर्षों बाद भी अगर हमारी तैयारियां अधूरी है तो दोषी कौन है?'

उदयपुर से दीप जोशी ने लिखा- 'सरकार ने एक केबिनेट सचिव को जिम्मा सौंपा है जो दस बड़े अफसरों के जरिए खेलों के आयोजन की निगरानी रखेंगे। इसके अलावा शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी की अध्यक्षता में मंत्री समूह पहले से ही कार्य कर रहा है। क्या ये लोग खेल आयोजन समिति के वे सभी सौदे रद्द करेंगे, जिनमें भ्रष्टाचार की बू आ रही है? क्या ये लोग वे सभी वसूलियां कर पाएंगे जिनमें चीजों को उनके दामों से चौगुनी दरों पर किराए पर लिया गया? ऐसे कई सवाल अभी अनुत्तरित हैं।'

इंदौर से गौरव मयंक के अनुसार, 'जब जमैका और मलेशिया जैसे विकासशील और छोटे देश राष्ट्रमंडल खेलों का सफलतापूर्वक आयोजन कर चुके तो भारत क्यों नहीं कर सकता। मुझो यकीन है, हम कामयाब होंगे, खेलों में भी और आयोजन में भी। लेकिन अफसोस! यह सब भ्रष्टाचार की काली छाया में होगा।'

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जनसेवा के बदले वेतन

प्रिय पाठकगण! आप जानते हैं पिछले दिनों सांसदों की एक समिति ने सांसदों के वेतन-भत्तों में पांच गुना बढ़ोतरी की सिफारिश की थी। संभवत: सरकार इस पर मौजूदा मानसून सत्र में ही निर्णय करे। वामपंथी सांसदों को छोड़कर आमतौर पर सभी दलों के सांसद चाहते हैं कि सरकार उनकी पांच गुना वेतन-वृद्धि मांग शीघ्र स्वीकार करे। उनकी इस मांग पर आम आदमी की क्या प्रतिक्रिया है? मतदाता की नजर में सांसदों का अपनी वेतन-भत्तों पर खुद निर्णय करना कितना जायज है? पाठक की इन प्रतिक्रियाओं में आप इनका जवाब पा सकते हैं।

जयपुर से महेश विजयवर्गीय ने लिखा- 'कांग्रेसी सांसद चरणदास महंत की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति ने सांसदों का वेतन 16 हजार रुपए प्रतिमाह से बढ़ाकर 80 हजार रुपए करने की सिफारिश करके और अधिकांश सांसदों ने समिति की सिफारिश को शीघ्र लागू करने की मांग करके अपने आपको जनसेवक के दर्जे से गिरा दिया है। हमारे माननीय सांसदगण अब वेतनभोगी अफसरों, नौकरशाहों और सरकारी बाबुओं से मुकाबला करेंगे। तर्क है कि एक संसद सदस्य को सरकारी क्लर्क से भी कम वेतन मिलता है। संसद के गठन के बाद वारंट ऑफ प्रेसिडेंस के आधार पर एक संसद सदस्य को सचिव के ऊपर माना गया है। सांसद का प्रोटोकाल क्रम २१वां है जबकि सचिव का 23 वां और डीजीपी का 25 वां है। इन अफसरों को 80 हजार रुपए वेतन मिल रहा है तो सांसदों को 80 हजार 1 रुपया प्रतिमाह तो मिलना ही चाहिए। वाह! क्या मासूम तर्क है। अफसरों और बाबुओं से बराबरी करने वाले इन माननीय सदस्यों से पूछने का मन करता है क्या वेतन-भत्ते बढ़ाने का निर्णय ये खुद करते हैं? एक छोटा-सा दफ्तर चलाने के लिए एक बाबू तक को योग्यता मापदंडों से गुजरना पड़ता है। देश चलाने के लिए सांसदगण किन मापदंडों से गुजरते हैं? क्या 60 वर्ष में ये रिटायर हो जाते हैं? क्या सांसदों के लिए कोई सेवा-नियम है? सवाल तो और भी कई हैं। फिलहाल मुझो उनसे सिर्फ एक सवाल करना है। महंगाई से पिसती जनता कातर दृष्टि से अपने जनप्रतिनिधियों की तरफ देख रही है। लेकिन हमारे सांसद सिवाय संसद ठप करने के कोई और काम कर रहे हैं? तो संसद ठप करने का आपको वेतन चाहिए। वह भी थोड़ा-बहुत नहीं- पांच गुना!'

जबलपुर से ताराचंद 'सरल' ने लिखा- 'आपको किसने कहा कि आप जनता की सेवा करें। आप भी प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठें और अफसर बन जाएं। डॉक्टरी करें, इंजीनियरिंग पढ़ें। लेकिन आप अच्छी तरह से जानते हैं फायदा किधर ज्यादा है। क्या आप बताएंगे कि पार्टी का टिकट पाने के लिए आपने कितने लाख खर्च किए? चुनाव में कितना धन पानी की तरह बहाया? भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि अगर आपकी अंटी में दस-बीस करोड़ रुपए न हो तो चुनाव लड़ने का सपना देखना भी जुर्म है। आपके पास धन कहां से आया? और अगर इतना धन खर्च करने में आप समर्थ हैं तो आपको वेतन की क्या जरूरत पड़ गई।'

अहमदाबाद से डॉ. सुशील शर्मा के अनुसार- 'चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता की सेवा करने के बदले में जो आर्थिक प्रतिदान मिलता है वह प्रतीकात्मक है। वेतन से कोई उसकी तुलना नहीं हो सकती। अगर जनसेवा को वेतन से जोड़ा गया तो जनसेवा की अवधारणा ही नष्ट हो जाएगी। फिर तो हमें नौकरियों की तरह जनसेवाओं की कैटेगरियां बनानी होंगी। जैसे ए ग्रेड जनसेवा, बी ग्रेड जनसेवा, क्लास थ्री जनसेवा, स्पेशल ग्रेड जनसेवा, जनरल ग्रेड जनसेवा...।'

सिरोही से प्रमोद सारस्वत की प्रतिक्रिया- 'संसद में बहस का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। सदन की कार्रवाई में हिस्सा लेने की प्रवृत्ति घटती जा रही है। सवाल पूछकर सदस्य अनुपस्थित रहते हैं। संसद में असंसदीय व्यवहार बढ़ता जा रहा है। सांसदों को वेतन के साथ इन सबकी चिन्ता भी करनी चाहिए।'

जयपुर से धर्मेन्द्र धीया ने लिखा- 'जानकर हैरत हुई (पत्रिका, 23 जुलाई) कि वर्तमान में संसद के 199 सदस्य दागदार हैं। इनमें लोकसभा सदस्यों पर जो आरोप हैं उन्हें पढ़कर सिर शर्म से झाुक गया। हत्या, अपहरण, डकैती, लूट, फिरौती और जालसाजी जैसे जुर्मों के उन पर मुकदमे चल रहे हैं। दुख इस बात का है कि किसी भी राजनीतिक दल ने इन्हें टिकट देने से परहेज नहीं किया। क्या वेतन बढ़ाने की मांग करने वाले स्वच्छ छवि के सांसद इन दागदार सांसदों से छुटकारा पाने की मांग भी करेंगे?'

श्रीगंगानगर से अमित वालिया ने लिखा- 'पहले आपराधिक छवि और माफिया गिरोह से जुड़े बाहुबली लोग बड़े-बड़े नेताओं और राजनीतिक दलों को धन और समर्थन देते थे। अब वे स्वयं चुनावी मैदान में उतरकर संसद में पहुंचने लगे हैं।'

इंदौर से गौतम खत्री के अनुसार- 'हर कोई जानता है कि चुनाव जीतने के बाद ज्यादातर जनप्रतिनिधि जन और कार्यकर्ता से दूर हो जाते हैं और उद्योगपति, ठेकेदार, अफसरों, दलालों के करीब पहुंच जाते हैं। अब तक 27 बार उनके वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी हो चुकी है। पिछली वेतनवृद्धि तीन साल पहले ही हुई थी।'

अजमेर से जमील अहमद ने लिखा- 'किसी भी जनहित के मुद्दे पर सर्वसम्मति बना पाने में नाकाम रहने वाले हमारे माननीय प्रतिनिधि अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने के मुद्दे पर एकराय हैं? उनका वेतन विधेयक कुछ सैकण्डों में पास हो जाता है।'

भोपाल से पंकज सिंह ने लिखा- 'हमारे सांसदगण अमरीका, ब्रिटेेन जैसे विकसित राष्ट्रों के सांसदों के वेतन से तुलना करते हैं। इसकी जमीनी हकीकत क्या है, यह 'भारतीय सांसदों को और चाहिए कैश भी ऐश भी' रिपोर्ट (पत्रिका, 27 जुलाई) में साफ है।'

प्रिय पाठकगण! सभी पाठकों का एक-सा स्वर है तो इसका खास कारण है। सवाल है आज जब हर कोई अपनी वेतन-वृद्धि चाहता है तो सांसदों की मांग का विरोध क्यों? दरअसल विरोध जनप्रतिनिधियों के रवैये का ज्यादा है। अधिकांश जनप्रतिनिधि जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे। ऊपर से अपना चौगुना-पांच गुना वेतन खुद ही बढ़ाने का निर्णय करते हैं। बेहतर होगा वे जनता की सुने। जनता उनकी अपने आप सुन लेगी।

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वादी का सच

उन्तीस जून के अंक में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित फोटो 'वादी का सच' देखकर जयपुर के पाठक जितेन्द्र एस. चौहान ने लिखा- 'उस दिन पत्रिका में फोटो देखा, तभी माजरा समझा में आ गया कि कश्मीर में क्या चल रहा है। सुरक्षा पैड से सुसज्जित एक हथियारबंद सिपाही सड़क पर लाचार पड़ा जान की भीख मांग रहा था। तीन-चार उग्र युवक चेहरों पर नकाब ओढ़े लाठियों, पत्थरों और लात-घूंसों से उसे घेरकर नृशंसतापूर्वक पीट रहे थे। जनता की सुरक्षा में तैनात सुरक्षाकर्मी के जान के लाले पड़े थे। बेचारे को प्रदर्शनकारियों पर किसी तरह की सख्ती न किए जाने के आदेश का पालन जो करना था। आखिर क्या हुआ? पहले हिंसक प्रदर्शन करो, पथराव करो, कानून तोड़ो, कफ्र्यू का उल्लंघन करो। गोली से मौत हो जाए फिर बड़ा प्रदर्शन करो। फिर मौत और फिर उससे भी बड़ा प्रदर्शन... तांडव... अराजकता...! यही तो चाहते थे सीमा पार बैठे हमारे दुश्मन। घाटी में शांति लौट रही थी। कोई बड़ा वाकिया नहीं हुआ था एक साल से। सैलानियों की चहल-पहल बढ़ गई थी। वर्ष 2008 से ही सुखद वातावरण बनने लगा था। रिकार्ड मतदान हुआ। पहले विधानसभा उसके बाद लोकसभा में जन प्रतिनिधि चुने गए तो शांति के दुश्मनों के सीने पर सांप लोटने लगे। वे अपने मकसद में कामयाब हो गए। कश्मीर घाटी फिर सेना के सुपुर्द हो गई। यही तो चाहते थे वे।'

प्रिय पाठकगण! कश्मीर के वर्तमान माहौल पर पाठकों ने व्यापक प्रतिक्रियाएं की हैं। पाठकों के विचार कश्मीर समस्या पर जनमानस की एक झालक है। महत्वपूर्ण बात यह है कि पाठकों ने कश्मीर के मौजूदा अशांतिपूर्ण हालात से कैसे निपटा जाए, उस पर खुलकर अपनी बात कही है।

बांसवाड़ा से चन्द्रमोहन शर्मा ने लिखा- 'जुलाई में अमरनाथ यात्रा शुरू होती है। कश्मीर के अलगाववादी नेताओं ने जून की शुरुआत में ही अशांति के बीज बोने शुरू कर दिए ताकि इस धार्मिक यात्रा में विघ्न पड़े और देशव्यापी प्रतिक्रिया हो। पिछले वर्ष 15दिन में देश भर से कोई 35 लाख श्रद्घालुओं ने पवित्र गुफा के दर्शन किए थे। यह बात लश्कर-ए-तैयबा को नागवार गुजर रही थी। इसलिए उसने कश्मीर में बैठे अहमद शाह गिलानी जैसे हुर्रियत के गुर्गों के जरिए अमरनाथ यात्रा को 15 दिनों तक सीमित करने की दुर्भावनापूर्ण मांग रखी।'

इंदौर से कार्तिक गर्ग ने लिखा- 'एक प्रसिद्घ साप्ताहिक पत्रिका में सुरक्षा विशेषज्ञ के हवाले से छपा कि पाक समर्थित आतंकी गुट अब इंतिफादा मॉडल पर काम कर रहे हैं। यह मॉडल फिलिस्तिनियों ने इजरायल के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन करके तैयार किया था। इसके तहत कम उम्र के किशोर और बेरोजगार युवकों को चंद रुपयों के लालच देकर सड़कों पर उतरने के लिए तैयार किया जाता है। हाल के कश्मीर में प्रदर्शनों से इसकी तुलना की जा सकती है।' अहमदाबाद से हिमांशु मेहता ने लिखा, 'हाल ही कश्मीर घाटी में जितने प्रदर्शन हुए उनमें हिंसा फैलाने वालों को साफ तौर पर पहचाना जा सकता था। ये लोग मुंह ढांपकर अपनी पहचान छुपाते हुए खुले तौर पर पत्थरबाजी करते कैमरों के सामने आ रहे थे। क्या ये लोग कश्मीर की आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं?' बेंगलुरु से दमयन्ती नैयर ने लिखा- 'अलगाववादी संगठन कश्मीर में अक्सर अफवाहें फैलाकर माहौल खराब करने की कोशिश करते रहे हैं। शोपियां कांड इसका जीता जागता नमूना था।'

उज्जैन से दीपेन्द्र गोस्वामी के अनुसार, 'कश्मीर के वर्तमान हालात के लिए जम्मू-कश्मीर की सरकार भी कम दोषी नहीं है। एक तरफ तो कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अ?दुल्ला कश्मीर में 'आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट' को खत्म करने की मांग करते हैं दूसरी तरफ खतरा बढ़ते ही सेना को बुलाना चाहते हैं।'
इसके विपरीत भोपाल से रविन्द्र ठाकुर की प्रतिक्रिया मिली- 'कश्मीर में बिगड़े हालात के लिए केन्द्र सरकार का रवैया जिम्मेदार है। सेना को मिले विशेषाधिकार को केन्द्र सरकार खुद खत्म करने पर तुली हुई है। प्रधानमंत्री ने अभी जून माह में ही कश्मीर दौरे में राज्य को एक हजार करोड़ रुपए की विशेष सहायता की घोषणा की थी। क्या नतीजा निकला? सेना के अधिकार खत्म करने को तैयार बैठी सरकार को कश्मीर में सेना नहीं भेजने का अपना संकल्प महज एक सप्ताह के भीतर तोड़ देना पड़ा।'

जोधपुर से दिनेश परिहार नेलिखा- 'कश्मीर में उपद्रवियों से निपटने के लिए सेना को पूरे अधिकार दिए जाएं। अलगाववादियों के साथ देशद्रोहियों जैसा सलूक हो।'

बीकानेर से रवि भारती ने लिखा- 'आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट का इस्तेमाल दंगाइयों के लिए है न कि आम जनता के लिए।'

उदयपुर से जवाहर सिंह ने लिखा- 'कश्मीर का सच क्या है, इसे पत्रिका समूह के प्रधान संपादक ने अपनी संपादकीय टिप्पणी (नीतियों का भ्रष्टाचार, 2जुलाई) में स्पष्ट तौर से व्यक्त किया है।'

भरतपुर से गजेन्द्र सिंह ने लिखा- 'कश्मीर में हुई मौतें दुखद है। लेकिन वहां के हालात को सख्ती से ही कुचला जा सकता है।'

जयपुर से ज्योत्सना अग्रवाल के अनुसार- 'भारत सरकार अलगाववादियों को बातचीत का बार-बार न्यौता देकर देशवासियों को क्यों अपमानित कर रही है।'

अजमेर से विजय सेन ने लिखा- 'कश्मीर में अशांति व आतंक का जवाब वहां की जनता ही दे सकती है जिसकी शुरुआत पिछले वर्ष बहादुर युवती रुखसाना कौसर ने की थी।'

जबलपुर से दीपक रॉय ने लिखा- 'कश्मीरी जनता की सुरक्षा राज्य और केन्द्र दोनों की जिम्मेदारी है जिसकी राजनीतिक कारणों से अनदेखी नहीं की जा सकती है।'

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अफजल की सजा

क्या अफजल गुरु की दया याचिका को साढ़े चार साल तक इसलिए लटकाया गया ताकि उसकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदला जा सके?

जबलपुर के पाठक आर.सी. अग्निहोत्री ने लिखा, 'सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदण्ड देने के लिए चार साल की समय सीमा तय कर रखी है। सुप्रीम कोर्ट पहले भी दया याचिका में देरी होने पर कुछ अपराधियों की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल चुका है। सुप्रीम कोर्ट इस बात पर जोर देता रहा है कि फांसी की सजा वाले अपराधी को फांसी देने में अत्यधिक विलम्ब से उस पर अमानवीय प्रभाव पड़ता है। ऐसे में वह आजीवन कारावास के रूप में कम कठोर सजा पाने का हकदार बन जाता है। इसी आधार पर विवियन रॉड्रिक्स बनाम प. बंगाल (1971), टी.वी. वथीश्वरन बनाम तमिलनाडु (1983), शेरसिंह बनाम पंजाब (1983), त्रिवेणी बेन बनाम गुजरात (1989) आदि मामलों में शीर्ष अदालत ने मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था। शायद इसीलिए पिछले दिनों अफजल गुरु ने फांसी से बचने का एक नया पैंतरा चला। उसने सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की और कहा, उसकी दया याचिका पर शीघ्र निर्णय हो, उसे इससे मुक्ति चाहिए। अब और इंतजार सहा नहीं जाता। अफजल को मालूम है, उसके मामले में साढ़े चार साल बीत गए जो सुप्रीम कोर्ट की तयशुदा सीमा को लांघ चुके हैं। लिहाजा वह कम कठोर सजा (आजीवन कारावास) पाने का हकदार है।'

पाठक का प्रश्न है, 'आखिर जो काम साढ़े चार साल पहले किया जा सकता था, वह क्यों नहीं किया गया? इसलिए कि अफजल गुरु को कम कठोर सजा (आजीवन कारावास) का हकदार बना दिया जाए? ताकि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे? लाठी टूटेगी या बचेगी, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन सांप अवश्य जिन्दा रहेगा। सांप के मरने की खुशफहमी में यूपीए सरकार की अगर यह रणनीति है तो वह भारी मुगालते में है। आतंकी कभी भी सरकार को ब्लैकमेल करके कंधार विमान अपहरण कांड जैसा षडयंत्र रच कर अफजल को छुड़ा ले जा सकते हैं।'

प्रिय पाठकगण! 13दिसम्बर 2001 को आतंककारियों ने देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक पंचायत संसद पर हमला बोल दिया था। इससे भारत-पाक में तनाव बढ़ गया था। सेनाएं मोर्चे पर जा डंटी थी। इस हमले का एक मुख्य अपराधी अफजल गुरु को निचली अदालत ने 2002में फांसी की सजा सुनाई। उच्च न्यायालय ने भी 2003में इस सजा को बरकरार रखा। इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने भी 2005में फांसी की सजा पर मुहर लगा दी। तभी राष्ट्रपति को दया याचिका पेश की गई। तभी से मामला सरकारी प्रक्रिया में अटका पड़ा था। हाल ही अफजल गुरु की फाइल आगे खिसकी तो माना गया कि अब अपराधी को वह सजा मिल सकेगी जो शीर्ष अदालत ने तय की है।

इस परिप्रेक्ष्य में पाठकों की कुछ और प्रतिक्रियाएं जानना सार्थक होगा।

जयपुर से देवेन्द्र कुमार भटनागर ने लिखा- 'अब अफजल को फांसी की सजा से कोई नहीं बचा सकता। गेंद गृह मंत्रालय के पाले में आ चुकी है। गृह मंत्रालय को अपनी सिफारिशों के साथ मामला राष्ट्रपति के सचिवालय को भिजवाना है। दया याचिका खारिज होने के बाद फांसी की तारीख मुकर्रर कर दी जाएगी। अगर गृहमंत्रालय या केन्द्र सरकार कोई अड़चन लगाती है तो उसकी भारी बदनामी होगी।'

कोटा से दीनबन्धु शर्मा ने लिखा- 'भारतीय दण्ड विधान में मृत्युदण्ड दुर्लभतम अपराध में ही दिया जाता है। अफजल संसद पर हमले का कसूरवार है। अगर भारत-पाक में युद्घ छिड़ जाता तो न जाने कितनी बेकसूर जानें चली जाती।'

इंदौर से के।एल. पुरोहित ने लिखा- 'संसद पर हमले में मारे गए सुरक्षाकर्मियों को सरकार ने जो वीरता पदक दिए थे, उनके परिजनों ने वे पदक इसलिए लौटा दिए थे क्योंकि सरकार अफजल को फांसी में देर कर रही थी। हैरत की बात है कि जिस अफजल गुरु को 20अक्टूबर 2006 को फांसी लगनी थी वह अभी तक सरकारी रोटियां तोड़ रहा है।'

बीकानेर से अनवर अली भाटी ने लिखा, 'अफजल पर दया करने की जरूरत ही कहां है। उसने माफी के लिए कभी नहीं कहा। वह तो अलगाववादियों और आतंककारियों के लिए मिसाल बनना चाहता है। दया याचिका तो उसकी पत्नी की तरफ से पेश की गई। अफजल के तेवर आज भी वही है।'

चेन्नई से नरेश मेहता के अनुसार, 'अफजल घाघ आतंककारी है। उसकी दलील है कि मृत्यु की प्रतीक्षा करना मृत्यु से भी बदतर है जो संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए उनके जीवन के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन है। आश्चर्य है संविधान की धज्जियां उड़ाने वाला ही संविधान की दुहाई दे रहा है।'
भोपाल से आशीष कुमार सिंह ने लिखा- 'मृत्युदण्ड की प्रतीक्षा में तिल-तिल कर मरने की व्यथा सिर्फ आतंककारी ही नहीं झोलते। जो लोग इनकी हिंसा के शिकार होते हैं, उनके रिश्तेदार भी जीवन भर तिल-तिल कर मरते हैं।

सम्भवत: इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए। इसमें साफ कहा गया कि फांसी देने में होने वाली देरी होने मात्र के आधार पर किसी अपराधी की सजा को कम नहीं किया जा सकता। ऐसा करते समय अन्य तथ्यों पर भी गौर करना चाहिए।'

प्रिय पाठकगण! सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों से स्पष्ट है, दुर्लभतम अपराध का दोषी माफी का हकदार नहीं बन सकता। जनमानस भी यही कहता है। अब फैसला सरकार को करना है।

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अब आगे क्या ?

एक पाठक का प्रश्न है- 'भोपाल गैस काण्ड के दोषियों को मामूली सजा सुनाने के बाद देश भर में हंगामा मचा है। क्या ऐसी प्रतिक्रिया उस वक्त हुई थी, जब 25 साल पहले यह भयानक त्रासदी घटी थी?'
जवाब पाठक ने खुद ही दिया है। 'उस वक्त शोक में डूबा राष्ट्र किंकर्तव्यविमूढ़ था। वह लाशें गिनने और लाखों गैस पीडि़तों के क्रन्दन से हतप्रभ था। जब सामान्य हुआ तो उसने देश के कर्णधारों और न्याय-व्यवस्था पर भरोसा किया। न्याय की आस में २५ साल काट दिए। लेकिन उसे मिला क्या? विश्वासघात! सचमुच उसके विश्वास को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया गया। उसके असीम धैर्य का जो सिला राष्ट्र के कर्णधारों ने दिया उससे वह भीतर तक बिंध गया। आज वह क्षोभ, ग्लानि और पश्चाताप की आग में झाुलस रहा है।'

प्रिय पाठकगण! भोपाल गैस काण्ड यानी दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी एक बार फिर सुर्खियों में है। 2-3 दिसम्बर 1984 की दरम्यानी रात को जो कुछ हुआ वह अनचाहा हादसा कहा जा सकता है। लेकिन बाद में जो कुछ प्रत्यक्ष और परोक्ष में घटता रहा उसे क्या कहेंगे? लापरवाही? भूल ... अमरीकी दबाव ... देशद्रोह ...? देखें पाठक क्या कहते हैं। खास बात यह कि अब आगे क्या? भोपाल की जिला अदालत के फैसले और कई नए तथ्यों की रोशनी में ऐसा क्या किया जाए कि गैस पीडि़तों को शीघ्र न्याय मिले। सभी दोषियों को सजा मिले। पाठकों ने इस पर तार्किक चर्चा की है।

भोपाल सेविशाल दुबे ने लिखा- 'गैस त्रासदी के दो मुख्य बिन्दु हैं- 1। आपराधिक 2. नागरिक। दोनों बिन्दुओं पर तत्कालीन केन्द्र और राज्य सरकार ने अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया, इसकी जांच होनी चाहिए। आपराधिक कर्तव्य के तहत गैस काण्ड के अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाना था। नागरिक कर्तव्य के तहत मृतकों के परिजनों और गैस पीडि़तों को पर्याप्त मुआवजा दिलाना था। इन दोनों बिन्दुओं पर सरकार सक्षम थी। सबूत और गवाह भी थे। लेकिन उसने बिलकुल उलट कार्य किया। कौडि़यों का मुआवजा लेकर यूनियन कार्बाइड को बख्श दिया। अमरीका में बैठी एंडरसन की पत्नी के बयान पर गौर करना चाहिए। उसने सब कुछ 'सैटल' होने की बात कही है। केन्द्र सरकार ने 15 फरवरी 1989 को यूनियन कार्बाइड से समझाौते में क्या 'सैटल' किया, देश को इसका पता चलना चाहिए।'

भोपाल से ही मुमताज अली ने लिखा- 'अमरीकन कम्पनी यूनियन कार्बाइड को 25 हजार लोगों की मौत और 6 लाख लोगों के बीमार पड़ने के बदले सिर्फ 710 करोड़ रुपए का मुआवजा लेकर बरी कर दिया गया। यह राशि कितनी नाकाफी है, इसका अंदाजा अमरीका में 9/11 हमले में मारे गए 2 हजार 8 सौ लोगों के परिजनों को मिले मुआवजे से लगाया जा सकता है। भारतीयों की जान की कीमत क्या है- जरा गौर करें। अमरीका में सभी 2800 मृतकों के परिजनों को एक साल के भीतर प्रति व्यक्ति 8 करोड़ रुपए का मुआवजा मुहैया कराया गया। जबकि भोपाल गैस काण्ड के 25 साल बाद भी मृतकों को औसत 2 लाख रुपए तथा घायलों को 50 हजार रुपए मुआवजा ही दिया जा सका है। कई घायल इलाज पर ही लाखों रुपए खर्च कर चुके हैं।'

जबलपुर से शशि शेखर ने लिखा- 'भारत सरकार चाहे तो वह अब भी यूनियन कार्बाइड से अतिरिक्त मुआवजा राशि की मांग कर सकती है। इसके लिए वह यूनियन कार्बाइड के खिलाफ अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में दावा कर सकती है। यह कार्रवाई न्यायसंगत ही नहीं, तर्कपूर्ण भी कही जाएगी। क्योंकि कम्पनी से जिस वक्त मुआवजा राशि तय की गई थी उस दौरान तीन हजार मौतें और करीब एक लाख लोगों के बीमार होने के मामले सामने आए थे। बाद में यह संख्या बढ़कर क्रमश: 25 हजार तथा 6 लाख हो गई। ये आंकड़े उन गैस दावा अदालतों द्वारा प्रमाणित हैं जिन्होंने गैस त्रासदी में मौतों और घायलों के लिए मुआवजे मंजूर किए हैं।'

जयपुर से विजय सिंह तंवर के अनुसार- 'यूनियन कार्बाइड के जिन सात अधिकारियों को दो साल सश्रम कारावास की सजा सुनाकर जमानत पर छोड़ दिया गया, उसमें राज्य सरकार सी।आर.पी.सी. की धारा 172-ए के तहत सजा बढ़ाने की अपील करे। साथ ही सी.बी.आई धारा 304 (गैर इरादतन हत्या) के तहत मुकदमा चलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू अर्जी दाखिल करे। और केन्द्र सरकार वारेन एंडरसन को तत्काल भारत लाने की कार्रवाई करे।'

उदयपुर से गौरव मेहता ने लिखा- 'यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का मामला ही दर्ज होना चाहिए। एंडरसन समेत सभी अधिकारियों ने गैस संयंत्र की सुरक्षा को लेकर आपराधिक लापरवाही बरती थी, जिसका विस्तृत विवरण सतीनाथ षडंगी के लेख 'सूना ही रह गया कठघरा' (पत्रिका 9 जून) में किया गया है।'

अहमदाबाद से प्रो. कीर्ति व्यास ने लिखा- 'केन्द्र और राज्य सरकार से सम्बंधित उन राजनेताओं और अफसरों का खुलासा होना जरूरी है, जो गैस त्रासदी काण्ड में निर्णायक भूमिका निभा रहे थे। केन्द्रीय जांच ?यूरो के पूर्व संयुक्त निदेशक बी।आर. लाल, भोपाल के तत्कालीन कलक्टर मोतीसिंह, प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव रहे पी.सी. अलेक्जेंडर, पायलट हसन अली, कैप्टन आर.सी. सोढ़ी आदि ने जो नए खुलासे किए हैं, उन पर इसलिए गौर करना जरूरी है कि राष्ट्र के समक्ष दूध का दूध और पानी का पानी होना चाहिए।'

कोटा से नीलिमा बंसल ने लिखा- 'जब भी रघु राय की खींची मिट्टी में दबे उस मृत बच्चे की तस्वीर देखती हूं- जो भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए लोगों की भयावहता का प्रतीक बन चुकी है- तो कांप उठती हूं। आखिर ऐसे कारखानों की हमें जरूरत ही क्यों है जो मानवता और प्रकृति के निर्मम हत्यारे साबित हो रहे हैं।'

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नक्सली नासूर !

17 मई, दंतेवाड़ा: नक्सलियों ने यात्री बस को बारूदी सुरंग से उड़ाया, 40 मरे

28 मई, प. मिदनापुर:नक्सलियों ने रेलवे ट्रेक उड़ाया, 140
ये वे तारीखें हैं, जिन्हें सरकार और राजनेताओं ने नजरअंदाज किया तो उन्हें जिन्दगी भर पछताना पड़ेगा। देश की नजर में वे गुनहगार माने जाएंगे।चेतावनी के ये शब्द पाठकों की प्रतिक्रियाओं का सार है, जिन्होंने हाल ही की नक्सली करतूतों पर व्यक्त की हैं। नक्सली हिंसा के लम्बे इतिहास के बावजूद प्रबुद्ध पाठकों ने उपरोक्त दो तिथियों पर खास जोर दिया है। कारण उन्हीं से जानते हैं-

कोटा से डॉ. सुनील एस. चौहान ने लिखा- 'पिछले 60 वर्ष के इतिहास में नक्सलियों ने निर्दोष नागरिकों को कभी निशाना नहीं बनाया। उनका शिकार पुलिस, सरकारी अफसर, जमींदार, मुखबिर या फिर दुश्मनों के लिए बिछाई बारूदी सुरंगों के फटने से अनायास मारे गए नागरिक शामिल थे। नक्सली अपने मापदंडों पर गुनाह-बेगुनाह का फैसला करते हैं। इसलिए कर्तव्य पालन करने वाले पुलिस के जवान को भी वे अपना दुश्मन मानते हैं। सहमत न होते हुए भी यहां तक तो उनकी विचारधारा समझा में आती है लेकिन 17 और 28 मई की घटनाओं को वे क्या कहेंगे जिनमें लक्ष्य करके बेकसूर नागरिकों को मारा गया? कोई नक्सली या माओवादी इसका जवाब देगा? माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले बुद्घिजीवी और राजनेता कहां हैं? शायद उन्हें सांप सूंघ गया। ज्यादा कुरेदेंगे तो कह देंगे हिंसा से वे सहमत नहीं। उनका यही दोगला चरित्र राष्ट्र को खा रहा है। साफ है कि नक्सली अपनी घोषित विचारधारा को तिलांजलि दे चुके हैं और अराजकता के रास्ते सत्ता पर कब्जा करने की तैयारी कर रहे हैं। इसलिए आतंककारियों की तरह निर्दोष नागरिकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। यात्री बस और रेलगाड़ी को उड़ाने की ये दो घटनाएं इसका नया सबूत है। 'जयपुर से राजस्थान विश्वविद्यालय के शोधार्थी दीपेन्द्र जैन ने लिखा- 'दंतेवाड़ा में 17 मई को बारूदी सुरंग विस्फोट करके जिन 40 बस यात्रियों को उड़ाया, उनमें कुछ पुलिस के जवान भी थे। नक्सलियों ने इस घटना की जिम्मेदारी ली थी। लेकिन उनका कुतर्क देखिए। कथित नक्सली नेता रामन्ना ने कहा, बस को इसलिए उड़ाया क्योंकि उसमें पुलिस के अधिकारी सवार थे। सरकार ने जनता को ढाल की तरह इस्तेमाल किया। इसलिए सरकार ही इन मौतों की जिम्मेदार है। (पत्रिका 28 मई, आत्मघाती साबित होगी नरमी) क्या कोई रामन्ना से पूछने वाला है कि झाारग्राम में मारे गए 140 रेलयात्रियों में कितने पुलिस के जवान थे? रामन्ना अब कहां छिपा बैठा है?'

भोपाल से रफीक कुरैशी ने लिखा- 'मुझो उन लोगों पर तरस आता है जो माओवादियों की वकालत करते हैं। नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाली अरुंधती राय जैसी बुद्घिजीवी अब चुप क्यों हैं? झाारग्राम रेल हादसे का जिसने भी अखबारों में विवरण पढ़ा, उसकी रूह कांप गई होगी। मासूम चीत्कारों और कटी-पिटी वीभत्स निर्दोष लाशों को देखकर किसका दिल नहीं पसीजा होगा? शायद हमारे बुद्धिजीवी इस घटना में भी कोई तर्क तलाश रहे होंगे।'

नीलम शर्मा (जयपुर) के अनुसार- 'सम्पादकीय पृष्ठ पर 'नक्सलियों की निर्ममता' (29 मई) शीर्षक से प्रकाशित फोटो देखकर कलेजा मुंह को आ गया। ट्रेन का डिब्बा प्लास्टिक के खिलौने की तरह बिखरा पड़ा था और रेलयात्री का शव पुर्जा-पुर्जा रक्त से रंजित! यह किसी हैवान की ही कारगुजारी हो सकती है।'

कोलकाता से ज्ञानचंद्र व्यास ने लिखा- 'घोर अफसोस की बात है, नक्सली समस्या को अब भी राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है। ममता बनर्जी माओवादियों का नाम लेने से परहेज कर रही हैं। चिदम्बरम ममता को नाराज करना नहीं चाहते। माकपा ममता से भयभीत है। सबको चुनाव लड़ने हैं। निकाय चुनाव के बाद तैयारी विधानसभा चुनाव की है। इसलिए सब अपनी-अपनी रणनीति के अनुसार नक्सलियों को देख रहे हैं। देश को कोई नहीं देख रहा है।'

बेंगलूरु से नवीन दोषी ने लिखा- 'नक्सली नासूर बन चुके हैं। नासूर को शरीर से काट फेंकना ही बेहतर है।'

जोधपुर से डॉ. रवीन्द्र माथुर ने लिखा- 'एक तो निरपराध नागरिकों की हत्याएं और ऊपर से नक्सलियों के लश्कर-ए-तैयबा से सम्पर्क की खबर (26 मई, शांति प्रक्रिया पर काली छाया) हमारी आंतरिक सुरक्षा को गंभीर चुनौती है।'

ग्वालियर से सतीश पटेरिया के अनुसार- 'पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका है। यूपीए- दो को अपने एक वर्ष शासन के जश्न को खत्म करके नक्सलियों के खात्मे पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।'

नवलगढ़ (झुंझुनूं) से प्रीति कुमावत ने लिखा- 'नक्सलवाद आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक है।' अजमेर से नीरज शर्मा ने लिखा- 'नक्सली जब देश के आम आदमी को ही निशाना बनाने लग गए तो उन्हें देश का नागरिक मानना भूल होगी।' अलवर से गोपाल यादव ने लिखा- 'अफसोस की बात है कि बस यात्रियों के मारे जाने के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री ने नक्सलियों से वार्ता की पेशकश की जिसे नक्सलियों ने ठुकरा दी। (19 मई, हिंसा छोड़ो, बात करो) नक्सलियों से नरमी की क्या जरूरत है।'

प्रिय पाठकगण। 17 और 28 मई की घटनाओं पर अनेक पाठकों की प्रतिक्रियाएं शेष हैं। सभी का सार है कि निर्दोष नागरिकों की हत्याएं नक्सलियों की हताशा लेकिन खतरनाक इरादों का संकेत है। वे आदिवासियों के शोषण के नाम पर सिर्फ अराजकता फैला रहे हैं। उनमें और आतंककारियों में कोई फर्क नहीं।
बधाई संदेश
मध्य प्रदेश में पत्रिका के दो वर्ष पूर्ण होने पर देश भर से पाठकों के बधाई संदेश व शुभकामनाएं प्राप्त हुई हैं। पाठकों ने लिखा- 'सार्थक पत्रकारिता के माध्यम से पत्रिका ने मिसाल कायम की, जिससे पत्रिका अल्प समय में मध्य प्रदेश की आवाज बन गया और पाठकों का विश्वास अर्जित करने में सफल रहा। 'पत्रिका' की ओर से पाठकों का आभार व्यक्त किया गया है।

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प्रेस की स्वतंत्रता पर आक्रमण

इंदौर में पत्रिका पर हमले की घटना ने देश भर के पाठकों में मानो उबाल-सा ला दिया। पाठक उद्वेलित हैं और हमलावरों की कड़ी भत्र्सना कर रहे हैं। मुझो रोजाना ढेरों प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। कई आप पढ़ चुके हैं। आगे भी पढ़ेंगे। यहां कुछ चुनिंदा प्रतिक्रियाएं। जो समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हैं।

प्रिय पाठकगण! पहले एक जरूरी बात। किसी भी विवाद में दो पक्ष होते हैं। यहां भी हैं। एक हमलावर है तो दूसरा हमले का शिकार है। हमले का शिकार कौन? अखबार का पाठक। यानी आम आदमी। आखिर वितरकों-हॉकरों से अखबार के बंडल छीनकर पाठकों को खबरों से वंचित करना उनके हकों पर हमला ही तो है। पाठक जानना चाहते हैं कि ऐसी कौन-सी खबर थी जिसे वे पाठकों की पहुंच से दूर रखना चाहते थे। और क्यों? जयपुर से डॉ। अरविन्द गुप्ता ने लिखा- 'कांपती मथुरा और इंदौर में प्रेस की आजादी पर आक्रमण (७ मई) पढ़कर मुझो घोर आश्चर्य हुआ।

आश्चर्य इस बात का कि सूचना का अधिकार के युग में ऐसे सिरफिरे भी हैं जिन्होंने एक प्रतिष्ठित अखबार को उसके पाठकों से वंचित करने का विफल कृत्य किया। जी हां, विफल। क्योंकि आज के युग में अखबार को रोकना आसान नहीं। आधुनिक सूचना तकनीक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक व्यवस्था तो है ही। महत्वपूर्ण बात यह है कि जब भी किसी अखबार की स्वतंत्र और निष्पक्ष आवाज को दबाने की कोशिश की गई, वह अखबार पाठकों का और भी चहेता बन गया। मुझो पूरा यकीन है, इंदौर की घटनाओं ने 'पत्रिका' को पाठकों का सबसे चहेता अखबार बना दिया होगा। इंटरनेट पर भी पत्रिका को पढ़ने वालों की संख्या बढ़ गई होगी।'

इंदौर के सामाजिक कार्यकर्ता श्रीधर बापट के अनुसार- 'पत्रिका का ७ मई का अंक देखकर दंग रह गया। अखबार के सैकड़ों बंडल नाले में पड़े थे जिन्हें गुण्डों ने हॉकरों से छीनकर फेका था। पुलिस संगीनें लिए खड़ी है, लेकिन मूकदर्शक।

एक फोटो में मोटरसाइकिलों पर गुण्डों की फौज सवार है। जमीन पर अखबार की फटी हुई प्रतियां उनकी काली करतूत की दास्ता बयां कर रही थी। सचमुच उस दिन इंदौर में गुण्डाराज था जिसने लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को अपमानित करके मुझा जैसे लाखों इंदौरवासियों को शर्मशार कर दिया।'

इंदौर के ही अनिल नागपाल ने लिखा- 'पत्रिका इंदौर के आम आदमी का प्रिय अखबार है। इसका प्रमाण है, गुण्डों द्वारा छीनकर फेंकी गई अखबार की प्रतियों को लोगों ने ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ा।' विकास माथुर ने लिखा, 'आखिर पत्रिका ने क्या गलत लिखा? मंत्री और विधायक के भ्रष्टाचार को उजागर करना अखबार का उत्तरदायित्व है। इस उत्तरदायित्व से इंदौर के अन्य अखबारों ने क्यों मुंह फेरा, यह समझा से परे है।'

इंदौर से विजय वर्मा ने लिखा- 'इंदौर शहर में एक बार फिर गुण्डों ने आतंक मचाया और शिवराज में जंगलराज का एक और नमूना दिखाया। माफ कीजिएगा... ये लोग आज अचानक कहीं से पैदा नहीं हो गए। ये पहले से यहीं मौजूद थे। मगर अफसोस किसी ने आंखें खोलना जरूरी ही नहीं समझा।'

भोपाल से एडवोकेट रमेश शर्मा के अनुसार- 'मंत्री कैलाश विजयवर्गीय और विधायक रमेश मेंदोला के भ्रष्ट कारनामों की तथ्यों सहित पोल खोली गई तो वे बौखला गए। मध्य प्रदेश में राजनेताओं और अफसरों का भ्रष्टाचार चरम पर है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भ्रष्टाचार के खात्मे की बात करते हैं। लेकिन हकीकत में भ्रष्ट मंत्रियों पर कार्रवाई नहीं करना चाहते। सुगनीदेवी कॉलेज परिसर का भूमि घोटाला बच्चे-बच्चे की जुबान पर है, परंतु मुख्यमंत्री सहित भाजपा के सभी शीर्ष नेता मौन हैं।'

ग्वालियर से संगीता शर्मा (गृहणी) ने लिखा- 'पत्रिका की पहले दिन से ही पाठक हंू। जैसा सुना था वैसा ही पाया। इसलिए पढ़े बगैर चैन नहीं पड़ता। मध्य प्रदेश सहित पूरे देश में भ्रष्टाचार फैला हुआ है। बड़े-बड़े नेता भ्रष्टाचार मिटाने की बात करते हैं। पत्रिका यही तो कर रहा था।'

कोटा से संगीता सक्सेना (शास्त्रीय गायिका) ने लिखा- 'हम पत्रिका के पीढि़यों से पाठक हैं। रोज सुबह ५ बजे टीवी पर स्वामी रामदेवजी का योग कार्यक्रम तथा सवा पांच बजे राजस्थान पत्रिका से अपने दिन की शुरुआत करते हैं। बेबाक, बेखौफ व बुलंद पत्रिका की आवाज को कोई दबाने की कोशिश करता है तो यह सीधा-सीधा जनमानस पर आघात होगा।'

'भ्रष्टाचार के खिलाफ मीडिया की आवाज को कोई दबा नहीं सकता, बशर्त मीडिया यह कार्य पूर्ण निष्पक्षता से करे।' यह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अजमेर से पूर्व प्राचार्य डा. पुरुषो?ाम उपाध्याय ने लिखा- 'पत्रिका की छवि एक निर्भय और निष्पक्ष अखबार की रही है।

पत्रिका के संस्थापक स्व. कुलिशजी जुझारू पत्रकार थे। वे कभी झाुके नहीं। इसीलिए पत्रिका को विशाल पाठक समुदाय मिला। इंदौर में पत्रिका पर हमले के बाद विभिन्न वर्गों से समर्थन की जो प्रतिक्रियाएं मिल रही है, वही उसकी वास्तविक शक्ति है। इस शक्ति से बौखलाकर कोई भ्रष्ट राजनेता अखबार की आवाज दबाने की हिमाकत करता है तो उस पर तरस ही आता है।'

अहमदाबाद से हरीश पारीक ने लिखा- 'पत्रिका के समाचारों से अगर मंत्री या विधायक को कोई आपत्ति थी तो वे प्रेस कौंसिल में जा सकते थे। कोर्ट के दरवाजे भी खुले हैं। लेकिन यह क्या! अखबार की प्रतियां लूटना, बंडल छीनना, वितरकों/हॉकरों से मारपीट करना लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह सब नहीं चलता।'

प्रिय पाठकगण! पाठकों के सभी पत्रों में लोकतंत्र के चौथे पाए पर हमले की निन्दा की गई है। और यह सवाल उठाया गया है कि प्रेस की स्वतंत्रता को रोकने का किसी को क्या अधिकार है। स?ााधीश मंत्री और विधायक के भ्रष्टाचार को लेकर तथ्यपरक समाचारों को मध्य प्रदेश सहित सभी जगह के पाठकों ने सराहा। कर्नाटक, तमिलनाडू, पं. बंगाल, गुजरात, राजस्थान आदि प्रदेशों के पाठकों की प्रतिक्रियाएं इसका प्रमाण हैं।

कई प्रतिक्रियाओं का सार है कि मध्य प्रदेश के इस राजनीतिक भ्रष्टाचार की लोकायुक्त जांच चल रही है। लेकिन अखबार में जो तथ्य प्रकाशित हुए हैं, वे इतने पर्याप्त हैं कि आरोपित नेताओं को स्वत: ही नैतिकता के आधार पर पद त्याग देने चाहिए अन्यथा शीर्ष नेतृत्व को उन्हें हटा देना चाहिए। जनभावना का यही तकाजा है।

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रिश्वत का रोग

जयपुर के एक युवा चिकित्सक डॉ. शशांक सेन की प्रतिक्रिया है- 'हाल ही पत्रिका में प्रकाशित चिकित्सकों के भ्रष्टाचार सम्बन्धी समाचारों ने साख खोते जा रहे चिकित्सकीय पेशे को शर्मशार ही किया है। 'डॉक्टर से रिश्वत लेते डॉक्टर गिरफ्तार' (24 अप्रेल) और 'डॉक्टर के घर करोड़ों की सम्पत्ति' (संदर्भ डॉ। केतन देसाई प्रकरण, 25 अप्रेल) समाचारों को पढ़कर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति आहत हुए बिना नहीं रहेगा। यूं तो भ्रष्टाचार सब जगह है, लेकिन डॉक्टर होने के नाते मैं अपने इस पेशे के प्रति ज्यादा चिंतित हूं। हमारा पेशा औरों से भिन्न है। जिन्दगी और मौत देने वाला तो भगवान है, फिर भी करोड़ों लोग चिकित्सकों को भगवान से कम नहीं मानते। उन पर क्या बीतती होगी, जब वे ऐसे समाचार पढ़ते हैं। रिश्वतखोरी की दोनों घटनाएं शर्मनाक हैं। दोनों आरोपी चिकित्सक खास जिम्मेदारी के ओहदे पर बैठे हुए वरिष्ठजन हैं।' जोधपुर से दिवाकर सोनी ने लिखा- 'मैं यकीन से कहता हूं कि भारत समेत दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है, जहां चिकित्सक बी.पी.एल. श्रेणी में आता हो। भारत में भी एक सामान्य चिकित्सक को इतना अवश्य मिल जाता है कि वह आत्मसम्मान पूर्वक जीवन-यापन कर सके। इसलिए यह तो स्पष्ट है कि चिकित्सक भी अन्य भ्रष्टाचारियों की तरह लालच का शिकार हो रहे हैं। लेकिन इसके परिणाम जितने गम्भीर हैं, उतने किसी और पेशे में नहीं हैं। रिश्वतखोरी या भ्रष्टाचार भले ही चिकित्सा-कौशल से सीधे न जुड़े हों, परन्तु ये बुराइयां कहीं न कहीं रोग-निदान पर असर डालती है जो इंसानी जिन्दगी और मौत से जुड़ी हैं।'

प्रिय पाठकगण! भ्रष्टाचार सम्बन्धी समाचारों पर पाठक सदैव त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। सम्भवत: इस 'महामारी' से हर व्यक्ति प्रभावित है। पत्रिका के सर्वे (2 मई) से भी यह जाहिर है। पाठकों ने चिकित्सा क्षेत्र के संदर्भ में फैले भ्रष्टाचार को इंगित किया है। इंदौर से देवेन्द्र राज शुक्ला ने लिखा- 'मेडिकल कौंसिल ऑफ इण्डिया एक सम्मानित संस्था है। चिकित्सा-पेशे से जुड़े मानदंड उसकी निगरानी में तय होते हैं। लेकिन जब संस्था का अध्यक्ष ही दो करोड़ की रिश्वत के आरोप में गिरफ्तार होता है तो संस्था के सम्मान को तार-तार कर देता है। दिल्ली, अहमदाबाद और अन्य ठिकानों पर सी।बी।आई. छापों में डॉ. केतन देसाई के पास करोड़ों रुपए की सम्पत्ति इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि इतनी सम्पत्ति कोई अपने वेतन से तो सात जन्मों में भी अर्जित नहीं कर सकता।'

अजमेर से धीरज गुप्ता ने लिखा- 'सर्वाधिक गम्भीर बात यह है कि डॉ। केतन देसाई को एक निजी मेडिकल कॉलेज को मान्यता देने के बदले रिश्वत लेने के आरोप में पकड़ा गया। अब तो यह भी सामने आ रहा है कि डॉ. देसाई ने देश के कई निजी मेडिकल कॉलेजों से करोड़ों की रिश्वत लेकर मेडिकल कौंसिल की अनुमति दिलवाई। रिश्वत देकर मान्यता प्राप्त करने वाली संस्थाएं मेडिकल क्षेत्र में कैसा योगदान कर रही होंगी, यह हर कोई समझा सकता है।'

भोपाल से अनुपम श्रीवास्तव के अनुसार- 'मैं ऐसे व्यक्ति को जानता हूं जिसने अपने सुपुत्र को एक निजी मेडिकल कॉलेज में लाखों रुपए रिश्वत देकर दाखिला कराया, जो फिसड्डी था। आज वह डॉक्टर बनकर धड़ल्ले से प्रैक्टिस कर रहा है और ऊंची फीस वसूल कर रहा है। उसके पिता का तर्क है, बच्चे को डॉक्टर बनाने के लिए हमने लाखों का इन्वेस्टमेंट किया था।'

हरेन्द्र बेनीवाल (बाड़मेर) ने लिखा- 'रिश्वत देकर मान्यता प्राप्त करने वाली मेडिकल कॉलेज छात्रों से वसूली प्रक्रिया अपनाती है। सीटों में हेराफेरी करके ऊंचा चंदा वसूल करती है। कम अंकों के बावजूद छात्रों को दाखिला दे देती है, जबकि ज्यादा अंकों वाले छात्रों को लटका देती है। जयपुर की एक निजी मेडिकल कॉलेज का ऐसा ही एक मामला पिछले दिनों सामने आया था।'

जयपुर से धनञ्जय शर्मा ने लिखा- 'राज्य के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के मेडिकल ज्यूरिस्ट विभागाध्यक्ष अगर किसी डॉक्टर से ही रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़े जाएं तो फिर कहने के लिए क्या रह जाता है। यह विभाग कई जटिल मामलों का संधारण करता है। विभाग की सिफारिश और अन्वेषण पर कानून और न्याय की बुनियाद टिकी होती है। वह विभाग भी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है- यह सवाई मानसिंह अस्पताल के मेडिकल ज्यूरिस्ट विभागाध्यक्ष डॉ। बी.एम. गुप्ता की गिरफ्तारी से साफ हो जाता है।'

उदयपुर से शिवानी माथुर ने लिखा- 'रिश्वतखोरी देश की एक गंभीर महामारी का रू प धारण कर चुकी है। हालांकि भ्रष्टाचार के और भी कई रू प हैं, लेकिन सबसे बड़ा दैत्य तो रिश्वतखोरी ही है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वर्ष 2008 में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों ने मूलभूत सुविधाओं को हासिल करने के लिए 90 अरब रुपए की रिश्वत दी। अब यह राशि 100 अरब के पार जा चुकी होगी। अंदाज लगा सकते हैं कि भारत में रिश्वतखोरी की समस्या कितनी विकराल है।'

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बर्बर माओवादी

'बर्बर नक्सली हमला' (पत्रिका 7 अप्रेल) समाचार पर पाठकों की विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में माओवादियों ने अब तक का सबसे बड़ा हमला बोलकर एक साथ 76 जवानों को मार डाला। इस हत्याकाण्ड ने पूरे तंत्र को झाकझाोर दिया। कुछ लोगों का मानना है कि नक्सली आंदोलन शोषण की उपज है। इस आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले कुछ राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार संगठनों के विचार व तर्कों से परे आम नागरिक भारत में माओवादियों की विचारधारा और आंदोलन को किस नजरिए से देखता है, यह जानना महत्वपूर्ण होगा।

जयपुर से हरिश्चन्द्र शुक्ला की प्रतिक्रिया है- 'दंतेवाड़ा और इससे पहले गढ़चिरौली, लालगढ़ आदि घटनाओं को सामान्य नक्सली आंदोलन समझाना भूल होगी। जैसा कि एक पूर्व सैन्य अधिकारी आर। विक्रम सिंह ने उत्तर प्रदेश के एक हिंदी दैनिक में लिखा- ये घटनाएं नक्सली आंदोलनकारियों की करतूत भर नहीं है। यह भारत पर मंडराता आंतकवाद और माओवाद की संयुक्त चुनौती का खतरा है। देश में दोनों ताकतें एक-दूसरे से कदम मिलाकर चल रही हैं। मजहबी आतंककारियों के आका पाकिस्तान में और माओवादियों के आका चीन में हैं। इन दोनों देशों की रणनीतिक घनिष्ठता का उद्देश्य भारत को खंडित कर इलाके बांटना है। सिंह का यह आकलन मुझो तो सही लगता है। देश में मुट्ठी भर समझो जाने वाले हार्डकोर माओवादियों से निपटने के लिए 37 हजार अद्र्ध सैनिक बल भी नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं तो जरू र इसके पीछे कुछ बड़ी ताकतें काम कर रही हैं।'

सूरत से राहुल एस. मेहता ने लिखा- 'नक्सलियों को विदेशी मदद मिल रही है। दंतेवाड़ा हत्याकाण्ड के बाद गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी स्वीकार किया कि नक्सलियों को सीमा पार से हथियार मिलते हैं। (पत्रिका 9 अप्रेल) नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश की खुली सीमाओं से नक्सली जो हथियार प्राप्त कर रहे हैं वे उन्हें कहां से मिल रहे हैं- यह जानने की जरू रत है।'

इंदौर से अरविन्द खरे ने लिखा- 'नक्सलियों ने साठ के दशक में अपना एक राजनीतिक दल भी गठित किया था। उसी समय चीन के साथ समस्याओं की शुरुआत हुई थी। चीन आज भी जिस तरह इंच-इंच करके भारत की भूमि हड़प रहा है, उसे देखते हुए साफ है कि वह भारत का हितैषी नहीं है।'

कोलकाता से डा. प्रदीप शर्मा ने लिखा- 'यह सही है कि नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत गरीबों पर अत्याचार और शोषण की प्रतिक्रिया स्वरू प हुई। लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक देश में सशस्त्र विद्रोह का कोई अर्थ नहीं। माओवादियों को पंजाब के उग्रवादियों की हार से सबक सीखना चाहिए।'जबलपुर से जयकान्त दीक्षित ने लिखा- 'माओवादी अपने उद्देश्य से पूरी तरह भटक गए। चारू मजूमदार और कानू सान्याल की विचारधारा चकाचौंध में खो गई। नक्सली अब सत्ता के ख्वाब देख रहे हैं। वे दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होना चाहते हैं। भोले-भाले आदिवासियों को वे लाल क्रांति का सपना दिखाकर लुभा रहे हैं। बेरोजगार युवकों को बाकायदा वेतन देकर भर्ती कर रहे हैं। लोकतंत्र में सत्ता प्राप्त करने का हक सभी को है- लेकिन बुलैट से नहीं बैलेट से।'

कोटा से दयानन्द वैष्णव ने लिखा- माओवादी-नक्सली बहुत खूंखार तरीके अपना रहे हैं। सी।आर.पी.एफ. के 120 हथियारबंद जवान तीन एंटीलैंड माइन वाहनों में बैठकर दंतेवाड़ा के जंगलों में गए थे। लेकिन नक्सलियों ने उन्हें जिस तरह घेरकर गोलियों से भूना और धमाके किए, उससे स्पष्ट है कि उनके पास अत्याधुनिक हथियारों की कोई कमी नहीं है। पहले नक्सलियों के पास पुलिस से लूटी हुई रायफलें ही हुआ करती थीं। वे गुरिल्ला पद्धति से छिपकर वार करते थे। लेकिन दंतेवाड़ा की घटना कुछ और ही संकेत कर रही है। माओवादियों को इतनी ताकत कहां से मिल रही है।'श्रीगंगानगर से संतोष सिंह ने लिखा- 'वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल पी.वी. नाइक ने कहा कि सशस्त्र सेनाएं घातक अभियानों के लिए प्रशिक्षित हैं, कम घातक अभियानों के लिए नहीं। (पत्रिका 8 अप्रेल) नाइक के इस वक्तव्य के बारे में मुझो यही कहना है कि नक्सली हैवानियत की हदें पार कर चुके हैं। इनके खिलाफ घातक अभियान ही चलाया जाना चाहिए। नासूर अब खत्म होना जरू री है।'

कुछ पाठकों ने उन परिस्थितियों की चर्चा भी की जिसके चलते नक्सलवाद पनपा। अजमेर से डी.डी. गर्ग के अनुसार- 'बंदूक का जवाब बंदूक से देकर कोई समस्या हल नहीं हो सकती। इस समस्या का राजनीतिक समाधान होना चाहिए। इस बारे में भाकपा (माले) के दीपंकर भट्टाचार्य ने सही कहा। (पत्रिका 10 अप्रेल) जोधपुर से दीपेन्द्र डागा ने लिखा- 'सुरक्षाबल आदिवासियों पर अत्याचार करते हैं। अतिउत्साहित अधिकारियों ने दंतेवाड़ा की घटना से कुछ दिन पहले ही जनजातियों को उनके जंगल में स्थित घरों से खदेड़ दिया था। इसका सबूत स्वयं केन्द्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लई का बयान है। (पत्रिका 14 अप्रेल)

उदयपुर से नीलिमा खत्री ने लिखा- 'आदिवासियों पर जुल्म पुरानी बातें हैं। छत्तीसगढ़ देश का पहला राज्य है, जहां गरीबों के लिए दो रुपए किलो चावल सरकार ने उपलब्ध कराया और आदिवासियों के लिए 'सलवा जुड़ूम' जैसा पुनर्विकास का अभियान चलाया। उसी छत्तीसगढ़ में देश का सबसे बर्बर माओवादी हमला हुआ।'

प्रिय पाठकगण! हिंसक विचारधारा चाहे वह मजहबी आतंकवाद से जुड़ी हो अथवा राजनीतिक माओवाद से- लोकतंत्र में उसका कोई स्थान नहीं है। हिंसक विचारधाराएं बार-बार नकारी जा चुकी हैं, क्योंकि ये लोकतंत्र ही नहीं मानवता की भी दुश्मन हैं।

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सहजीवन पर बहस

सहजीवन (लिव-इन-रिलेशनशिप) पर सुप्रीम कोर्ट की राय और राधा-कृष्ण के उल्लेख से देश में बहस छिड़ी हुई है। पाठकों की लगातार प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। इस बारे में पत्रिका का सर्वे (27 मार्च) भी मत-विमत की आधार भूमि बना है।

कोटा से डॉ. वैभव गुप्ता ने लिखा- 'सर्वे में हालांकि 82 फीसदी लोगों ने शादी किए बगैर महिला-पुरुष का साथ रहना अनुचित माना है। लेकिन शेष 18 फीसदी लोगों का सहजीवन को उचित ठहराना सोचने को मजबूर करता है कि हमारा भावी सामाजिक ढांचा कैसा बनने जा रहा है। जिस देश में विवाह को एक संस्कार समझा जाता हो, विवाह-पूर्व शारीरिक सम्बन्ध अपवित्र माने जाते हों, वहां 18 फीसदी लोगों की ऑन रिकार्ड स्वीकृति हमें एक ऐसी सच्चाई से रू बरू कराती है जिससे हम आंख मूंदे रखना चाहते हैं। जरा हमारी मौजूदा जीवन-शैली तो देखें। साफ है सहजीवन आज नहीं तो कल सामाजिक सच्चाई बनकर रहेगी।'

जयपुर से श्याम शरण बियानी ने लिखा- 'लिव-इन-रिलेशनशिप पर पत्रिका के सर्वे से प्रमाणित है कि विवाह एक मजबूत और सार्थक संस्था है, जिसे कोई तार-तार नहीं कर सकता। मैं बुजुर्गों और महिलाओं की बात नहीं करता। विवाह से पूर्व शारीरिक सम्बन्धों को 76 प्रतिशत युवाओं ने भी नकार दिया। हम युवाओं पर अक्सर भटक जाने का आरोप लगाते हैं। मेरी समझा में आज के युवा अत्यन्त समझादार और जिम्मेदार हैं। उनके नाम पर भविष्य के समाज की ऊल-जलूल कल्पनाएं करना निरर्थक हैं।'

अहमदाबाद से हरीश पारिख ने लिखा- 'आधुनिक लिव-इन-रिलेशनशिप की पौराणिक राधा-कृष्ण से तुलना करने पर मुझा जैसे कई धार्मिक व्यक्तियों को ठेस पहुंची है। गुलाब कोठारी ने 'बहस तो करें' (26 मार्च) में सही लिखा कि राधा-कृष्ण के स्वरू प को समझाने के लिए एक जन्म काफी नहीं है। एक दार्शनिक और आध्यात्मिक सम्बन्ध की वर्तमान के भोग-पिपासु और वासनामय रिश्तों से तुलना करना अनुचित है। 'भोपाल से मोहनदास आसुदानी ने लिखा- 'हमारे धार्मिक ग्रंथों में राधा का कहीं उल्लेख नहीं है। राधा की कल्पना लौकिक अवतरण है। श्रीकृष्ण से सम्बन्धित प्रमुख ग्रंथ 'महाभारत' और 'श्रीमद् भागवत महापुराण' में कहीं राधा का उल्लेख नहीं है। हरिवंश और विष्णु पुराण में भी राधा का नाम तक नहीं है। सातवी-आठवीं शताब्दी के बाद रचे गए ग्रंथों में जाकर राधा का उल्लेख आता है। राधा और कृष्ण स्त्री और पुरुष के परस्पर प्राकृतिक प्रेम, सहज आकर्षण और आवश्यकता के प्रतीक हैं।'
उदयपुर से भूपेन्द्र सिंह ने लिखा- 'जिस तेजी से प्रेम-विवाह विफल हो रहे हैं तथा जिस तादाद में तलाक के मामले बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए लिव-इन-रिलेशनशिप में क्या खामी है? पति-पत्नी में अंडरस्टैंडिंग न हो तो कैसा विवाह? नीरस रिश्तों को ढोने से कोई फायदा नहीं। लिव-इन-रिलेशनशिप का ट्रेंड दो जनों के बीच अंडरस्टैंडिंग मजबूत करने का माध्यम है।'
इंदौर से डॉ. डी.सी. भारद्वाज ने लिखा- 'विवाह से पूर्व एक दूसरे को समझा लेना बहुत जरू री है। 40 फीसदी विवाह सिर्फ इसलिए टूटते हैं कि पति-पत्नी के बीच भावनात्मक सहयोग की कमी है। शायद इसीलिए पश्चिम के लेखक व दार्शनिक बर्टेन्ड रसेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'मैरिज एण्ड मोरेल्स' में 'ट्रायल मैरिज' का विचार प्रस्तुत किया था। आज का लिव-इन-रिलेशनशिप इसी विचार का क्रियारूप है। 'इंदौर से ही दिनेश अहिरवार के अनुसार- 'पश्चिम की जीवन और विचार शैली से प्रभावित होकर हम कई बेसिर-पैर के निर्णय कर रहे हैं जो हमारी सेहत (संस्कृति) के लिए ठीक नहीं है। जापान, चीन जैसे देश इसीलिए तरक्की कर सके क्योंकि इन देशों ने अपने मूलभूत विचार और जीवन पर कभी दूसरे देशों को हावी नहीं होने दिया।'
बीकानेर से दुर्गेश्वरी पारीक ने लिखा- 'स्त्री-पुरुष के बीच रिश्तों को चाहे जिस ढंग से निभाएं पलड़ा स्त्री का ही हमेशा कमजोर रहता है। न्यायालय ने सहजीवन को स्वीकृति देकर कम-से-कम कानूनी तौर पर तो स्त्री के अधिकार को सुरक्षित कर दिया है।'

भरतपुर से नम्रता राजवंशी ने लिखा- सबसे ज्यादा भुगतना बच्चों को पड़ेगा। ऐसे युगलों से उत्पन्न संतान के समक्ष सामाजिक मान्यता का संकट सदैव उपस्थित रहेगा- भले ही कानूनी स्थिति कुछ भी हो।'

बेंगलूरु से दुष्यन्त मेहता ने लिखा- 'जरूरत है आज के युवाओं की स्थिति को सहानुभूतिपूर्वक समझाने की। कॅरियर, प्रतिस्पद्र्धा, तनाव और महानगर की भागमभाग जिंदगी में उन्हें कहां फुरसत है- शादी के बारे में सोचने की। शादी के बगैर साथ रहकर युवा जोड़े एक दूसरे को सुकून और संबल देते हैं। प्लीज, उनका सुकून मत छीनिए।'

जबलपुर से देवेश श्रीवास्तव के अनुसार- 'लिव-इन-रिलेशनशिप महज वासनापूर्ति का नाम है। फिर तो समलैंगिकता और पार्टनर के अलावा भी दूसरे व्यक्ति से सैक्स संबंधों को मान्य करना होगा।'

जोधपुर से प्रो. शारदा माथुर ने लिखा- 'विवाह एक संस्कार ही नहीं, सामाजिक उत्तरदायित्व भी है। समाज में रहते हुए आप उससे मुंह नहीं फेर सकते। आपकी जो हैसियत या शख्सियत है उसमें समाज का भी योगदान है। विवाह पुरखों का कर्ज उतारना है तो पुरखों का धर्म निबाहना भी है। इसलिए जब तक विवाह संस्था का कोई बेहतर विकल्प नहीं मिले- इसे बचाना जरूरी है। सहजीवन बेहतर तो क्या, विवाह का अभी काम-चलाऊ विकल्प भी नहीं बन पाया है।'

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सत्ता में भागीदारी

इंदौर की सामाजिक कार्यकर्ता सुमिता चित्रे ने लिखा- '12 सितम्बर 1996 भारतीय महिलाओं के लिए ऐतिहासिक दिवस के तौर पर दर्ज है, जब लोकसभा में पहली बार महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया। दूसरा ऐतिहासिक दिवस 9 मार्च 2010 है, जब 14 साल बाद यह विधेयक राज्यसभा में पारित किया गया। इस ऐतिहासिक क्रम में अभी तीन कडिय़ां और जुडऩी हैं। पहली, जब यह विधेयक लोकसभा में पारित होगा। दूसरी, जब यह विधेयक देश की 14 विधानसभाओं में मंजूर होगा। और तीसरी, जब यह विधेयक भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त कर लेगा। भारत की आधी आबादी इन कडिय़ों के जुडऩे की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है, ताकि इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा जा सके।'

प्रिय पाठकगण! महिला आरक्षण विधेयक पर देश भर में बहस चल रही है। मीडिया में इस पर निरंतर हो रही चर्चा के मुख्य दो बिन्दु हैं।

1. महिला आरक्षण विधेयक मूल स्वरू प में पारित हो।

2. विधेयक में कुछ संशोधन होने चाहिए।

संशोधन के पक्षधरों में भी दो तरह के दृष्टिकोण हैं। पहला यह कि दलित, पिछड़ी और अल्पसंख्यक महिलाओं का अलग से कोटा निर्धारित हो। इनका तर्क है कि अन्यथा सत्ता में केवल उच्च वर्ग की महिलाएं ही काबिज हो जाएंगी। दूसरा दृष्टिकोण यह है कि आरक्षण सीटों की बजाय टिकटों का हो अर्थात प्रत्येक दल चुनावों में 33 फीसदी टिकट अनिवार्यत: महिलाओं को दें। इनका तर्क है कि सीटों पर आरक्षण लैंगिक समानता के खिलाफ है जो लोकतंत्र की मूल भावना को ठेस पहुंचाएगा। महिला आरक्षण के मूल स्वरू प में यह प्रावधान है कि यह रोटेशन से लोकसभा और विधानसभाओं की सीटों पर लागू होगा तथा सभी महिलाओं पर समान रू प से लागू होगा। इस मत के पक्षधरों का मानना है कि इससे देश में महिला सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त होगा जो आगे चलकर उनके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक उत्थान में कारगर होगा। अगर महिलाओं को बांट दिया गया अथवा टिकटों में आरक्षण दिया गया तो उन्हें कोई फायदा नहीं होगा।
अर्थात् सबके अपने-अपने तर्क हैं। इस पृष्ठभूमि में पाठकों की क्या राय है, यह जानना महत्वपूर्ण है। शायद उनकी राय मार्गदर्शनकर सके।

जयपुर से डा. पुनीतदास के अनुसार- 'लोकतंत्र का सार है कि अधिसंख्य लोगों की राय से ही कोई कार्य हो। हालात देखकर साफ है कि जिन दलों ने राज्यसभा में यह विधेयक पारित कराया, अभी उनमें भी एक राय नहीं है। यही वजह है कि लोकसभा में यह विधेयक अभी तक रखा ही नहीं गया। आखिर क्यों हम इस विधेयक के समस्त गुण-दोषों का आकलन करने से बचना चाहते हैं?'

जोधपुर से राजपाल सिंह ने लिखा- 'महिलाओं के आरक्षण पर डा. नलचिनपन की अध्यक्षता वाली संसद की स्थाई समिति ने इस विधेयक के अन्तरविरोधों के मद्देनजर इस बात पर गंभीरता से विचार किया था कि देश की उन सीटों की पहचान की जानी चाहिए जहां महिलाओं की आबादी का औसत ज्यादा है। ताकि उसीमें से 33 प्रतिशत सीटें दोहरी निर्वाचन प्रणाली के आधार पर छांट ली जाए। उनका आशय साफ था कि लोकसभा व विधानसभा के वर्तमान स्वरू प में परिवर्तन किए बिना महिलाओं को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। लेकिन यह फार्मूला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। अगर इसे विधेयक में रखा जाता तो आज इसका शायद ही कोई विरोध करता।'

भोपाल से दिलीप जायसवाल ने लिखा- 'महिला आरक्षण विधेयक के स्थान पर राजनीतिक दलों के लिए यह कानून बना दिया जाए कि वे 33 फीसदी टिकट महिलाओं को आवंटित करे।'

अजमेर से डा. माया गुप्ता ने लिखा- 'तैंतीस फीसदी टिकटों का सुझााव महज एक छलावा है। सभी राजनीतिक दल टिकट आवंटन के दौरान एक ही तर्क देते हैं- टिकट उसी को जो जीत सके। यानी महिलाओं को सिर्फ हारने वाली सीटें मिलेंगी।'

अहमदाबाद से परितोष अग्निहोत्री के अनुसार- 'कोई भी राजनीतिक दल महिलाओं के प्रति उदार नहीं है। वरना आजादी के 63 साल बाद भी 544 सदस्यों की लोकसभा में केवल 59 महिलाएं ही होतीं?'

बंगलुरु से दीप राजपुरोहित ने लिखा- 'स्वीडन की संसद में वहां की 47 फीसदी महिलाओं की नुमाइंदगी है। स्वीडन में राजनीतिक दलों ने अपने आप ही महिलाओं के लिए संसद का 40 प्रतिशत टिकट का कोटा तय कर रखा है।'

बीकानेर से श्यामसुन्दर व्यास ने लिखा- 'सत्ता में महिलाओं की भागीदारी देने के मामले में भारत पाकिस्तान से भी पीछे है। इसलिए सारे विरोध छोड़कर विधेयक का सबको समर्थन करना चाहिए।'

उदयपुर की अनुराधा श्रीमाली ने लिखा- 'देश की 12 लाख पंचायतों में महिलाएं पंच-सरपंच निर्वाचित हुई हैं। जब पंचायतों में पचास फीसदी आरक्षण का विरोध नहीं हुआ तो अब 33 फीसदी पर क्यों शोर मचाया जा रहा है।'

श्रीगंगानगर से सुमित लाल अरोड़ा ने लिखा- 'इस विधेयक का सबसे कमजोर पक्ष यह है कि चुनावी सीट लॉटरी सिस्टम से रोटेशन में चलेगी। अर्थात एक तिहाई सीटों पर कोई भी महिला या पुरुष अपने क्षेत्र में पहचान नहीं बना पाएगा।'

दिल्ली से राजीव खत्री ने लिखा- 'महिला आरक्षण बिल की खामियों को बाद में भी दूर किया जा सकता है। रास्ता हमेशा खुला है। पूर्व में भी अनेक कानूनों में संशोधन किए गए हैं। फिलहाल इसे संशोधन की आड़ में लटकाए रखना अनुचित होगा। आखिर महिलाओं ने इसके लिए एक लम्बी लड़ाई जो लड़ी है।'

प्रिय पाठकगण! सत्ता में महिलाओं को उचित भागीदारी मिलनी चाहिए। यह उनका अधिकार है। ज्यादातर पाठकों की भी यही राय है। इस विधेयक का उद्देश्य भी यही है। यह लक्ष्य कैसे शीघ्र हासिल किया जा सकता है- जोर उसी पर होना चाहिए।

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टूट गई आस

जयपुर के सेवानिवृत्त शिक्षक घनश्याम वाष्र्णेय ने लिखा-'पत्रिका के 6 मार्च के अंक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का महंगाई पर बयान पढ़कर घोर निराशा हुई। (महंगाई रोकते तो बढ़ती बेरोजगारी) इस बयान में सरकार ने महंगाई से त्रस्त जनता को जोर का झाटका धीरे से मार दिया है। यह झाटका मुझो तो पेट्रोल-डीजल की कीमतों से भी बड़ा लगता है। कम-से-कम अब तक आस तो बंधी थी, क्योंकि सरकार महंगाई कम करने के लगातार आश्वासन दे रही थी।

पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी दोनों ने आश्वासन दिया था कि सरकार पूरी कोशिश कर रही है- जल्द परिणाम सामने आएंगे। (पत्रिका 6 फरवरी) अगले ही दिन मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने कहा- महंगाई का सबसे खराब दौर बीत चुका है और अब अच्छे दिन आने वाले हैं। (बुरा वक्त बीत गया, पत्रिका 7 फरवरी) इसके बाद भी सरकार महंगाई के मुद्दे पर जब-जब घिरी, उसने यही भरोसा दिलाया, महंगाई पर जल्द काबू पा लिया जाएगा। इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाए, तो यह आस थी कि बाकी चीजों में सरकार महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही जनता को राहत पहुंचाएंगी। लेकिन आस टूट गई।'

कोटा के दीपसिंह हाड़ा ने लिखा- 'खाद्य वस्तुओं के दाम तो घटे नहीं, पेट्रोल-डीजल के दाम और बढ़ा दिए। यह तो कोढ़ में खाज वाली बात हुई। पेट्रोल के दाम घटने की कोई उम्मीद नहीं है। वित्त मंत्री ने साफ कहा कि वाजपेयी सरकार ने पेट्रोल-डीजल की कीमतों में 33 बार बढ़ोतरी की थी। और अब तो केन्द्र सरकार को संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी की भी हरी झंडी मिल गई।' (पत्रिका 5 मार्च)

इंदौर से गृहिणी सुषमा जैन के अनुसार- 'पेट्रोल महंगा तो समझो सब कुछ महंगा। घर-गृहस्थी की रोजमर्रा की कीमतें पहले से आसमान छू रही थीं। अब तो भगवान ही मालिक है।'

अजमेर से पुरुषोत्तम दास ने लिखा- 'अभी राजस्थान में गहलोत सरकार से एक उम्मीद और बची है। सरकार राज्य में पेट्रोल-डीजल पर वैट कम करके जनता को कुछ हद तक राहत पहुंचा सकती है।'

प्रिय पाठकगण! महंगाई को लेकर पिछले दिनों से पाठकों की प्रतिक्रियां लगातार मिल रही हैं। उच्च वर्ग को छोड़कर महंगाई से हर कोई त्रस्त है। ऐसे में सरकार की ओर से जब भी कोई बयान प्रकाशित होता है, पाठक खुलकर अपनी बात कहते हैं। शायद यही कारण है कि महंगाई के कारणों और इसके उपायों पर उनका सरकार से भिन्न व स्पष्ट दृष्टिकोण है। महंगाई क्यों बढ़ रही है- इस पर आर्थिक विश्लेषक, राजनीतिक दल और सरकार के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन आमजन इसे किस नजरिए से देख रहा है, इसकी बानगी पाठकों की इन प्रतिक्रियाओं से जाहिर है।

जोधपुर से गोपाल अरोड़ा ने लिखा- हमारे देश में कीमतें भी राजनीतिक उद्देश्यों से घटती-बढ़ती हैं। केन्द्र सरकार ने चुनाव से पहले पेट्रोल के दाम दस रुपए तक घटा दिए थे। हरियाणा में राज्य सरकार ने चुनाव पूर्व पेट्रोल-डीजल पर वैट की दरें काफी कम कर दी थीं। कीमतें घटाने का काम हमेशा चुनाव से पहले ही क्यों होता है?'

भोपाल से इंद्रजीत सिंह ने लिखा- 'एक तरफ तो विकास दर के मामले में हम अमरीका, जापान जैसे विकसित देशों से आगे बताए जा रहे हैं। जल्दी ही चीन को भी पीछे छोडऩे की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ खाद्यान्नों की कीमतों पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं। नियंत्रण तो दूर की बात, उचित वितरण प्रणाली तक कायम नहीं कर पाए हैं। जबकि हमारे भण्डारों में 2 करोड़ टन लक्ष्य के मुकाबले इस समय 4।8 करोड़ टन खाद्यान्न पड़ा हुआ है। दुनिया के दूसरे सबसे बड़े चीनी उत्पादक देश (भारत) में चीनी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई है।'

बेंगलुरू से डा. दीपक परिहार ने लिखा- 'माना सरकार ने किसानों की भलाई के लिए चावल, गेहूं, गन्ना आदि के समर्थन मूल्यों में अच्छी-खासी बढ़ोतरी की, जिससे इनके दाम बढ़े। लेकिन इसका वास्तविक फायदा न तो किसानों को मिला और न आम उपभोक्ताओं को। फायदा तो बड़े व्यापारी और बिचौलिए उठा रहे हैं।'

श्रीगंगानगर से प्रतिभा खत्री ने लिखा- 'काला बाजारियों और जमाखोरों के कारण कीमतें आसमान छू रही हैं। ये बड़े-बड़े जमाखोर सभी पार्टियों को चंदा देते हैं। इसलिए कोई इन पर हाथ नहीं डालता। यहां के किसानों को तो किन्नू और कपास के भी उचित दाम नहीं मिलते।'

बीकानेर से अर्थशास्त्र के विद्यार्थी देवेन्द्र पुरोहित ने लिखा- 'जिंसों की कीमतें मांग और आपूर्ति से तय होती हैं। यह सही है कि जरू री जिंसों की आपूर्ति मांग से कम रही है। लेकिन कीमतों में जो उछाल आया वह स्वाभाविक आर्थिक सिद्धांतों से कहीं मेल नहीं खाता। वर्ष 2004 से तुलना करें, तो चावल में 130 प्रतिशत, चीनी में 197 प्रतिशत तथा अरहर दाल में 252 प्रतिशत कीमतों की बढ़ोतरी अविश्वसनीय ही मानी जाएगी।' प्रिय पाठकगण! अन्य कई पाठकों के पत्रों का सार है कि महंगाई पर नियंत्रण करना सरकार का प्राथमिक दायित्व है। विकास और कीमतों में तार्किक संतुलन हो, जो उत्पादकता बढ़ाकर हासिल किया जाना चाहिए न कि कीमतें बढ़ाकर।

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आसान निशाने!


पुणे विस्फोट पर बेंगलूरु के पाठक एस. जयरामन ने लिखा-
'फग्र्यूशन कॉलेज, पुणे की बी.ए. फस्र्ट इयर की छात्रा अनिन्दी धर ने उस दिन अपनी क्लास में पोएट्री टीचर से बड़ी मासूमियत से मृत्यु का वास्तविक अर्थ पूछा था, क्योंकि कविता में इसका जिक्र आया था। टीचर से जवाब मिला या नहीं, लेकिन अगले ही दिन खुद मौत ने उस मासूम को दबोच लिया। उन्नीस वर्षीय हंसती-मुस्कुराती यह छात्रा अपने भाई अंकिक (23), उसकी दोस्त शिल्पा (23), सहेलियां पी. सुंदरी और विनिता गडानी (22) के साथ रेस्त्रां में पार्टी मनाने आई थीं। वैलेन्टाइन डे की पूर्व संध्या थी, इसलिए रेस्त्रां में जश्न का माहौल था। तभी एक विस्फोट हुआ और ये चारों युवा हमेशा के लिए खामोश हो गए। जर्मन बेकरी रेस्त्रां की वह खुशनुमा शाम एक खौफनाक हादसे में तब्दील हो गई। हादसे में 12 लोग मारे गए, 57 घायल हुए। फिर वही सवाल, क्या ऐसे हादसे रोके नहीं जा सकते?


15 फरवरी के अंक में प्रकाशित केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के बयान पर एक पाठक देवेश अवस्थी (जयपुर) की आवेश और व्यंग्य मिश्रित प्रतिक्रिया मिली। पहले चिदम्बरम का बयान- 'पुणे विस्फोट खुफिया चूक का परिणाम नहीं था। बल्कि आतंककारियों ने आसान निशाने को लक्ष्य बनाकर वहां धोखे से बम रखा।' देवेश ने लिखा- 'जिस तरह रेत में गर्दन छिपाकर शुतुरमुर्ग सच्चाई की अनदेखी करता है, वैसे ही गृहमंत्री कर रहे हैं। क्या चिदम्बरम देशवासियों को यह संदेश दे रहे हैं कि आतंककारियों के षड्यंत्रों की जानकारी तो सरकार को पूरी है, लेकिन उन्हें रोकना और निर्दोष लोगों को बचाना सरकार के वश में नहीं है। 'आसान निशाने' का क्या मतलब? आतंककारी धोखे से नहीं तो क्या घोषणा करके बम रखेंगे? आतंकियों ने घोषणा करके ही विस्फोट किया था। पुणे विस्फोट से सिर्फ नौ दिन पहले 5 फरवरी को इस्लामाबाद में एक रैली के दौरान जमात-उद-दावा के डिप्टी चीफ अब्दुल रहमान मक्की ने खुला एलान किया था कि जमात के ताजा हमले पुणे, दिल्ली, कानपुर और इंदौर में होंगे। क्या कर लिया सरकार ने? खुफिया चेतावनियां... रेड अलर्ट... महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सिक्योरिटी... बस...! और आम आदमी का क्या। वह बेचारा तो हमेशा असुरक्षित ही रहेगा। आखिर 'आसान निशाना' जो है वह। सचमुच दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, जयपुर, हैदराबाद, बेंगलूरु आदि कितने ही भारतीय शहरों में हुए विस्फोट और आतंकी हमले खुफिया चूक के परिणाम थोड़े ही थे, आसान निशाना व आतंकियों के धोखे का परिणाम थे। वाह क्या खूब मुगालते में है हमारी सरकार!'

अहमदाबाद से शैलेन्द्र राजपुरोहित ने लिखा- 'मुंबई हमलों के बाद 14 माह तक आतंककारी खामोश रहे। लगा अब हमारे सुरक्षा-तंत्र ने उन्हें उनके बिलों में दुबके रहने को विवश कर दिया। वैसे ही जैसे 9/11 के बाद अमरीका ने किया। लेकिन पुणे विस्फोट ने इस भ्रम को तोड़ दिया है।'


भोपाल के अजय बैरागी के अनुसार- 'पुणे विस्फोट की गंभीरता को सरकार कम नहीं आंके। यह आतंककारियों का भारत के खिलाफ 'टेरर कैम्पेन' है। स्वयं चिदम्बरम ने राज्यसभा में स्वीकार किया था कि भारत पर हमला करने के लिए अलकायदा समेत कई आतंकी गुटों ने आपस में हाथ मिला लिए हैं। ऐसी ही चेतावनी अमरीकी रक्षा सचिव राबर्ट गेट्स ने पिछले दिनों हमारे रक्षा मंत्री ए।के। एंटनी को नई दिल्ली में दी थी। लिहाजा पुणे विस्फोट को आतंककारियों के मंसूबों की फिर से शुरुआत माना जाना चाहिए।' उपरोक्त प्रतिक्रियाओं के विपरीत कोटा से डी।.एस. रांका ने लिखा- 'आतंकी हमलों और विस्फोटों में केवल सरकार की नाकामी को कोसने से काम नहीं चलेगा। इजरायल की तरह आम भारतीयों को भी सुरक्षा और सतर्कता के नियम अपनाने होंगे।'

उदयपुर की सरोजबाला के अनुसार- 'अगर जर्मन बेकरी के बेयरे ने रेस्त्रां में पड़े लावारिस बैग को खोला नहीं होता तो 12 बेकसूर व्यक्तियों की जान नहीं जाती।'

जयपुर से रमेश शर्मा ने लिखा- मुंबई हमलों के बाद भारत सरकार ने स्पष्ट कहा था कि जब तक पाकिस्तान अपने आतंकी अड्डों को नष्ट नहीं करता भारत उससे बातचीत नहीं करेगा। अचानक क्या हो गया कि हम नई दिल्ली में 25 फरवरी को पाक से बातचीत करने जा रहे हैं। जबकि हमारे रक्षामंत्री ने अभी हाल ही (20 फरवरी अंक) बयान दिया है कि आज भी सीमापार 42 आतंककारी अड्डे कायम हैं और पाकिस्तान इन्हें नष्ट करने के प्रति गंभीर नहीं है।'

इंदौर से जितेन्द्र एस चौहान ने लिखा- 'पाक की दादागिरी तो देखिए, वह इस बातचीत में कोई भी मुद्दा उठाने की भारत को धमकी दे रहा है। उसने साफ कहा है कि वह कश्मीर का मुद्दा उठा सकता है। यहां तक कि बलूचिस्तान में कथित भारतीय हस्तक्षेप को भी उठाएगा। पाकिस्तान के नेता वार्ता के लिए भारत की रजामंदी को अपनी फतह के रू प में पेश कर रहे हैं।' कोलकाता से पीयूष खेतान ने लिखा- 'पच्चीस फरवरी को जब भारतीय विदेश सचिव निरू पमा राव पाकिस्तान के विदेश सचिव सलमान बशीर से बातचीत के लिए बैठे तो राव को सबसे पहले पाक को उसकी करतूतों के लिए हड़काना चाहिए। बातचीत के लिए माकूल माहौल तैयार करने की जिम्मेदारी अकेले भारत की नहीं है, पाक की भी है।'

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बच्चों पर दबाव

* जनता नगर निवासी दसवीं की छात्रा स्मिता सिंह ने घर में चुन्नी के फंदे से लटक कर जान दी। (11 जनवरी)
* न्यू कॉलोनी में एविएशन की छात्रा अर्चना राठौड़ ने फंदे पर झूलकर खुदकुशी की। (16 जनवरी)
* बालाजी विहार की सी.ए. की छात्रा प्रीति दास ने ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या की। (17 जनवरी)
* इंद्रा कॉलोनी में 9वीं की छात्रा गरिमा शर्मा ने फांसी लगाकर खुदकुशी की। (20 जनवरी)

'पत्रिका' में प्रकाशित इन खबरों का उल्लेख करते हुए जयपुर के पाठक पुनीत शर्मा ने लिखा- 'हम और कितनी मासूम आत्महत्याओं का इंतजार करेंगे? शहर में दस दिन में चार आत्महत्याएं! वह भी उन हाथों से जिन्होंने अभी जिन्दगी का बोझ उठाना शुरू भी नहीं किया था। जिन्दगी उनके लिए बोझिल कैसे बन गई? क्या ये घटनाएं हम सभी के लिए खतरे की गंभीर चेतावनी नहीं है? किशोर व युवा छात्र-छात्राओं में आत्महत्या की घटनाएं पूरे देश में तेजी से बढ़ रही है। आखिर विद्यार्थी-वर्ग आत्महत्या क्यों कर रहा है? कौन है इसके लिए जिम्मेदार? क्या युवाओं को असमय मौत को गले लगाने से रोका नहीं जा सकता? क्या उन्हें जिन्दगी का बेशकीमती मर्म समझाया नहीं जा सकता?'

प्रिय पाठकगण! पुनीत की तरह अन्य कई पाठकों ने भी इस ज्वलंत सामाजिक मुद्दे को उठाया है और इसके कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर सबका ध्यान आकर्षित किया है। पहले यह स्पष्ट कर दूं कि उपरोक्त जिन घटनाओं का पाठक ने उल्लेख किया है, उन सभी में आत्महत्या के अलग-अलग कारण हो सकते हैं। हर आत्महत्या दुखद और चिन्ताजनक है, लेकिन परीक्षा में विफलता, पढ़ाई का बोझ (एग्जाम स्ट्रेस) या अच्छे अंकों के लिए दबाव के चलते की जाने वाली आत्महत्या की घटनाएं जिस तेजी से बढ़ रही हैं, वे सचमुच खतरे की घण्टी है। अधिकतर पाठकों ने इसी पर चर्चा की है।

भावना परमार (उदयपुर) ने लिखा- 'अमरीका में 15 से 24 आयु वर्ग में होने वाली मौतों का दूसरा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है और अब भारत में इस आयु वर्ग में आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण परीक्षा में उच्च अंकों का दबाव बनता जा रहा है।'

अहमदाबाद से धर्मेश मेहता के अनुसार- 'मुंबई की तेरह वर्षीय किशोरी रू पाली शिन्दे ने इसलिए खुदकुशी की, क्योंकि उसकी मां हरदम उस पर अच्छे माक्र्स के लिए दबाव डालती थी। स्कूली छात्र सुशान्त पर भी ऐसा ही दबाव पिता ने डाला, जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सका और मौत को गले लगा लिया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं। सम्भवत: इन घटनाओं के चलते ही हाल ही केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल (2 फरवरी) ने बच्चों की आत्महत्या के लिए माता-पिता को जिम्मेदार ठहराया है।'

दीपक जैन (कोटा) ने लिखा- 'कपिल सिब्बल का सीबीएसई बोर्ड में दसवीं की परीक्षा वैकल्पिक करने का निर्णय सही है। न परीक्षा होगी न माता-पिता दबाव डालेंगे।'

भीलवाड़ा से आसकरण माली ने लिखा- 'माता-पिता कर्जा लेकर बच्चों की महंगी फीस चुकाते हैं। ऊपर से ट्यूशन-कोचिंग का खर्चा भी करते हैं। इसके बावजूद बच्चा पढ़ाई में ध्यान नहीं देता तो क्या उन्हें डांटने का भी हक नहीं।'

डा. रमेश त्रिपाठी (इंदौर) के अनुसार- 'माता-पिता अपनी आकांक्षाएं बच्चों पर थोपते हैं। वे अपने अधूरे सपने बच्चों के मार्फत पूरा करना चाहते हैं। परीक्षा के दौरान कई माता-पिता तो रातभर अपने बच्चे के साथ जागते हैं। बच्चे की क्षमता और सीमाओं का आकलन किए बगैर उस पर बोझ डालना उचित नहीं। वह डिप्रेशन का शिकार हो जाएगा। टेक्सास यूनिवर्सिटी का हाल का एक अध्ययन बताता है कि 75 फीसदी किशोर-किशोरियां डिप्रेशन में सुसाइड करते हैं।'

हरि पुरोहित (बीकानेर) के अनुसार- 'बच्चा क्या पढऩा चाहता है- यह जानना माता-पिता के लिए जरू री है वरना वह परीक्षा में पास होकर भी जिन्दगी में फेल हो जाएगा।'

अनवर हुसैन (जयपुर) ने लिखा- 'एक अध्ययन के अनुसार पिछले 60 साल में किशोर उम्र के विद्यार्थियों में आत्महत्या की दर में तीन गुना इजाफा हो गया। भले जिन्दगी को लेकर अलग-अलग फलसफे हों, मगर जिन्दगी जैसी खूबसूरत कोई और नियामत नहीं। लिहाजा बचपन से बच्चों को जिन्दगी की अहमियत समझाई जानी चाहिए।'

जोधपुर से सुशान्त भट्टाचार्य ने लिखा- 'आत्महत्याओं के खिलाफ माहौल बनाया जाए। मीडिया और स्वयंसेवी संगठन इसमें कारगर भूमिका निभा सकते हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 'सेव' (सुसाइड अवेयरनेस वाइसेज ऑफ एजुकेशन) जैसे संगठनों की मदद ली जा सकती है। अवसाद ग्रस्त बच्चों के मार्गदर्शन के लिए राष्ट्रीय हेल्पलाइन हो तथा स्कूलों में काउंसलिंग व्यवस्था अनिवार्यत: लागू हो।'

राखी तनेजा (बेंगलुरू ) ने लिखा- 'कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली की प्रसिद्ध मनोविश्लेषक डा। अरुणा ब्रूटा ने यह बताकर सबको चौंका दिया कि दसवीं बोर्ड की परीक्षा शुरू होने से पहले ही राजधानी के लगभग 300 बच्चे उनके पास लाए जा चुके थे, जिन्होंने परीक्षा के दबाव के चलते आत्महत्या का प्रयास किया।'

प्रिय पाठकगण! ये हालात चिन्तनीय हैं- माता-पिता, शिक्षक, स्कूल प्रबंधक, शिक्षाविदों व सरकार सबके लिए। जीवन अनमोल है- खासकर उन कलियों के लिए जिन्हें अभी फूल बनकर खिलना है और बगिया को महकाना है। ध्यान रखें, आत्महत्या करने वाला बच्चा कहीं हमसे यह कहना तो नहीं चाहता था- गिव मी सम सनशाइन! और हमने उसे अनसुना कर दिया!!

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मीडिया कठघरे में

प्रिय पाठकगण! दूसरों पर सवाल उठाने वाला मीडिया स्वयं कठघरे में है। पिछली बार 'खबरों के पैकेज' (11 जनवरी) के बहाने मीडिया के भ्रष्टाचार की चर्चा को आगे बढ़ाते हैं।


'हिन्दू' ने गत महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान राजनीति और मीडिया के संयुक्त भ्रष्टाचार को लेकर कई नवीन तथ्य उजागर किए। अखबार ने पी। साईनाथ की रिपोर्टों में खुलासा किया कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने अपने चुनाव अभियान के दौरान मीडिया के लिए करोड़ों रुपए के विज्ञापन जारी किए। इन विज्ञापनों को महाराष्ट्र के प्रमुख मराठी दैनिकों में समाचार की तरह प्रकाशित किया गया। यानी अखबारों ने पाठकों को और मुख्यमंत्री ने चुनाव आयोग को भ्रमित किया। 'हिन्दू' की रिपोर्ट के अनुसार मुख्यमंत्री ने अपने चुनाव खर्च का जो अधिकृत ब्यौरा जिला निर्वाचन अधिकारी को प्रस्तुत किया, उसमें उन्होंने अखबारों का 5,379 रुपए तथा टीवी चैनलों का मात्र 6000 रुपए का विज्ञापन खर्चा दर्शाया है। 'हिन्दू' की रिपोर्ट सवाल उठाती है कि मराठी अखबारों में अशोक चव्हाण के चुनाव अभियान के बारे में पूरे-पूरे पृष्ठों की जो सामग्री कई दिन तक प्रकाशित की गई, वह अगर न्यूज कवरेज थी, तो सभी अखबारों में एक जैसी क्यों थी। रिपोर्ट में कुछ प्रमुख मराठी दैनिकों में प्रकाशित ऐसे समाचारों के कई उदाहरण हैं, जिनके शीर्षक, इंट्रो यहां तक कि एक-एक पंक्ति शब्दश: मिलती-जुलती थी। जाहिर है, न विज्ञापन देने वाले के धन का हिसाब-किताब और न लेने वाले के धन का हिसाब-किताब किसी को पता चला।


लोकसभा चुनाव के उदाहरण तो और भी संगीन हैं। करीब नौ माह पहले हुए इन चुनावों में 'पेड न्यूज' का एक ऐसा वायरस आया, जिसने भारतीय मीडिया के एक बड़े हिस्से को जकड़ लिया। सचमुच मीडिया में घुसी इस बुराई से उसकी विश्वसनीयता को जबरदस्त आघात लगा। स्व. प्रभाष जोशी के अनुसार- 'उस दौरान चुनाव सम्बंधी कोई भी खबर, फोटो या कवरेज यहां तक कि विश्लेषण भी उम्मीदवार से पैसे लिए बगैर नहीं छपा।' सम्भवत: सबसे पहले इसका खुलासा 'वॉल स्ट्रीट जनरल' की बेवसाइट पर नई दिल्ली ब्यूरो चीफ पाल बेकेट के एक लेख में किया गया। शीर्षक था- 'प्रेस कवरेज चाहिए? मुझे कुछ पैसा दो।' पाल बेकेट ने चण्डीगढ़ के एक निर्दलीय उम्मीदवार का अखबारों में नाम तक नहीं छपने का कारण बताया- कवरेज चाहिए तो पैसा दो। उस उम्मीदवार ने पाल को बताया कि अखबारों की तरफ से कई दलाल उससे मिल चुके हैं- खबरें छपवानी है तो फीस तो चुकानी पड़ेगी। कवरेज के हिसाब से उन्हें पैकेज की दरें भी बताई गईं। पाल के लेख के अनुसार निर्दलीय उम्मीदवार ने केवल परखने के उद्देश्य से अपने चुनावी दौरे की झूठ-मूठ खबर बनाकर दी तो वह अखबारों में हू-ब-हू छप गई।

एक उदाहरण राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक के उत्तर प्रदेश के एक संस्करण का है। उसने अपना सम्पूर्ण प्रथम पृष्ठ एक उम्मीदवार के चुनाव अभियान के विज्ञापन का प्रकाशित किया। लेकिन सामग्री इस ढंग से प्रकाशित की कि वह खबरों का पृष्ठ लगे। बाकायदा लीड स्टोरी के साथ तीन कॉलम फोटो, सैकण्ड लीड, डबल कालम, तीन कालम की खबरें तथा नीचे स्टीमर (बॉटम न्यूज) आदि वैसे ही छपे थे जैसे अखबार का प्रथम पृष्ठ हो। ये सभी खबरें और फोटो एक ही उम्मीदवार से संबंधित थीं। कहीं पर भी विज्ञापन का उल्लेख नहीं था। इस पर पाठकों में हल्ला मचा तो अखबार ने अगले दिन स्पष्टीकरण प्रकाशित कर दिया कि कल प्रकाशित प्रथम पृष्ठ वास्तव में एक उम्मीदवार का चुनावी विज्ञापन था, इसका अखबार के संपादकीय विचारों से कोई तादात्म्य नहीं। सवाल है- इस स्पष्टीकरण की क्या उपयोगिता रही, खासकर तब, जब उसी दिन लोग मतदान कर रहे थे।

बात हिन्दी-अंग्रेजी के कई बड़े राष्ट्रीय दैनिकों तक सीमित नहीं थी। प्रांतीय भाषाओं के प्रमुख अखबार जिनका देश भर में विशाल पाठक-वर्ग है- भी इसी राह पर चल रहे थे। बल्कि कई तो सभी सीमाएं लांघ चुके थे।

भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य श्रीनिवास रेड्डी (द संडे एक्सप्रेस) के अनुसार- '2009 के आम चुनावों में आंध्र प्रदेश के अधिकांश स्थानीय अखबारों ने 300 करोड़ से भी ज्यादा धनराशि ऐसे तरीकों से बटोरी।'


पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि पूरे देश में चुनावों के दौरान केवल मीडिया पर ही कितना धन फूं का गया होगा! क्या यह राजनेताओं की अपनी कमाई थी? एक पाठक शिरीष चंद्रा (कोलकाता) के अनुसार- 'यह जनता का पैसा था, जो काले धन के रू प में मीडिया को इस्तेमाल करने के लिए उपयोग किया गया, लेकिन मीडिया तो खुद ही खबरों के पैकेज बनाकर तैयार खड़ा था।'

पाठकों को याद दिला दूं, साप्ताहिक अंग्रेजी पत्रिका 'आउटलुक' (21 दिसम्बर 09) ने कई नेताओं के बयान प्रकाशित किए, जिन्होंने अपने चुनाव कवरेज के लिए प्रिन्ट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पैसा दिया था या जिनसे पैसे की मांग की गई।

पाठक को सूचना और चुनावी विश्लेषण करके राजनीतिक हालात का जायजा देना मीडिया का प्राथमिक उत्तरदायित्व है। इसीलिए लोग मीडिया पर भरोसा करते हैं। 'पेड न्यूज' इस भरोसे को तोड़ती है। 'आउटलुक' के संपादक और जाने-माने पत्रकार विनोद मेहता कहते हैं- 'पेड न्यूज हमारी (मीडिया की) सामूहिक विश्वसनीयता पर एक गम्भीर खतरे के रूप में उभर रही है।'

प्रिय पाठकगण! मीडिया के एक जिम्मेदार वर्ग ने हाल में इसी खतरे को भांपकर इस मुद्दे पर सबका ध्यान खींचा है। इनमें 'पत्रिका' भी शामिल है। प्रसन्नता की बात यह है कि पाठकों की इस पर बहुत ही सकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं।

पाठक रीडर्स एडिटर को अपनी प्रतिक्रिया इन पतों पर भेज सकते हैं-

ई-मेल: anand.joshi@epatrika.com

एसएमएस: baat 56969

फैक्स: 0141-2702418

पत्र: रीडर्स एडिटर,

राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,

जयपुर

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खबरों के पैकेज !

मीडिया में 'पेड न्यूज' का मुद्दा चर्चा में है। चुनावों के दौरान पैसा लेकर खबरें छापने और प्रसारित करने पर हाल ही मीडिया- खासकर, प्रिन्ट मीडिया में गम्भीर चर्चा हुई है। मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पी. साईनाथ और स्व. प्रभाष जोशी जैसे प्रतिष्ठित पत्रकारों ने इस मुद्दे को उठाया और राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान केन्द्रित किया। जयपुर में झाबरमल्ल शर्मा स्मृति व्याख्यान के दौरान भी यह मुद्दा उठा। खास बात यह है कि मीडिया में आई इस बुराई को मीडिया ने उठाया। अब आमजन और पाठक भी इस मुद्दे पर मुखर होने लगे हैं।

जयपुर से विजय श्रीमाली ने लिखा, 'चुनाव में पैसे लेकर खबरें छापने का आरोप पत्रकारों और अखबारों पर पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन पिछले दिनों राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के समक्ष अनेक अखबारों और न्यूज चैनलों ने चुनाव कवरेज के लिए जिस तरह खबरों के पैकेज रखे- कुछ ने तो बाकायदा रेट कार्ड छपवाए- वह भारतीय मीडिया-जगत की अपूर्व घटना है। अपूर्व और शर्मनाक! सम्भवत: इसीलिए मीडिया के एक जिम्मेदार वर्ग में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। मुझे यह सुखद लगा कि पिछले दिनों इस मुद्दे को कुछ अखबारों ने जोर-शोर से उठाकर जनता को जागरू क करने की कोशिश की है। मीडिया के भ्रष्टाचार को अगर मीडिया का ही एक जागरू क तबका उजागर करने को कटिबद्ध है, तो मुझे पूरी उम्मीद है कि भ्रष्ट मीडिया को जनता सबक सिखाकर मानेगी।'

भोपाल से सुभाष रघुवंशी ने लिखा- 'विज्ञापन और खबर में रात-दिन का अंतर होता है। लेकिन कई अखबारों ने चुनाव अभियान के विज्ञापनों को खबरों की तरह प्रकाशित किया। ऐसी सामग्री में ्रष्ठङ्कञ्ज यानी 'विज्ञापन' लिखने की सामान्य परिपाटी है, जिसका उल्लंघन किया गया। इससे विज्ञापन और खबर का भेद मिट गया। पाठक भ्रमित हुए।'

उदयपुर से डॉ. एस.सी. मेहता के अनुसार- 'मीडिया की पहचान और अस्तित्व खबरों पर टिके हैं। खबरों में मिलावट करके तो वह अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मार रहा है।'

प्रिय पाठकगण! बात अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने तक सीमित नहीं है। यह लोकतंत्र के चौथे पाये की विश्वसनीयता का गम्भीर मुद्दा है। इसमें काला धन, भ्रष्टाचार और राजनीतिक गठजोड़ के अनैतिक और अवैधानिक पहलू जुड़े हैं। स्व। प्रभाष जोशी के अनुसार मीडिया का काम जनता की चौकीदारी करना है। लेकिन चौकीदार की अगर चोर से ही मिली-भगत हो, तो जनता का क्या होगा।

लिहाजा जनता को जागरूक करने की मीडिया के उस वर्ग की चिन्ता जायज है जो 'पेड न्यूज' या 'पैकेज जर्नलिज्म' को अनैतिक मानता है। ध्यान रहे, 'पेड न्यूज' और विज्ञापन में अन्तर स्पष्ट है। जाने-माने पत्रकार राजदीप सरदेसाई के अनुसार- 'अगर एक राजनेता या कारपोरेट घराना अखबार में संपादकीय जगह या टीवी पर एयर टाइम खरीदना चाहता है तो वह ऐसा कर सकता है। लेकिन उसे नियमानुसार इसकी घोषणा करनी होगी।' राजदीप आगे लिखते हैं- 'जब राजनीतिक/ व्यावसायिक ब्राण्ड गैर पारदर्शी ढंग से घुसा दिया जाता है, जब विज्ञापन फार्म या कंटेट में साफ फर्क के बगैर खबर के रू प में पाठक या दर्शक के सामने आता है, तब वह खबरों की शुचिता का उल्लंघन है।'

प्रिय पाठकगण! पी. साईनाथ ने पिछले दिनों 'हिन्दू' में प्रकाशित अपनी खोजपूर्ण रिपोर्टों में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों के दौरान कुछ प्रमुख मराठी दैनिकों में खबरों की इसी शुचिता के उल्लंघन को तथ्यों के साथ उजागर किया है। मराठी ही क्यों अन्य कई भाषाई अखबार हिन्दी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय दैनिक भी कठघरे में हैं। (पाठकों को बता दूं इसमें 'पत्रिका' शामिल नहीं है।) गत वर्ष लोकसभा और कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान खबरों की इस अनैतिक बिक्री पर हाल ही देश के प्रिन्ट मीडिया ने अनेक तथ्य प्रकाशित किए हैं। बड़े-बड़े राजनेताओं के हवाले से लिखा है कि कौन-कौन से अखबारों ने चुनाव प्रचार के बदले धन की मांग की। आंखें खोल देने वाली ये रिपोर्टें 'हिन्दू', 'इण्डियन एक्सप्रेस', 'आउट लुक' (अंग्रेजी साप्ताहिक) में प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी दैनिक 'जनसत्ता' में स्व. प्रभाष जोशी ने इस मुद्दे को सबसे पहले उठाया। निश्चय ही यह संपूर्ण भारतीय मीडिया-जगत का सर्वाधिक चिन्तनीय मुद्दा है, जिस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए।

अहमदाबाद के एक पाठक एच.सी. जैन ने लिखा- 'मीडिया की बदौलत रुचिका गिरहोत्रा का मामला राष्ट्रीय सुर्खियों में आया और हरियाणा के पूर्व पुलिस अफसर राठौड़ पर शिकंजा कसा। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, नीतिश कटारा जैसे प्रकरणों में प्रभावशाली-शक्तिशाली अभियुक्त तमाम दबावों के बावजूद बच नहीं सके। अनेक बड़े राजनेताओं के भ्रष्टाचार को मीडिया ने उजागर किया। मधु कोड़ा के भ्रष्टाचार का मामला सबसे पहले झारखण्ड के एक हिन्दी अखबार 'प्रभात खबर' ने उजागर किया। जाहिर है, मीडिया जनता की आवाज है। जनता उसे अपना दोस्त और संरक्षक मानती है। ऐसे में अगर मीडिया खुद भ्रष्टाचार में लिप्त होगा, तो वह अन्याय के खिलाफ कैसे लड़ेगा।'

जयपुर से विमल पारीक ने लिखा- 'भ्रष्टाचार में लिप्त होकर मीडिया अपनी ताकत और प्रभाव खो रहा है। झाबरमल्ल शर्मा स्मृति व्याख्यान के दौरान 'पत्रिका' समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने सही कहा- (पत्रिका 5 जनवरी) 'लोकतंत्र को बचाना है तो मीडिया का इलाज करना जरूरी है। मीडिया के कमजोर होने के कारण लोकतंत्र के अन्य तीन स्तम्भ शिथिल हो गए हैं।'

प्रिय पाठकगण! मीडिया की कमजोरी और शिथिलता की चर्चा अभी अधूरी है। पिछले दिनों प्रिन्ट मीडिया ने इस मुद्दे पर क्या तथ्य देश की जनता के सामने रखे। खबरों के पैकेज क्या हैं। इसमें राजनीतिक उम्मीदवार, दल, अखबार और टीवी चैनलों की क्या भूमिका रही। पाठक इन मुद्दों पर और क्या कहते हैं? इन पर चर्चा अगली बार।
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राजस्थान पत्रिकाझालाना संस्थानिक क्षेत्र,
जयपुर

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कुशवाहाजी यादें



बात सत्तर के दशक की है। वे रोजाना शाम को पत्रिका कार्यालय में आते और चुपचाप काम करने बैठ जाते थे। मुश्किल से उन्हें आधा घंटा भी नहीं लगता था। काम खत्म करके उसी तरह चुपचाप लौट जाते थे। इस आधे घंटे में वे कलम और कूंची की वह दुनिया रच जाते, जिसके प्रशंसक पत्रिका के लाखों पाठक थे। अपने विद्यार्थी जीवन से ही मैं राजस्थान की लोककथाओं पर आधारित उनकी चित्रकथाओं का नियमित पाठक था। इसलिए स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद अस्सी के दशक में मैंने जयपुर में पत्रिका ज्वॉइन की, तो केसरगढ़ में अनंत कुशवाहा जी को अपने इतने समीप काम करते हुए देखना मुझे बहुत आह्लादित करता था। मैं साप्ताहिक इतवारी पत्रिका में था। कुशवाहा जी पत्रिका के मैगजीन विभाग (उस वक्त रविवारीय परिशिष्ट) में आकर बैठते और अपना काम करके चले जाते थे। कई दिनों बाद पता चला कि ये अनंत कुशवाहा जी हैं।

इतनी खामोशी और सादगी से काम करने वाला शख्स मैंने पहले नहीं देखा था। उन्हें अपनी लोकप्रियता का कोई गुमान नहीं था। उन दिनों विजयदान देथा और रानी लक्ष्मी कुमारी चूंडावत की लोककथाओं पर आधारित उनकी चित्रकथाओं की शृंखला पत्रिका के जरिए घर-घर पहुंचती थी। पत्रिका के ऐसे पाठकों की संख्या लाखों में रही होगी, जो अखबार हाथ में आते ही पहले-पहल चित्रकथा पढ़ते थे।

कुशवाहा जी के हुनर को स्व। कुलिशजी ने पहचाना। कुशवाहा जी उन दिनों जयपुर में राजकीय सेवा में थे और उत्तर प्रदेश के कुछ अखबारों में छिटपुट सामग्री भेजते थे। कुलिशजी राजस्थान की लोककथाओं पर कुछ विशेष कार्य करना चाहते थे। इसका दायित्व उन्होंने कुशवाहा जी को सौंपा। यह अवसर बाद में न केवल कुशवाहा जी के लिए वरदान साबित हुआ, बल्कि राजस्थानी लोककथाओं को भी एक नया आयाम मिला। कुशवाहा जी ने चुन-चुन कर लोककथाओं का बेहतरीन चित्रांकन किया और उन्हें दैनिक अखबार का विषय बनाया। मुझे याद है बीकानेर के डूंगर कॉलेज के पुस्तकालय में सबसे पहले पत्रिका में चित्रकथा का पन्ना खोलने वाले मेरे कई विद्यार्थी मित्र थे। कुशवाहा जी एक बेहतरीन चित्रकार होने के साथ-साथ अच्छे शब्द शिल्पी भी थे। इसलिए भाषा और चित्रांकन की प्रस्तुति का तालमेल बेहतरीन रहता था। उनका लाइन-वर्क बहुत मजबूत था, इसलिए पाठक को चित्रकथा रोचक लगती थी। वह उससे बंध जाता था।

बाद में तो वे पत्रिका से औपचारिक रूप से जुड़ गए। सरकारी सेवा छोड़कर पूरी तरह साहित्य और चित्रांकन की दुनिया में रच-बस गए। उन्हें पत्रिका के नए प्रकाशन 'बालहंस' का संपादक नियुक्त किया गया। यह बच्चों की पाक्षिक पत्रिका थी। कुशवाहा जी ने न केवल इसका कुशलता से संपादन किया, बल्कि अनेक नवोदित बाल साहित्यकार, कवि, लेखक और चित्रकारों को अवसर दिया। जल्दी ही बालहंस पूरे उत्तर भारत की हिंदी की एक लोकप्रिय बाल पत्रिका बन गई। देश में बाल साहित्य पर आयोजित होने वाली गोष्ठियों/ सेमिनारों में बालहंस का जिक्र जरूर होता था। अनेक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक बालहंस से जुड़े। आज 'बालहंस' देश की प्रतिष्ठित बाल पत्रिका है, जिसमें कुशवाहा जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

'बालहंस' में उन्होंने कई मौलिक चित्रकथाएं रचीं। इन कथाओं ने न केवल बाल पाठकों का भरपूर मनोरंजन किया, बल्कि बड़े पाठक भी उन्हें खूब रुचिपूर्वक पढ़ते थे। उनके रचित पात्र शैलबाला, ठोलाराम, कवि आहत आज भी पाठकों को याद हैं। शैलबाला एक साहसी लड़की का पात्र था, जिस पर उन्हें पाठकों की भरपूर प्रतिकियाएं मिलीं। 'बालहंस' में ही उनकी एक अनूठी चित्रकथा - शृंखला प्रकाशित हुई - कंू कंू। कुशवाहा जी एक प्रयोगशील रचनाकार थे। नए विचार, नई तकनीक को वे शब्द और चित्रांकन दोनों विधाओं में आजमाते थे। कूं कंू इसका सर्वाेत्कृष्ट उदाहरण था। इस चित्रकथा में एक भी शब्द का इस्तेमाल किए बिना विषयवस्तु और घटनाक्रम को पूरी रोचकता के साथ प्रस्तुत किया जाता था। कई वर्षों बाद उनके इस प्रयोग का रविवारीय परिशिष्ट में सार्थक उपयोग किया गया। मैंने परिशिष्ट विभाग का जिम्मा संभाला, तो पत्रिका के संपादक गुलाब कोठारी जी ने मुझे रविवारीय में कुछ नया करने का निर्देश दिया। उन्हीं के सुझाव पर 'आखर कोना' कॉलम शुरू किया गया, जिसे कुशवाहा जी तैयार करते थे। यह स्तंभ नव साक्षरों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। कुशवाहा जी का एक और पात्र इतवारी लाल भी बहुत लोकप्रिय हुआ। यह एक व्यंग्य चित्र शृंखला थी, जो साप्ताहिक इतवारी पत्रिका में प्रकाशित होती थी। इतवारी लाल पात्र के जरिए कुशवाहा जी ने कई सामाजिक, राजनीतिक और सामयिक विषयों पर तीखे कटाक्ष किए। कुशवाहा जी चुटकी लेने मेें माहिर थे। बातों से नहीं, अपनी व्यंग्यकारी अभिव्यक्ति से। जब उन्हें इतवारी के तत्कालीन प्रभारी ने इस शृंखला पर विराम लगाने को कहा, तो उन्होंने अंतिम किश्त बनाई। इसमें इतवारी लाल पात्र को उन्होंने एक गड्ढे में उल्टे पांव किए डूबता हुआ दिखाकर जो कटाक्ष किया, वह मुझे आज भी याद है।

वे जितने अच्छे चित्रकार थे, उतने ही श्रेष्ठ लेखक भी थे। उन्होंने भरपूर बाल साहित्य रचा। बाल कथाओं के उनके दस संग्रह हैं। वे आज के दौर में रचे जा रहे बाल साहित्य से संतुष्ट नहीं थे। भावी पीढ़ी के लिए वे बहुत चिंतित थे। इसलिए वे कहते थे कि बच्चों के लिए मौलिक सृजन की बेहद जरूरत है, जो आज इंटरनेट के दौर में खत्म होता जा रहा है। बच्चों को सूचनाएं परोसी जा रही हैं। इससे उनका एकांगी विकास ही हो रहा है।

2002 में वे सेवानिवृत्त हुए तो बोले - दैनंदिन उत्तरदायित्वों से निवृत्त हो रहा हंू, लेकिन अपने सृजन कर्म से नहीं। पत्रिका ने भी उन्हें पूरा सम्मान और अवसर दिया। सेवानिवृत्ति के बाद उनके निधन के दिन (28 दिसंबर) तक उनकी चित्रकथा निरंतर प्रकाशित होती रही। पाठकों से शायद इसलिए उनका नाता कभी टूट नहीं पाएगा।

मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!

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