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बर्बर माओवादी

'बर्बर नक्सली हमला' (पत्रिका 7 अप्रेल) समाचार पर पाठकों की विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में माओवादियों ने अब तक का सबसे बड़ा हमला बोलकर एक साथ 76 जवानों को मार डाला। इस हत्याकाण्ड ने पूरे तंत्र को झाकझाोर दिया। कुछ लोगों का मानना है कि नक्सली आंदोलन शोषण की उपज है। इस आंदोलन से सहानुभूति रखने वाले कुछ राजनीतिक दलों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार संगठनों के विचार व तर्कों से परे आम नागरिक भारत में माओवादियों की विचारधारा और आंदोलन को किस नजरिए से देखता है, यह जानना महत्वपूर्ण होगा।

जयपुर से हरिश्चन्द्र शुक्ला की प्रतिक्रिया है- 'दंतेवाड़ा और इससे पहले गढ़चिरौली, लालगढ़ आदि घटनाओं को सामान्य नक्सली आंदोलन समझाना भूल होगी। जैसा कि एक पूर्व सैन्य अधिकारी आर। विक्रम सिंह ने उत्तर प्रदेश के एक हिंदी दैनिक में लिखा- ये घटनाएं नक्सली आंदोलनकारियों की करतूत भर नहीं है। यह भारत पर मंडराता आंतकवाद और माओवाद की संयुक्त चुनौती का खतरा है। देश में दोनों ताकतें एक-दूसरे से कदम मिलाकर चल रही हैं। मजहबी आतंककारियों के आका पाकिस्तान में और माओवादियों के आका चीन में हैं। इन दोनों देशों की रणनीतिक घनिष्ठता का उद्देश्य भारत को खंडित कर इलाके बांटना है। सिंह का यह आकलन मुझो तो सही लगता है। देश में मुट्ठी भर समझो जाने वाले हार्डकोर माओवादियों से निपटने के लिए 37 हजार अद्र्ध सैनिक बल भी नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं तो जरू र इसके पीछे कुछ बड़ी ताकतें काम कर रही हैं।'

सूरत से राहुल एस. मेहता ने लिखा- 'नक्सलियों को विदेशी मदद मिल रही है। दंतेवाड़ा हत्याकाण्ड के बाद गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी स्वीकार किया कि नक्सलियों को सीमा पार से हथियार मिलते हैं। (पत्रिका 9 अप्रेल) नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश की खुली सीमाओं से नक्सली जो हथियार प्राप्त कर रहे हैं वे उन्हें कहां से मिल रहे हैं- यह जानने की जरू रत है।'

इंदौर से अरविन्द खरे ने लिखा- 'नक्सलियों ने साठ के दशक में अपना एक राजनीतिक दल भी गठित किया था। उसी समय चीन के साथ समस्याओं की शुरुआत हुई थी। चीन आज भी जिस तरह इंच-इंच करके भारत की भूमि हड़प रहा है, उसे देखते हुए साफ है कि वह भारत का हितैषी नहीं है।'

कोलकाता से डा. प्रदीप शर्मा ने लिखा- 'यह सही है कि नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत गरीबों पर अत्याचार और शोषण की प्रतिक्रिया स्वरू प हुई। लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक देश में सशस्त्र विद्रोह का कोई अर्थ नहीं। माओवादियों को पंजाब के उग्रवादियों की हार से सबक सीखना चाहिए।'जबलपुर से जयकान्त दीक्षित ने लिखा- 'माओवादी अपने उद्देश्य से पूरी तरह भटक गए। चारू मजूमदार और कानू सान्याल की विचारधारा चकाचौंध में खो गई। नक्सली अब सत्ता के ख्वाब देख रहे हैं। वे दिल्ली की कुर्सी पर काबिज होना चाहते हैं। भोले-भाले आदिवासियों को वे लाल क्रांति का सपना दिखाकर लुभा रहे हैं। बेरोजगार युवकों को बाकायदा वेतन देकर भर्ती कर रहे हैं। लोकतंत्र में सत्ता प्राप्त करने का हक सभी को है- लेकिन बुलैट से नहीं बैलेट से।'

कोटा से दयानन्द वैष्णव ने लिखा- माओवादी-नक्सली बहुत खूंखार तरीके अपना रहे हैं। सी।आर.पी.एफ. के 120 हथियारबंद जवान तीन एंटीलैंड माइन वाहनों में बैठकर दंतेवाड़ा के जंगलों में गए थे। लेकिन नक्सलियों ने उन्हें जिस तरह घेरकर गोलियों से भूना और धमाके किए, उससे स्पष्ट है कि उनके पास अत्याधुनिक हथियारों की कोई कमी नहीं है। पहले नक्सलियों के पास पुलिस से लूटी हुई रायफलें ही हुआ करती थीं। वे गुरिल्ला पद्धति से छिपकर वार करते थे। लेकिन दंतेवाड़ा की घटना कुछ और ही संकेत कर रही है। माओवादियों को इतनी ताकत कहां से मिल रही है।'श्रीगंगानगर से संतोष सिंह ने लिखा- 'वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल पी.वी. नाइक ने कहा कि सशस्त्र सेनाएं घातक अभियानों के लिए प्रशिक्षित हैं, कम घातक अभियानों के लिए नहीं। (पत्रिका 8 अप्रेल) नाइक के इस वक्तव्य के बारे में मुझो यही कहना है कि नक्सली हैवानियत की हदें पार कर चुके हैं। इनके खिलाफ घातक अभियान ही चलाया जाना चाहिए। नासूर अब खत्म होना जरू री है।'

कुछ पाठकों ने उन परिस्थितियों की चर्चा भी की जिसके चलते नक्सलवाद पनपा। अजमेर से डी.डी. गर्ग के अनुसार- 'बंदूक का जवाब बंदूक से देकर कोई समस्या हल नहीं हो सकती। इस समस्या का राजनीतिक समाधान होना चाहिए। इस बारे में भाकपा (माले) के दीपंकर भट्टाचार्य ने सही कहा। (पत्रिका 10 अप्रेल) जोधपुर से दीपेन्द्र डागा ने लिखा- 'सुरक्षाबल आदिवासियों पर अत्याचार करते हैं। अतिउत्साहित अधिकारियों ने दंतेवाड़ा की घटना से कुछ दिन पहले ही जनजातियों को उनके जंगल में स्थित घरों से खदेड़ दिया था। इसका सबूत स्वयं केन्द्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लई का बयान है। (पत्रिका 14 अप्रेल)

उदयपुर से नीलिमा खत्री ने लिखा- 'आदिवासियों पर जुल्म पुरानी बातें हैं। छत्तीसगढ़ देश का पहला राज्य है, जहां गरीबों के लिए दो रुपए किलो चावल सरकार ने उपलब्ध कराया और आदिवासियों के लिए 'सलवा जुड़ूम' जैसा पुनर्विकास का अभियान चलाया। उसी छत्तीसगढ़ में देश का सबसे बर्बर माओवादी हमला हुआ।'

प्रिय पाठकगण! हिंसक विचारधारा चाहे वह मजहबी आतंकवाद से जुड़ी हो अथवा राजनीतिक माओवाद से- लोकतंत्र में उसका कोई स्थान नहीं है। हिंसक विचारधाराएं बार-बार नकारी जा चुकी हैं, क्योंकि ये लोकतंत्र ही नहीं मानवता की भी दुश्मन हैं।

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सहजीवन पर बहस

सहजीवन (लिव-इन-रिलेशनशिप) पर सुप्रीम कोर्ट की राय और राधा-कृष्ण के उल्लेख से देश में बहस छिड़ी हुई है। पाठकों की लगातार प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। इस बारे में पत्रिका का सर्वे (27 मार्च) भी मत-विमत की आधार भूमि बना है।

कोटा से डॉ. वैभव गुप्ता ने लिखा- 'सर्वे में हालांकि 82 फीसदी लोगों ने शादी किए बगैर महिला-पुरुष का साथ रहना अनुचित माना है। लेकिन शेष 18 फीसदी लोगों का सहजीवन को उचित ठहराना सोचने को मजबूर करता है कि हमारा भावी सामाजिक ढांचा कैसा बनने जा रहा है। जिस देश में विवाह को एक संस्कार समझा जाता हो, विवाह-पूर्व शारीरिक सम्बन्ध अपवित्र माने जाते हों, वहां 18 फीसदी लोगों की ऑन रिकार्ड स्वीकृति हमें एक ऐसी सच्चाई से रू बरू कराती है जिससे हम आंख मूंदे रखना चाहते हैं। जरा हमारी मौजूदा जीवन-शैली तो देखें। साफ है सहजीवन आज नहीं तो कल सामाजिक सच्चाई बनकर रहेगी।'

जयपुर से श्याम शरण बियानी ने लिखा- 'लिव-इन-रिलेशनशिप पर पत्रिका के सर्वे से प्रमाणित है कि विवाह एक मजबूत और सार्थक संस्था है, जिसे कोई तार-तार नहीं कर सकता। मैं बुजुर्गों और महिलाओं की बात नहीं करता। विवाह से पूर्व शारीरिक सम्बन्धों को 76 प्रतिशत युवाओं ने भी नकार दिया। हम युवाओं पर अक्सर भटक जाने का आरोप लगाते हैं। मेरी समझा में आज के युवा अत्यन्त समझादार और जिम्मेदार हैं। उनके नाम पर भविष्य के समाज की ऊल-जलूल कल्पनाएं करना निरर्थक हैं।'

अहमदाबाद से हरीश पारिख ने लिखा- 'आधुनिक लिव-इन-रिलेशनशिप की पौराणिक राधा-कृष्ण से तुलना करने पर मुझा जैसे कई धार्मिक व्यक्तियों को ठेस पहुंची है। गुलाब कोठारी ने 'बहस तो करें' (26 मार्च) में सही लिखा कि राधा-कृष्ण के स्वरू प को समझाने के लिए एक जन्म काफी नहीं है। एक दार्शनिक और आध्यात्मिक सम्बन्ध की वर्तमान के भोग-पिपासु और वासनामय रिश्तों से तुलना करना अनुचित है। 'भोपाल से मोहनदास आसुदानी ने लिखा- 'हमारे धार्मिक ग्रंथों में राधा का कहीं उल्लेख नहीं है। राधा की कल्पना लौकिक अवतरण है। श्रीकृष्ण से सम्बन्धित प्रमुख ग्रंथ 'महाभारत' और 'श्रीमद् भागवत महापुराण' में कहीं राधा का उल्लेख नहीं है। हरिवंश और विष्णु पुराण में भी राधा का नाम तक नहीं है। सातवी-आठवीं शताब्दी के बाद रचे गए ग्रंथों में जाकर राधा का उल्लेख आता है। राधा और कृष्ण स्त्री और पुरुष के परस्पर प्राकृतिक प्रेम, सहज आकर्षण और आवश्यकता के प्रतीक हैं।'
उदयपुर से भूपेन्द्र सिंह ने लिखा- 'जिस तेजी से प्रेम-विवाह विफल हो रहे हैं तथा जिस तादाद में तलाक के मामले बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए लिव-इन-रिलेशनशिप में क्या खामी है? पति-पत्नी में अंडरस्टैंडिंग न हो तो कैसा विवाह? नीरस रिश्तों को ढोने से कोई फायदा नहीं। लिव-इन-रिलेशनशिप का ट्रेंड दो जनों के बीच अंडरस्टैंडिंग मजबूत करने का माध्यम है।'
इंदौर से डॉ. डी.सी. भारद्वाज ने लिखा- 'विवाह से पूर्व एक दूसरे को समझा लेना बहुत जरू री है। 40 फीसदी विवाह सिर्फ इसलिए टूटते हैं कि पति-पत्नी के बीच भावनात्मक सहयोग की कमी है। शायद इसीलिए पश्चिम के लेखक व दार्शनिक बर्टेन्ड रसेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'मैरिज एण्ड मोरेल्स' में 'ट्रायल मैरिज' का विचार प्रस्तुत किया था। आज का लिव-इन-रिलेशनशिप इसी विचार का क्रियारूप है। 'इंदौर से ही दिनेश अहिरवार के अनुसार- 'पश्चिम की जीवन और विचार शैली से प्रभावित होकर हम कई बेसिर-पैर के निर्णय कर रहे हैं जो हमारी सेहत (संस्कृति) के लिए ठीक नहीं है। जापान, चीन जैसे देश इसीलिए तरक्की कर सके क्योंकि इन देशों ने अपने मूलभूत विचार और जीवन पर कभी दूसरे देशों को हावी नहीं होने दिया।'
बीकानेर से दुर्गेश्वरी पारीक ने लिखा- 'स्त्री-पुरुष के बीच रिश्तों को चाहे जिस ढंग से निभाएं पलड़ा स्त्री का ही हमेशा कमजोर रहता है। न्यायालय ने सहजीवन को स्वीकृति देकर कम-से-कम कानूनी तौर पर तो स्त्री के अधिकार को सुरक्षित कर दिया है।'

भरतपुर से नम्रता राजवंशी ने लिखा- सबसे ज्यादा भुगतना बच्चों को पड़ेगा। ऐसे युगलों से उत्पन्न संतान के समक्ष सामाजिक मान्यता का संकट सदैव उपस्थित रहेगा- भले ही कानूनी स्थिति कुछ भी हो।'

बेंगलूरु से दुष्यन्त मेहता ने लिखा- 'जरूरत है आज के युवाओं की स्थिति को सहानुभूतिपूर्वक समझाने की। कॅरियर, प्रतिस्पद्र्धा, तनाव और महानगर की भागमभाग जिंदगी में उन्हें कहां फुरसत है- शादी के बारे में सोचने की। शादी के बगैर साथ रहकर युवा जोड़े एक दूसरे को सुकून और संबल देते हैं। प्लीज, उनका सुकून मत छीनिए।'

जबलपुर से देवेश श्रीवास्तव के अनुसार- 'लिव-इन-रिलेशनशिप महज वासनापूर्ति का नाम है। फिर तो समलैंगिकता और पार्टनर के अलावा भी दूसरे व्यक्ति से सैक्स संबंधों को मान्य करना होगा।'

जोधपुर से प्रो. शारदा माथुर ने लिखा- 'विवाह एक संस्कार ही नहीं, सामाजिक उत्तरदायित्व भी है। समाज में रहते हुए आप उससे मुंह नहीं फेर सकते। आपकी जो हैसियत या शख्सियत है उसमें समाज का भी योगदान है। विवाह पुरखों का कर्ज उतारना है तो पुरखों का धर्म निबाहना भी है। इसलिए जब तक विवाह संस्था का कोई बेहतर विकल्प नहीं मिले- इसे बचाना जरूरी है। सहजीवन बेहतर तो क्या, विवाह का अभी काम-चलाऊ विकल्प भी नहीं बन पाया है।'

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