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सत्ता में भागीदारी

इंदौर की सामाजिक कार्यकर्ता सुमिता चित्रे ने लिखा- '12 सितम्बर 1996 भारतीय महिलाओं के लिए ऐतिहासिक दिवस के तौर पर दर्ज है, जब लोकसभा में पहली बार महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया। दूसरा ऐतिहासिक दिवस 9 मार्च 2010 है, जब 14 साल बाद यह विधेयक राज्यसभा में पारित किया गया। इस ऐतिहासिक क्रम में अभी तीन कडिय़ां और जुडऩी हैं। पहली, जब यह विधेयक लोकसभा में पारित होगा। दूसरी, जब यह विधेयक देश की 14 विधानसभाओं में मंजूर होगा। और तीसरी, जब यह विधेयक भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त कर लेगा। भारत की आधी आबादी इन कडिय़ों के जुडऩे की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही है, ताकि इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय लिखा जा सके।'

प्रिय पाठकगण! महिला आरक्षण विधेयक पर देश भर में बहस चल रही है। मीडिया में इस पर निरंतर हो रही चर्चा के मुख्य दो बिन्दु हैं।

1. महिला आरक्षण विधेयक मूल स्वरू प में पारित हो।

2. विधेयक में कुछ संशोधन होने चाहिए।

संशोधन के पक्षधरों में भी दो तरह के दृष्टिकोण हैं। पहला यह कि दलित, पिछड़ी और अल्पसंख्यक महिलाओं का अलग से कोटा निर्धारित हो। इनका तर्क है कि अन्यथा सत्ता में केवल उच्च वर्ग की महिलाएं ही काबिज हो जाएंगी। दूसरा दृष्टिकोण यह है कि आरक्षण सीटों की बजाय टिकटों का हो अर्थात प्रत्येक दल चुनावों में 33 फीसदी टिकट अनिवार्यत: महिलाओं को दें। इनका तर्क है कि सीटों पर आरक्षण लैंगिक समानता के खिलाफ है जो लोकतंत्र की मूल भावना को ठेस पहुंचाएगा। महिला आरक्षण के मूल स्वरू प में यह प्रावधान है कि यह रोटेशन से लोकसभा और विधानसभाओं की सीटों पर लागू होगा तथा सभी महिलाओं पर समान रू प से लागू होगा। इस मत के पक्षधरों का मानना है कि इससे देश में महिला सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त होगा जो आगे चलकर उनके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक उत्थान में कारगर होगा। अगर महिलाओं को बांट दिया गया अथवा टिकटों में आरक्षण दिया गया तो उन्हें कोई फायदा नहीं होगा।
अर्थात् सबके अपने-अपने तर्क हैं। इस पृष्ठभूमि में पाठकों की क्या राय है, यह जानना महत्वपूर्ण है। शायद उनकी राय मार्गदर्शनकर सके।

जयपुर से डा. पुनीतदास के अनुसार- 'लोकतंत्र का सार है कि अधिसंख्य लोगों की राय से ही कोई कार्य हो। हालात देखकर साफ है कि जिन दलों ने राज्यसभा में यह विधेयक पारित कराया, अभी उनमें भी एक राय नहीं है। यही वजह है कि लोकसभा में यह विधेयक अभी तक रखा ही नहीं गया। आखिर क्यों हम इस विधेयक के समस्त गुण-दोषों का आकलन करने से बचना चाहते हैं?'

जोधपुर से राजपाल सिंह ने लिखा- 'महिलाओं के आरक्षण पर डा. नलचिनपन की अध्यक्षता वाली संसद की स्थाई समिति ने इस विधेयक के अन्तरविरोधों के मद्देनजर इस बात पर गंभीरता से विचार किया था कि देश की उन सीटों की पहचान की जानी चाहिए जहां महिलाओं की आबादी का औसत ज्यादा है। ताकि उसीमें से 33 प्रतिशत सीटें दोहरी निर्वाचन प्रणाली के आधार पर छांट ली जाए। उनका आशय साफ था कि लोकसभा व विधानसभा के वर्तमान स्वरू प में परिवर्तन किए बिना महिलाओं को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। लेकिन यह फार्मूला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। अगर इसे विधेयक में रखा जाता तो आज इसका शायद ही कोई विरोध करता।'

भोपाल से दिलीप जायसवाल ने लिखा- 'महिला आरक्षण विधेयक के स्थान पर राजनीतिक दलों के लिए यह कानून बना दिया जाए कि वे 33 फीसदी टिकट महिलाओं को आवंटित करे।'

अजमेर से डा. माया गुप्ता ने लिखा- 'तैंतीस फीसदी टिकटों का सुझााव महज एक छलावा है। सभी राजनीतिक दल टिकट आवंटन के दौरान एक ही तर्क देते हैं- टिकट उसी को जो जीत सके। यानी महिलाओं को सिर्फ हारने वाली सीटें मिलेंगी।'

अहमदाबाद से परितोष अग्निहोत्री के अनुसार- 'कोई भी राजनीतिक दल महिलाओं के प्रति उदार नहीं है। वरना आजादी के 63 साल बाद भी 544 सदस्यों की लोकसभा में केवल 59 महिलाएं ही होतीं?'

बंगलुरु से दीप राजपुरोहित ने लिखा- 'स्वीडन की संसद में वहां की 47 फीसदी महिलाओं की नुमाइंदगी है। स्वीडन में राजनीतिक दलों ने अपने आप ही महिलाओं के लिए संसद का 40 प्रतिशत टिकट का कोटा तय कर रखा है।'

बीकानेर से श्यामसुन्दर व्यास ने लिखा- 'सत्ता में महिलाओं की भागीदारी देने के मामले में भारत पाकिस्तान से भी पीछे है। इसलिए सारे विरोध छोड़कर विधेयक का सबको समर्थन करना चाहिए।'

उदयपुर की अनुराधा श्रीमाली ने लिखा- 'देश की 12 लाख पंचायतों में महिलाएं पंच-सरपंच निर्वाचित हुई हैं। जब पंचायतों में पचास फीसदी आरक्षण का विरोध नहीं हुआ तो अब 33 फीसदी पर क्यों शोर मचाया जा रहा है।'

श्रीगंगानगर से सुमित लाल अरोड़ा ने लिखा- 'इस विधेयक का सबसे कमजोर पक्ष यह है कि चुनावी सीट लॉटरी सिस्टम से रोटेशन में चलेगी। अर्थात एक तिहाई सीटों पर कोई भी महिला या पुरुष अपने क्षेत्र में पहचान नहीं बना पाएगा।'

दिल्ली से राजीव खत्री ने लिखा- 'महिला आरक्षण बिल की खामियों को बाद में भी दूर किया जा सकता है। रास्ता हमेशा खुला है। पूर्व में भी अनेक कानूनों में संशोधन किए गए हैं। फिलहाल इसे संशोधन की आड़ में लटकाए रखना अनुचित होगा। आखिर महिलाओं ने इसके लिए एक लम्बी लड़ाई जो लड़ी है।'

प्रिय पाठकगण! सत्ता में महिलाओं को उचित भागीदारी मिलनी चाहिए। यह उनका अधिकार है। ज्यादातर पाठकों की भी यही राय है। इस विधेयक का उद्देश्य भी यही है। यह लक्ष्य कैसे शीघ्र हासिल किया जा सकता है- जोर उसी पर होना चाहिए।

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टूट गई आस

जयपुर के सेवानिवृत्त शिक्षक घनश्याम वाष्र्णेय ने लिखा-'पत्रिका के 6 मार्च के अंक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का महंगाई पर बयान पढ़कर घोर निराशा हुई। (महंगाई रोकते तो बढ़ती बेरोजगारी) इस बयान में सरकार ने महंगाई से त्रस्त जनता को जोर का झाटका धीरे से मार दिया है। यह झाटका मुझो तो पेट्रोल-डीजल की कीमतों से भी बड़ा लगता है। कम-से-कम अब तक आस तो बंधी थी, क्योंकि सरकार महंगाई कम करने के लगातार आश्वासन दे रही थी।

पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी दोनों ने आश्वासन दिया था कि सरकार पूरी कोशिश कर रही है- जल्द परिणाम सामने आएंगे। (पत्रिका 6 फरवरी) अगले ही दिन मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने कहा- महंगाई का सबसे खराब दौर बीत चुका है और अब अच्छे दिन आने वाले हैं। (बुरा वक्त बीत गया, पत्रिका 7 फरवरी) इसके बाद भी सरकार महंगाई के मुद्दे पर जब-जब घिरी, उसने यही भरोसा दिलाया, महंगाई पर जल्द काबू पा लिया जाएगा। इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाए, तो यह आस थी कि बाकी चीजों में सरकार महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही जनता को राहत पहुंचाएंगी। लेकिन आस टूट गई।'

कोटा के दीपसिंह हाड़ा ने लिखा- 'खाद्य वस्तुओं के दाम तो घटे नहीं, पेट्रोल-डीजल के दाम और बढ़ा दिए। यह तो कोढ़ में खाज वाली बात हुई। पेट्रोल के दाम घटने की कोई उम्मीद नहीं है। वित्त मंत्री ने साफ कहा कि वाजपेयी सरकार ने पेट्रोल-डीजल की कीमतों में 33 बार बढ़ोतरी की थी। और अब तो केन्द्र सरकार को संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी की भी हरी झंडी मिल गई।' (पत्रिका 5 मार्च)

इंदौर से गृहिणी सुषमा जैन के अनुसार- 'पेट्रोल महंगा तो समझो सब कुछ महंगा। घर-गृहस्थी की रोजमर्रा की कीमतें पहले से आसमान छू रही थीं। अब तो भगवान ही मालिक है।'

अजमेर से पुरुषोत्तम दास ने लिखा- 'अभी राजस्थान में गहलोत सरकार से एक उम्मीद और बची है। सरकार राज्य में पेट्रोल-डीजल पर वैट कम करके जनता को कुछ हद तक राहत पहुंचा सकती है।'

प्रिय पाठकगण! महंगाई को लेकर पिछले दिनों से पाठकों की प्रतिक्रियां लगातार मिल रही हैं। उच्च वर्ग को छोड़कर महंगाई से हर कोई त्रस्त है। ऐसे में सरकार की ओर से जब भी कोई बयान प्रकाशित होता है, पाठक खुलकर अपनी बात कहते हैं। शायद यही कारण है कि महंगाई के कारणों और इसके उपायों पर उनका सरकार से भिन्न व स्पष्ट दृष्टिकोण है। महंगाई क्यों बढ़ रही है- इस पर आर्थिक विश्लेषक, राजनीतिक दल और सरकार के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन आमजन इसे किस नजरिए से देख रहा है, इसकी बानगी पाठकों की इन प्रतिक्रियाओं से जाहिर है।

जोधपुर से गोपाल अरोड़ा ने लिखा- हमारे देश में कीमतें भी राजनीतिक उद्देश्यों से घटती-बढ़ती हैं। केन्द्र सरकार ने चुनाव से पहले पेट्रोल के दाम दस रुपए तक घटा दिए थे। हरियाणा में राज्य सरकार ने चुनाव पूर्व पेट्रोल-डीजल पर वैट की दरें काफी कम कर दी थीं। कीमतें घटाने का काम हमेशा चुनाव से पहले ही क्यों होता है?'

भोपाल से इंद्रजीत सिंह ने लिखा- 'एक तरफ तो विकास दर के मामले में हम अमरीका, जापान जैसे विकसित देशों से आगे बताए जा रहे हैं। जल्दी ही चीन को भी पीछे छोडऩे की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ खाद्यान्नों की कीमतों पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं। नियंत्रण तो दूर की बात, उचित वितरण प्रणाली तक कायम नहीं कर पाए हैं। जबकि हमारे भण्डारों में 2 करोड़ टन लक्ष्य के मुकाबले इस समय 4।8 करोड़ टन खाद्यान्न पड़ा हुआ है। दुनिया के दूसरे सबसे बड़े चीनी उत्पादक देश (भारत) में चीनी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गई है।'

बेंगलुरू से डा. दीपक परिहार ने लिखा- 'माना सरकार ने किसानों की भलाई के लिए चावल, गेहूं, गन्ना आदि के समर्थन मूल्यों में अच्छी-खासी बढ़ोतरी की, जिससे इनके दाम बढ़े। लेकिन इसका वास्तविक फायदा न तो किसानों को मिला और न आम उपभोक्ताओं को। फायदा तो बड़े व्यापारी और बिचौलिए उठा रहे हैं।'

श्रीगंगानगर से प्रतिभा खत्री ने लिखा- 'काला बाजारियों और जमाखोरों के कारण कीमतें आसमान छू रही हैं। ये बड़े-बड़े जमाखोर सभी पार्टियों को चंदा देते हैं। इसलिए कोई इन पर हाथ नहीं डालता। यहां के किसानों को तो किन्नू और कपास के भी उचित दाम नहीं मिलते।'

बीकानेर से अर्थशास्त्र के विद्यार्थी देवेन्द्र पुरोहित ने लिखा- 'जिंसों की कीमतें मांग और आपूर्ति से तय होती हैं। यह सही है कि जरू री जिंसों की आपूर्ति मांग से कम रही है। लेकिन कीमतों में जो उछाल आया वह स्वाभाविक आर्थिक सिद्धांतों से कहीं मेल नहीं खाता। वर्ष 2004 से तुलना करें, तो चावल में 130 प्रतिशत, चीनी में 197 प्रतिशत तथा अरहर दाल में 252 प्रतिशत कीमतों की बढ़ोतरी अविश्वसनीय ही मानी जाएगी।' प्रिय पाठकगण! अन्य कई पाठकों के पत्रों का सार है कि महंगाई पर नियंत्रण करना सरकार का प्राथमिक दायित्व है। विकास और कीमतों में तार्किक संतुलन हो, जो उत्पादकता बढ़ाकर हासिल किया जाना चाहिए न कि कीमतें बढ़ाकर।

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