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जनता का धन


  •  यह मामला सिर्फ कर चोरी का नहीं है,  देश को लूट कर ले जाया गया है।
  •  देश को लूटने वाले लोगों के नाम बताए सरकार।
  • यह अपराध दिमाग को चकरा देने वाला है।

              ये टिप्पणियां सुप्रीम कोर्ट की हैं, जिसने विदेशी बैंकों में काले धन को लेकर जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान हाल ही (पत्रिका:20 जनवरी) में की हैं। क्या काले धन के मामले में सरकार को शर्मसार करने के लिए इससे भी सख्त टिप्पणी का इंतजार है?
         यह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कोटा के रजनीकांत उपाध्याय ने आगे लिखा- 'लेकिन अफसोस! सरकार शर्मसार होने के बजाय अब भी बेतुकी दलीलें दिए जा रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने साफ कह दिया कि इन लोगों (देश को लूटने वालों) के नाम सार्वजनिक नहीं किए जा सकते, क्योंकि विदेशों से यही करार किया गया है। वाह! क्या अंदाज है, हमारी सरकार का। सुप्रीम कोर्ट जिन्हें देश को लूटने का अपराधी मानता है- सरकार उनके नाम न केवल गोपनीय रखना चाहती है, बल्कि कर चोरी की कोई छोटी-मोटी पैनल्टी लगाकर उन्हें गोपनीय ढंग से ही बरी कर देना चाहती है। सवाल है कि कोर्ट की सख्त टिप्पणी के बावजूद सरकार इस 'दिमाग चकरा देने वाले अपराध' पर परदा क्यों डालना चाहती है? क्या, विदेशी करार की पुनर्समीक्षा नहीं हो सकती? या करार को महज आड़ की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है? सरकार अगर इन प्रश्नों का देश की जनता को जवाब नहीं देती तो यही माना जाएगा कि सरकार खुद देश को लूटने की जिम्मेदार है।'
        भोपाल से अनिरुद्ध सिंह चौहान ने लिखा- 'विकिलीक्स को स्विस बैंक खातों की जो दो सीडी हाथ लगी हैं, उसमें सैकड़ों गुप्त खातों के ब्योरे हैं। जैसा कि विकिलीक्स ने दावा किया है, वो जल्दी भंडाफोड़ करेगा। तब भारत सरकार क्या करेगी? जिन खातों का पूरा विवरण पूरी दुनिया जान चुकी होगी, क्या हमारी सरकार उन पर परदा डालने की नाकाम कोशिश करेगी? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि विकिलीक्स नाम जाहिर करे उससे पहले सरकार खुद ही नाम सार्वजनिक करके ऐतिहासिक पहल करने का श्रेय हासिल करे?'
       प्रिय पाठकगण! विदेशों, खासकर स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन को लेकर बहुत सारे तथ्य उजागर हो चुके हैं। अरबों-खरबों रुपए की यह राशि भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह राशि कैसे वापस भारत में लाई जाए इसे लेकर अनेक पाठकों की तार्किक प्रतिक्रिया प्राप्त हुई हैं। कई पाठकों की राय में खाताधारकों के नाम नहीं राशि महत्वपूर्ण हैं, तो अनेक पाठकों की राय में नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। अगर काले धन के मालिकों के नाम सामने नहीं आएंगे तो काला धन भी देश को हासिल नहीं होगा, जिसकी असली मालिक भारत की जनता है।
      जयपुर से रमेशचंद्र जैमन ने लिखा- 'केन्द्र सरकार सरासर जनता को यह कहकर भ्रमित कर रही है कि विदेशी सरकारों से समझौते के तहत खाताधारकों के नाम सार्वजनिक नहीं किए जा सकते। जबकि स्विट्जरलैण्ड सरकार ने काफी पहले पेशकश की थी अगर भारत सरकार प्रस्ताव करे तो वह खाताधारियों की सूची सौंप सकती है।'
      बेंगलूरु से के.एम. मैथ्यू ने लिखा- 'भारत सरकार अमरीका की तरह पहल करे तो काला धन वापस लाया जा सकता है। अमरीका ने बाकायदा स्विस बैंकों में खाताधारी भ्रष्ट अमरीकियों की सूची सौंपी और कहा कि इन अमरीकियों ने कर चोरी की तथा विभिन्न कानूनों का उल्लंघन करते हुए अमरीकी धन स्विस बैंकों में स्थानान्तरित किया है। इस पर स्विस सरकार ने अपने बैंकों को धन वापसी के निर्देश दिए थे। मगर भारत ने महज एक खत लिखकर खानापूर्ति की जिसका स्विस बैंक पर कोई असर नहीं हुआ।'
      जोधपुर से दिनेश प्रजापति  के अनुसार- 'भारतीय अमीरों का विदेशी बैंकों में 700 खरब रुपए का काला धन जमा है। यह धनराशि अगर वापस लाई जाए तो देश के हर नागरिक की तकदीर चमक सकती है। इसलिए हमें फिजूल की बहस में पडऩे की जरूरत नहीं है। बहस खाताधारियों के नाम जानने की नहीं होनी चाहिए। बहस इस बात पर होनी चाहिए कि यह सारी धनराशि सरकारी खजाने में कैसे लाई जाए।'
      इंदौर के सत्यप्रकाश ने लिखा- 'चारों तरफ से पड़ रहे दबावों के चलते कई अमीर खाताधारी यह चाहेंगे कि अगर वे बिना किसी झंझट के बरी हो जाएं तो वे अपना काला धन सरकार को समर्पित करने को तैयार हो जाएंगे।'
      अलवर के अरविन्द यादव  ने लिखा- 'ये भ्रष्ट लोग आसानी से नहीं मानेंगे। ये लोग इतने शक्तिशाली हैं कि सरकार की इन पर हाथ डालने की कभी हिम्मत ही नहीं पड़ेगी। पिछले 25 सालों से काले धन की सिर्फ चर्चा ही चल रही है। कभी सरकार ने इन्हें नहीं घेरा? भले ही किसी भी पार्टी का शासन रहा हो।'
      जयपुर से डॉ. रविन्द्र जैन  ने लिखा- 'मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चलने वाली यूपीए सरकार विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वालों के खिलाफ आखिर कैसे कार्रवाई कर सकती है, जबकि एस. गुरुमूर्ति           (पत्रिका: 9 जनवरी) के अनुसार यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी का खाता भी स्विस बैंकों में है, और उन्होंने इस सम्बंध में विदेशी और भारतीय मीडिया में प्रकाशित किसी भी रिपोर्ट का आज तक खण्डन नहीं किया है। यूपीए अध्यक्ष पर ही जब अंगुली उठी हुई हो तो यूपीए सरकार से कोई उम्मीद कैसे की जा सकती है।'
      उदयपुर के अजय मेहता ने लिखा- 'ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की भ्रष्ट देशों की सूची में और ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी की काले धन के राष्ट्रों की सूची में भारत का नाम ऊपर से शुरू होता है। यह हम देशवासियों को दुनिया भर में शर्मिन्दा करने के लिए काफी है। भारतीय अमीरों को, जिनका काला धन विदेशों में है, राष्ट्र को सौंपकर मिसाल पेश करनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद अब कोई गुंजाइश नहीं बची है। आम जनता भी यही चाहती है।

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      लालचौक में तिरंगा


      जयपुर से डॉ. विवेक रॉय ने लिखा- 'तिरंगे पर गरमाई राजनीति (पत्रिका: 6 जनवरी ) समाचार पढ़ा तो मन में कई सवाल कौंध गए-
      • क्या भारत के अलावा दुनिया में कोई ऐसा राष्ट्र है जहां देश के भीतर राष्ट्र-ध्वज फहराना अपराध माना जाता हो? वह भी प्रमुख राष्ट्रीय दिवस 26 जनवरी के अवसर पर?
      •  क्या श्रीनगर का लालचौक इस देश का हिस्सा नहीं है, जहां तिरंगा फहराना जुर्म है?
      - क्या अब तिरंगे को भी विभिन्न दलों के झंडों की तरह संकीर्ण राजनीति से जोड़कर देखा जाएगा?

         अगर इन सवालों का जवाब 'ना' है तो क्या सभी राजनीतिक दलों को मिलकर कश्मीरी अलगाववादियों को मुंहतोड़ जवाब नहीं देना चाहिए जिन्होंने श्रीनगर में तिरंगा फहराने पर हिंसा फैलाने की धमकी दी है?'

       प्रिय पाठकगण!  पिछले कुछ वर्षों से भारतीय जनता पार्टी की ओर से 26 जनवरी को श्रीनगर के लालचौक में तिरंगा फहराया जाता रहा है। इस बार भी गणतंत्र दिवस पर दल की युवा शाखा ने लालचौक में राष्ट्र-ध्वज फहराने की घोषणा की है। इस घोषणा का कश्मीरी अलगाववादियों ने तो विरोध किया ही है, बल्कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी नाराजगी जाहिर की है। कुछ लोगों का मानना है कि भाजपा की तिरंगा फहराने की कार्रवाई उग्रवादियों को भड़काएगी। कश्मीर में मुश्किल से शांति लौटी है, इसलिए भाजपा को लालचौक से दूर ही रहना चाहिए। दूसरी तरफ कइयों का मानना है कि भाजपा की यह कार्रवाई उचित है और राष्ट्रवाद से प्रेरित है। एक तीसरा मत यह भी है कि भाजपा ही क्यों- कश्मीर के सभी राजनीतिक दलों को मिलकर 26 जनवरी को पूरे कश्मीर में जगह-जगह तिरंगा फहराना चाहिए। इससे कश्मीर की आम जनता का हौसला बुलन्द होगा और अलगाववादियों को भी मुंहतोड़ जवाब मिल जाएगा।
      आइए देखें पाठक क्या कहते हैं।
      भोपाल से भानुप्रताप सिंह ने लिखा- 'जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दल चाहे नेशनल कांफ्रेंस हो या पीडीपी, यहां तक कांग्रेस भी भाजपा के तिरंगा फहराने की कार्रवाई को राजनीतिक हथकंडा बताती है, लेकिन जेकेएलएफ जैसे उग्रवादी संगठन की धमकी पर सभी दल चुप्पी साधे रहते हैं। यह दोहरा चरित्र नहीं चलेगा। जेकेएलएफ के प्रमुख मोहम्मद यासीन मलिक ने खुलेआम चेतावनी दी है कि लालचौक में भाजपा तिरंगा फहराकर दिखाए। नहीं तो हम बताएंगे कि झंडा कैसे फहराया जाता है। ये लोग खुलेआम तिरंगे का अपमान करें। 15 अगस्त को काला झंडा फहराएं और एक दिन पहले 14 अगस्त को पाकिस्तान का झंडा फहराकर भारत विरोधी नारे लगाएं तो सारी पार्टियां मुंह बंद कर  लेती हैं। लेकिन अगर एक राजनीतिक दल भारतीय संविधान के तहत प्राप्त अधिकार से राष्ट्र-ध्वज फहराना चाहे तो यह राजनीतिक हथकंडा है!'
      अजमेर से रजनीकान्त शर्मा ने लिखा- 'यासीन मलिक को ऐसा बयान देने पर तत्काल गिरफ्तार कर लेना चाहिए और आपराधिक मुकदमा दायर करना चाहिए। इसके उलट मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो तिरंगा फहराने वालों को ही चेतावनियां दे रहे हैं। '
      कोटा से कौशल गुप्ता ने लिखा- 'तिरंगा फहराने से कश्मीर में आग सुलग सकती है- यह मेरी समझ से परे है। उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर में सरकार के मुखिया हैं। यह उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वे राष्ट्र-ध्वज फहराने वालों की हौंसला अफजाई करें और आगे बढ़कर मदद करें।'
      इंदौर से सत्येन्द्र तोमर ने लिखा- 'अगर कश्मीर में तिरंगा फहराने से ही अशांति पैदा होती है तो राष्ट्रहित में भाजपा अपना यह कार्यक्रम छोड़ सकती है। लेकिन कोई इस बात की गारंटी देता है कि कश्मीर में शांति बनी रहेगी? कश्मीर में किसी राजनीतिक दल में यह ताकत नहीं कि वह ऐसी गारंटी दे सके। 1989 में कश्मीर में आतंकवाद और हिंसा चरम पर थी, तब तो भाजपा ने लालचौक में तिरंगा फहराने की शुरुआत भी नहीं की थी।'
      पाली से अंशुल परिहार ने लिखा- 'आखिर भाजपा को ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि वह शांति के मौजूदा माहौल में चिंगारी भड़काने का काम करे। अगर यह राष्ट्रीय एकता का संदेश देना चाहती है तो उसे सभी दलों को साथ लेकर तिरंगा फहराना चाहिए। उसे अन्य दलों को विश्वास में लेकर ही लालचौक में तिरंगा फहराना चाहिए।'
      जोधपुर से भानुकुमार पारीक ने लिखा- 'अगर कश्मीर का वर्तमान माहौल किसी एक राजनीतिक दल के ध्वज फहराने से बिगड़ता है तो यह कार्रवाई रोकनी चाहिए।'
      अजमेर से सत्यप्रकाश आर्य ने लिखा- 'लालचौक में तिरंगा फहराना एक सांकेतिक कार्रवाई है, जिसका राष्ट्रीय महत्व है। लालचौक आतंककारियों की कार्रवाइयों का हमेशा से केंद्र रहा है। आतंकी यहां पाकिस्तान का झंडा फहरा चुके हैं, भारतीय ध्वज जला चुके हैं और अनेक हिंसक कार्रवाइयों को अंजाम दे चुके हैं। गत वर्ष जनवरी में पाक आतंकियों ने लालचौक पर 22 घंटे तक कब्जा जमाए रखा। अब भी वे चुनौती दे रहे हैं कि तिरंगा फहराकर तो देखो। यह समूचे भारतीय गणतंत्र का अपमान है। क्या इसका जवाब कायरतापूर्ण चुप्पी साधकर दिया जाए? अलगाववादियों की धमकी न केवल राजनीतिक दलों के लिए बल्कि हर भारतीय के लिए चुनौती है जो अपने देश से प्रेम करता है।'
      जबलपुर से श्याम महर्षि 'राही' ने लिखा- 'यह कैसा लोकतंत्र है जहां राष्ट्र-ध्वज संहिता की धज्जियां उड़ाने वालों की अनदेखी की जाती है और राष्ट्र-ध्वज फहराने वालों को चेतावनी दी जाती है।'
      उज्जैन से भानु पारीक ने लिखा- 'तिरंगे की शान के लिए हिन्दू हो या मुसलमान, भगतसिंह हो या अशफाक उल्ला खां- सबने कुर्बानियां दी है। तिरंगे की खातिर हमने फिरंगियों से लोहा लिया तो क्या अलगाववादियों से नहीं ले सकते?'

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      पेट्रोल के दाम

          राजस्थान विश्वविद्यालय के शोधार्थी आलोक शर्मा ने लिखा- 'कई बार सोचता हूं, हमारा देश आखिर इतने बड़े-बड़े घोटालों को कैसे झोल लेता है? किसी दूसरे देश में इतने घोटाले और भ्रष्टाचार होते तो उसकी अर्थव्यवस्था लुट गई होती। लेकिन जब हमारी लागत और मूल्य-प्रणाली पर गौर करता हूं तो बात समझ में आ जाती है। बीसियों तरह के करों और शुल्कों के नाम पर सरकार के पास ऐसी जादुई छड़ी है, जिसे वह विकास के नाम पर जनता के ऊपर फटकारती है, और भ्रष्टाचार के घाटे को पूरा करती है। विश्वास न हो तो राष्ट्रीय जीवन की धुरी बन चुके पेट्रोल की कीमतों को ही देख लीजिए। ताजा मूल्य वृद्धि के बाद जो पेट्रोल जनता को आज 60 रुपए लीटर मिल रहा है, उसकी लागत सिर्फ 27 रुपए है। बाकी राशि करों और शुल्कों के नाम पर जनता की जेब से निकाली जा रही है। यानी लागत से दुगनी! यह 'जनता के लिए जनता की सरकार' तो कतई नहीं, जो अपने भ्रष्ट कारनामों का बोझ भी जनता के कंधों पर डाल रही है।'
      जयपुर के डॉ. के.सी. गुप्ता के अनुसार- 'गोविन्द चतुर्वेदी (पत्रिका: 16 दिसम्बर, स्पॉट लाइट) का आकलन बिल्कुल सही है कि केन्द्र व राज्य सरकारें अपने घाटे और विभिन्न घोटालों का पूरा भार पेट्रोल की कीमतों के जरिए आम आदमी पर ही डालती है। अगर यह सच नहीं होता तो सरकार पिछले छह साल में 30 बार पेट्रोल के दाम नहीं बढ़ाती। वह भी झूठा प्रचार करके। तेल कंपनियों के घाटे का प्रचार करके। जबकि तीनों प्रमुख तेल कंपनियों की गत वर्ष की ही बैलेंसशीट देखिए- आई ओसी ने तो 10220.55 करोड़ रुपए का शुद्ध मुनाफा कमाया। दूसरी ओर बीपीसीएल ने1632.36 करोड़ तथा एचपीसीएल ने 1301.37 करोड़ रुपए का शुद्ध मुनाफा कमाया।'
      प्रिय पाठकगण! पेट्रोल की कीमतें आम लोगों को किस कदर प्रभावित करती हैं, यह पाठकों की प्रतिक्रियाओं से आप जान सकते हैं। इसी पखवाड़े पेट्रोल की कीमत 3.15 रुपए प्रति लीटर बढ़ाने पर आम आदमी खासा नाराज है। भारत में पेट्रोल का उत्पादन मांग से 80 प्रतिशत कम है और इसकी आपूर्ति अन्तरराष्ट्रीय बाजार से करनी पड़ती है, जिसकी बढ़ती कीमतों का असर भारत पर भी पड़ता है। इस सारी जानकारी के बावजूद आम जनता पेट्रोल के मौजूदा दामों से नाराज है तो आखिर क्यों? लोगों का मानना है कि सरकार की दोषपूर्ण पेट्रोलियम नीति और असंगत कर ढांचे के कारण पेट्रोल महंगा होता जा रहा है न कि अन्तरराष्ट्रीय बाजार के कारण। पाठकों ने तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर अपने तर्क रखे हैं।
      इंदौर से देशबंधु गुप्ता ने लिखा- 'छह माह पहले केन्द्र सरकार ने पेट्रोल की कीमत पर से नियंत्रण हटा लिया। उसके बाद तो पेट्रोलियम कंपनियों ने जनता को लूटना ही शुरू कर दिया। सिर्फ छह माह में ही पेट्रोल के दाम 20 फीसदी बढ़ा दिए गए। इतनी बढ़ोतरी किसी भी देश में नहीं हुई।'
      कोटा से रामस्वरूप राही ने लिखा- यूरोप के एक-दो विकसित देशों को छोड़ दें तो भारत अकेला ऐसा देश है, जहां पेट्रोल पर 50 प्रतिशत तक कर और शुल्क वसूले जाते हैं। जबकि अमरीका जैसा विकसित देश भी अपने नागरिकों से पेट्रोलियम पदार्थों पर 19 प्रतिशत से ज्यादा टैक्स नहीं लेता। हम तो पड़ोसी देशों से भी गए गुजरे हैं। पाकिस्तान में पेट्रोल पर 29 प्रतिशत, श्रीलंका में 39 प्रतिशत और नेपाल में 32 प्रतिशत कर ही पेट्रो पदार्थों पर लगाए जा रहे हैं।'
      भोपाल से रविन्द्र सिंह भदौरिया ने लिखा- 'लगता है सरकार सारा राजस्व पेट्रोल से ही वसूलने पर तुली हुई है। वित्त वर्ष 2009-10 में पेट्रो पदार्थों से अकेले केन्द्र सरकार ने 90 हजार करोड़ रुपए की राजस्व वसूली की। इस साल यह आंकड़ा सवा लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की उम्मीद है। इसमें राज्य सरकारों द्वारा वसूले गए शुल्कों को भी जोड़ दें तो यह आंकड़ा कहां जाकर पहुंचेगा- कल्पना की जा सकती है। माना पेट्रो-राजस्व हमारी अर्थव्यवस्था की धुरी है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि लोगों पर अंधाधुंध भार लाद दिया जाए।'
      जोधपुर से कल्पना सोलंकी ने लिखा- 'पेट्रोल के दाम पूरे महंगाई-चक्र को प्रभावित करते हैं, इसलिए इसके दामों में बढ़ोतरी बहुत सोच- समझ कर ही की जानी चाहिए। सुना है अब सरकार डीजल और रसोई गैस के दाम भी बढ़ाने पर सोच रही है। अगर ऐसा हुआ तो आम आदमी का जीना दुश्वार हो जाएगा।'
      अजमेर से हरिश्चन्द्र अजवानी ने लिखा- 'सरकार की नीति 'जबरा मारे, रोने भी न दे' जैसी है। एक तरफ तो देश में वाहनों की रिकार्ड बिक्री हो रही है, वाहन निर्माता बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां आ रही हैं। सस्ते वाहन ऋण उदारता से बांटे जा रहे हैं। पेट्रोल-डीजल जैसे सीमित प्राकृतिक संसाधनों के संयमपूर्ण उपभोग को प्रोत्साहित करने की कोई योजना भी कहीं नजर नहीं आ रही है। ऐसे में पेट्रोल के दामों में बढ़ोतरी आम आदमी के लिए 'कोढ़ में खाज' साबित हो रही है।''
      भरतपुर से छात्र गौरव शर्मा ने लिखा- 'कुछ नहीं तो राजस्थान सरकार प्रदेश के नागरिकों को पेट्रोल पर वैट घटाकर राहत दे ही सकती है। अभी राज्य में सर्वाधिक वैट है जो पंजाब, हरियाणा जैसे पड़ोसी राज्यों से अधिक है।'
      बीकानेर से सूरज परमार ने लिखा- 'सरकारों को पेट्रोल पर कर और शुल्क लगाते समय केवल अपनी आमदनी पर ही नजर नहीं रखनी चाहिए। जनहित सर्वोपरि है। सरकारों के पास कर वसूली के अनेक स्रोत हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि पेट्रोल पर एक तय सीमा में ही शुल्क व कर लगाए जाएं, जैसा कि अमरीका में है। यह आज की जरूरत है।'

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      राडिया के टेप

         इंदौर के युवा छात्र राजेश एस. निगम ने लिखा- 'जिस व्यक्ति (ए. राजा) ने संचार मंत्री के रूप में सरेआम राष्ट्र को लूट लिया, क्या उसकी समस्त कारगुजारियों को जानने का हक राष्ट्र को नहीं है?
      क्या हमें यह जानने का हक नहीं है कि खराब रिकार्ड व प्रधानमंत्री की नापसंदगी के बावजूद वह व्यक्ति दुबारा संचार मंत्रालय हासिल करने में कैसे सफल हुआ? किन लोगों ने परदे के पीछे रहकर उसकी मदद की? किसलिए की? मददगारों को मंत्री ने किस तरह फायदा पहुंचाया? और, सबसे बढ़कर यह सवाल कि आजाद भारत के अब तक के सबसे बड़े घोटाले की संरचना के घटक-सूत्र क्या हैं- यह जानना क्या हर देशवासी का हक नहीं? अगर हां, तो नीरा राडिया के समस्त टेप राष्ट्र के सामने आने चाहिए।'
      उदयपुर से डॉ. अभिमन्यु ने लिखा- 'नितान्त निजी बातचीत को छोड़कर मीडिया को वे सारे 5800 टेप उजागर करने चाहिए जिनका सम्बन्ध भ्रष्टाचार से जुड़े किसी भी मुद्दे से हो।'
      बेंगलूरु से उपेन्द्र माहेश्वरी ने लिखा- 'यह बिलकुल सही वक्त है, जब देश को खोखला कर देने वाले भ्रष्टाचार के दानव का सिर बेरहमी से कुचल दिया जाए।'
         प्रिय पाठकगण! नीरा राडिया के 'आउटलुक' और 'ओपन' पत्रिकाओं में प्रकाशित कुछ फोन टेपों ने न केवल 2 जी स्पैक्ट्रम घोटाले बल्कि भ्रष्टाचार के कई अन्य पहलुओं को भी उजागर किया है। पाठकों की राय में ये टेप सार्वजनिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और अगर हम सचमुच भ्रष्टाचार का खात्मा चाहते हैं तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाना चाहिए।
      अजमेर से पंकज जैमन ने लिखा- '2 जी का काला सच (पत्रिका: 8 दिसम्बर) पढ़ा तो आंखें फटी रह गईं। किस तरह कुछ कम्पनियों को देश की सम्पदा लुटा दी गई- वरिष्ठ पत्रकार एस. गुरुमूर्ति के इस लेख से स्पष्ट है। यूनिटेक को 1658 करोड़ में लाइसेंस दिया गया जिसकी कीमत थी- 9100 करोड़ रुपए। स्वान को 1537 करोड़ रुपए में मिला जबकि कीमत थी-7192 करोड़ रुपए। एसटेल को 25 करोड़ में लाइसेंस मिला जबकि कीमत थी 4251 करोड़ रुपए! बिना निविदा के कम्पनियों को जो सरकारी बंदरबांट की गई, उससे देश को कैग के अनुसार 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपए चपत लगी। संचार मंत्री को जब इस तरह देश को लुटाने का अधिकार मिला हो तो साफ समझ में आता है कि ए. राजा को मंत्रालय दिलाने में कुछ कम्पनियों ने क्यों एड़ी चोटी का जोर लगाया।'
        उज्जैन से देवज्ञ भट्ट ने लिखा- 'अगर राडिया के टेप सामने नहीं आते तो पता ही नहीं चलता कि कॉरपोरेट घरानों, राजनेताओं, पत्रकारों और बिचौलियों की मिलीभगत से ए. राजा को संचार मंत्री का पद मिला। यह टेपों से ही पता चला कि कॉरपोरेट कम्पनियों की लॉबिंग करने वाली नीरा राडिया ने 24मई, 2009 यानी एक दिन पहले ही राजा को फोन करके दूरसंचार मंत्री बनाने की सूचना दे दी थी।'
      अहमदाबाद से दीपक भाटी ने लिखा- 'राडिया के टेपों में कुछ पत्रकारों की बातचीत भी सामने आई है। बातचीत से साफ है कि नीरा राडिया के खेल में पत्रकार भी शामिल थे। यह सम्पूर्ण मीडिया-जगत के लिए चिंतन का विषय होना चाहिए। फिलहाल तो पत्रकार भी भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों, नौकरशाहों और बिचौलियों की तरह कठघरे में खड़े हैं।'
      जबलपुर से डॉ. रंजीत ने लिखा- 'पेड न्यूज के बाद यह दूसरा अवसर है जब मीडिया की साख को बट्टा लगा है। जिस तरह इन दिनों न्यायपालिका (संदर्भ: सुप्रीम कोर्ट की इलाहाबाद हाईकोर्ट पर टिप्पणी) अपने भीतर के भ्रष्टाचार को लेकर मुखर है, उसी तरह मीडिया संगठनों को भी अपने भीतर सफाई अभियान छेड़ देना चाहिए।'
      जोधपुर से जमनादास पुरोहित ने लिखा- 'देश में व्याप्त भ्रष्टाचार सिर चकराने वाला है। यह मेरी नहीं सुप्रीम कोर्ट (पत्रिका: 1 दिसम्बर) की टिप्पणी है। शीर्ष अदालत का दर्द समझ में आता है क्योंकि जब भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाला देश का मुख्य सतर्कता आयुक्त ही बेदाग न हो तो किससे उम्मीद करें।'
      भीलवाड़ा से जे.के. बंसल ने लिखा- 'इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ (पत्रिका: 4 दिसम्बर) ने उचित चेतावनी दी कि भ्रष्टाचार के कारण देश की एकता पर खतरा पैदा हो गया है और यह भी कहा कि अगर सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम नहीं उठाए तो जनता कानून अपने हाथ में ले लेगी। मेरी राय में इन चेतावनियों पर गौर करने का यह उचित समय है।'
      भोपाल से चिन्मय गर्ग ने लिखा- 'भ्रष्टाचार के खात्मे का सबसे अचूक उपाय यह है कि हमारा शासन तंत्र और सार्वजनिक व्यवस्था पूरी तरह पारदर्शी हो। जब कुछ छुपाने के लिए होगा ही नहीं, तब भ्रष्टाचार भी नहीं होगा।'
      कोटा से बहादुर सिंह ने लिखा- 'ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट (पत्रिका: 10 दिसम्बर) हमें हर साल शर्मशार करती है लेकिन हम हैं कि सुधरते ही नहीं।'
      बीकानेर से पी.सी. सुथार ने लिखा- 'हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं। देश में पहली बार एक शक्तिशाली पूर्व मुख्य सचिव नीरा यादव ने जेल की हवा खाई है। भ्रष्टाचार के खिलाफ न्यायपालिका की मौजूदा सक्रियता पर 'देर है अंधेर नहीं' (पत्रिका: 11 दिसम्बर) विशेष सम्पादकीय टिप्पणी में सटीक लिखा कि न्यायपालिका यदि इसी प्रकार दुर्गा बनकर मैदान में उतर जाती है तो विधायिका और कार्यपालिका को हर हाल में घुटने टेकने पड़ेंगे। मैं इसमें खबरपालिका (मीडिया) को भी जोड़ना चाहूंगा जो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है और जो भ्रष्टाचार के खात्मे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।'

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      दाग ही दाग

        जयपुर से जयकुमार मंगल ने लिखा- 'दामन में दाग ही दाग' (पत्रिका, 26 नवम्बर) समाचार पढ़ा तो एक दिन पहले की सारी खुशियां काफूर हो गईं। समाचार था- नवनिर्वाचित बिहार विधानसभा में कुल 243 विधायकों में 141 विधायक दागी छवि के चुने गए।
      दस साल पहले मुझे रोजगार की तलाश में बिहार छोड़ना पड़ा था। बिहार की खराब छवि के चलते एक आम बिहारवासी को अन्य प्रांतों में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। नीतीश कुमार के शासन में बिहार की छवि बदली। इसलिए उनके फिर शासन में आने से अन्य प्रांतों में रहने वाले बिहारी भी बहुत खुश हैं। लेकिन उक्त समाचार से वे जरूर निराश हुए होंगे। कम-से-कम मुझे तो निराशा हुई। जिस 'दागी' छवि ने बिहार को गर्त में धकेल रखा है- उससे उबरने में अभी पता नहीं कितना समय लगेगा। नि:संदेह नीतीश कुमार पर अभी तक ऐसा कोई 'दाग' नहीं है। तभी तो बिहारवासियों ने उन्हें भारी मतों से जिताया है। उन पर भी भारी उत्तरदायित्व है कि वह 'दागियों' से अपने को दूर रखें। अच्छा तो यही होता कि वे दागियों को टिकट ही नहीं देते।'
         प्रिय पाठकगण! बिहार में विधानसभा चुनावों पर पूरे देश की नजर टिकी थी। विश्लेषक इन चुनावों को कई मायनों में भिन्न बता रहे थे। चुनाव परिणाम के बाद अलग-अलग विश्लेषण भी सामने आए। पाठकों का विश्लेषण क्या है, यह भी जान लीजिए।
      उदयपुर से प्रताप सिखवाल ने लिखा- 'बिहार में जद (यू)-भाजपा गठबंधन सरकार ने इस बार दो नए रिकार्ड कायम किए हैं। एक तो यह कि किसी गठबंधन सरकार को इतना भारी बहुमत पहले कभी नहीं मिला। दूसरा यह कि इतनी तादाद में 'दागी' उम्मीदवार पहले कभी नहीं जीते। यह बिहार विधानसभा का नया रिकार्ड है, जिसमें 141 'दागी' माननीय विधायकों में 85 माननीय वे हैं जिन पर हत्या और हत्या का प्रयास जैसे संगीन जुर्म के मामले चल रहे हैं। गुलाब कोठारी जी (काले हीरे, 27 नवम्बर) ने सही लिखा- 'बिल्ली को दूध की रखवाली का ठेका!' जिस विधानसभा में बहुमत दागी सदस्यों का हो, वह जनता का भला कर पाएगी- यह नीतीश कुमार के लिए सबसे बड़ी चुनौती का सबब होगा।'
      कोटा से अश्विनी श्रीवास्तव ने लिखा- 'राजनीतिक दलों में स्वच्छ छवि का उम्मीदवार चिराग लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा, यह बात तो समझ में आती है। लेकिन गुंडा तत्वों को राजनीतिक दलों का टिकट कैसे मिल जाता है? यह सोचने की बात है। दिखने में ये सब उम्मीदवार चुनाव जीतकर आए हैं, इसलिए लोकतांत्रिक हैं। परन्तु हकीकत यह है कि जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है। मैं 'काले हीरे' में व्यक्त किए गए इस विचार से पूर्णत: सहमत हूं कि चुनाव आयुक्त को ही आपराधिक छवि के लोगों पर चुनाव लड़ने से रोक लगा देनी चाहिए। राजनीति में सफाई अभियान तभी शुरू होगा। इस सम्बन्ध में मुझे राजनीतिक दलों से कोई उम्मीद नजर नहीं आती।'
      भोपाल से विवेक तोमर ने लिखा- 'राजनीतिक दलों की हालत चुनाव परिणाम के बाद प्रकाशित हुए तथ्यों से स्पष्ट है जिनमें जद (यू), भाजपा, राजद, लोजपा, कांग्रेस आदि सभी दल शामिल हैं। जो दल जितनी ज्यादा सीटें जीता उसके उतने ज्यादा प्रत्याशियों पर ही संगीन केस दर्ज हैं। जद (यू) के विजयी 115 विधायकों में आधे से ज्यादा (58) दागी और इनमें भी 43 वे हैं जिन पर हत्या और हत्या के प्रयास के मामले दर्ज हैं। एक सदस्य तो ऐसा है, जिस पर अकेले हत्या के दस और हत्या के प्रयास के आठ मामले समेत कुल 17 केस दर्ज हैं। आश्चर्य होता है, जब 'पार्टी विद् डिफरेंस' का नारा देने वाली भाजपा के विजयी 91 उम्मीदवारों में से 58 दागी सदस्य चुनकर आ गए। लालू की राजद और पासवान की लोजपा की बात छोड़ दें तो विजयी 4 कांग्रेसियों में से 3 दागी हैं।'
      उज्जैन से चन्द्रकान्त पाण्डे ने लिखा- 'बिहार में नीतीश कुमार का अब तक का शासन आश्चर्यजनक उपलब्धियों से भरा है। बिहार का मतलब कुछ साल पहले तक भ्रष्टाचार, अपराध, गरीबी और बेरोजगारी था, जिसे नीतीश के सुशासन ने एक नई पहचान दी। यह नीतीश के शासन में ही हुआ, जब चुनाव के दौरान कोई बूथ कैप्चरिंग नहीं हुई। कोई हत्या नहीं हुई। प्रदेश का विकास करने वाली राज्य सरकारों का पार्टी मतभेदों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन होना चाहिए। चाहे वह नीतीश की सरकार हो या नरेन्द्र मोदी की या फिर नवीन पटनायक की। इन सभी मुख्यमंत्रियों ने अच्छा कार्य करके दिखाया है।'
      अहमदाबाद से सुषमा बिरवानी ने लिखा- 'लोग अब नतीजे देने वाली सरकारों को वोट देने लगे हैं- यह शुभ लोकतांत्रिक संकेत हैं। राष्ट्रव्यापी दुष्प्रचार के बावजूद नरेन्द्र मोदी को गुजरात की जनता ने भारी मतों से जिताया था। भाजपा के सहयोग के बगैर नवीन पटनायक उड़ीसा में बहुत अच्छी तरह से शासन कर रहे हैं। साफ है, जो काम करेगा, जनता उसी को चुनेगी।'
      जोधपुर से दीपेश प्रजापति ने लिखा- 'सुशासन देने वालों को जनता पसंद करती है, इसका मतलब यह नहीं है कि आपराधिक और भ्रष्ट छवि के लोगों को भी जनता पसंद करती है।'
      कोटा से कौशल गुप्ता ने लिखा- 'बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने अच्छा काम किया तो जनता ने उन्हें पुरस्कार भी दे दिया। लेकिन बिहार की राजनीति को अगर नीतीश साफ-सुथरा नहीं बना सके तो यह उनकी विफलता होगी। वे दागियों से दूरी रखें। उन्हें बिहार की सूरत के साथ-साथ बिहार की राजनीति की सीरत भी
      चमकानी होगी।'

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      सुरक्षा से खिलवाड़

         बेंगलूरु से अरुणा और आनंद विज ने लिखा-'भारत के संवेदनशील रक्षा प्रतिष्ठानों में शुमार मुंबई स्थित कोलाबा डिफेंस स्टेशन एरिया में आदर्श हाउसिंग सोसायटी की 100 मीटर ऊंची इमारत भ्रष्टाचार की सबसे कलंकित नजीर बन चुकी है। सबसे कलंकित इसलिए कि इसमें भ्रष्टाचारियों ने न देश की सुरक्षा का ख्याल रखा और न ही देश की रक्षा के लिए मर मिटे शहीदों (करगिल) की विधवाओं का, जिनके नाम पर इस इमारत की नींव रखी गई थी। 26/11 का हमला याद करके कांप जाते हैं। उस दिन हम मुंबई में ही थे। पाकिस्तानी आतंककारियों ने जो कुछ किया वह देश के सीने में खंजर घोंपने जैसा था। उस घटना से हमें सबक सीखना चाहिए था। लेकिन आदर्श हाउसिंग सोसायटी यह साबित करती है कि हम देश की सुरक्षा को लेकर कितने गैर जिम्मेदार हैं। चंद रुपयों के लालच में सब-कुछ बेच देते हैं। सेना की इंजीनियरिंग ट्रांसपोर्ट फेसिलिटी, जहां हथियारबंद वाहन पार्क किए जाते हैं, से सिर्फ 27 मीटर दूर है यह 31 मंजिला इमारत। सेना और नौसेना के डिपो- जिनसे सैनिकों को हथियारों, विस्फोटकों और संवेदनशील उपकरणों की आपूर्ति की जाती है- सिर्फ 100 मीटर दूर है, इस इमारत से। कोई भी इसकी ऊंची छत पर खड़ा होकर हमारे इन रक्षा प्रतिष्ठानों को आसानी से निशाना बना सकता है। इसलिए इस पूरे इलाके में तटीय नियमन क्षेत्र अधिसूचना लागू है जिसके तहत यहां बहुमंजिला इमारतों के निर्माण पर रोक है। लेकिन भ्रष्टाचारियों के लिए क्या तो कानून और क्या राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला!'
      प्रिय पाठकगण! पिछले दिनों मीडिया में लगातार कई बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के मामले सुर्खियों में रहे। इनमें खास तौर पर कॉमनवेल्थ खेल, 2 जी स्पैक्ट्रम और आदर्श हाउसिंग सोसायटी से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों को लेकर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सिलसिलेवार खबरें प्रकाशित/प्रसारित हुईं। प्राय: हर रोज नए तथ्य उजागर हो रहे हैं। भ्रष्टाचार की खबरों पर पाठक त्वरित प्रतिक्रिया करते हैं। आप कॉमनवेल्थ पर पाठकों के विचार (नाक की चिंता) पढ़ चुके हैं। इस बार आदर्श सोसायटी पर पाठकों की राय जानते हैं।
      जयपुर से डॉ. रमेश नारायण के अनुसार- 'आदर्श हाउसिंग सोसायटी का घोटाला सन् 20003 में ही सामने आ चुका था जब एक स्वयंसेवी संस्था की सूचनाओं के आधार पर इंडियन एक्सप्रेस के एक पत्रकार ने यह मामला उजागर किया। लेकिन मुंबई के बिल्डरों और नेताओं का गठजोड़ इतना ताकतवर है कि मामले को दबा दिया गया। यहां तक कि लोकसभा को भी गुमराह किया गया। यह तो भला हो नौसेना के वायस एडमिरल संजीव भसीन का, जिन्होंने इस बिल्डिंग को लेकर पिछले दिनों नौसेना प्रमुख को लिखा। भसीन ने सुरक्षा कारणों से बिल्डिंग की मौजूदगी पर आपत्ति जताई। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इसके बाद यह मुद्दा जोरों से उठा और अशोक राव चव्हाण को कुर्सी छोड़नी पड़ी।'
      इंदौर से पंकज डोभाल ने लिखा- 'मुंबई में बिल्डरों की लॉबी सभी राजनीतिक दलों के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है। इसलिए कोई इसको खत्म करना नहीं चाहता। शिवसेना के मुख्यमंत्री मनोहर जोशी को जमीन घोटाले के कारण सत्ता छोड़नी पड़ी थी। लेकिन उसके बाद क्या हुआ? कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्रियों के नाम आदर्श सोसायटी घोटाले में आ रहे हैं। भाजपा के एक नेता ने तो अपने ड्राइवर को भी फ्लैट दिलवा दिया। राकांपा के अजीत पवार का नाम भी आया है। कौन बचा है इस हमाम में? ऐसी स्थिति में अशोक चव्हाण के जाने और पृथ्वीराज चव्हाण के आने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। आलाकमान केवल नेताओं की अदला-बदली करता है, किसी को सजा क्यों नहीं देता?'
      उदयपुर से विनोद कृष्ण सेंगर ने लिखा- 'आदर्श हाउसिंग सोसायटी की नींव ही असत्य और फर्जीवाड़े पर टिकी है। बिल्डिंग के प्रमोटर ने करगिल शहीदों की विधवाओं, करगिल हीरोज तथा भारतीय सेनाओं में उल्लेखनीय योगदान करने वालों के नाम पर सोसायटी की रूपरेखा तैयार की थी। लेकिन बाद में फ्लैटों की ऐसी बंदरबाट हुई कि राजनेता, बड़े अफसर, उनके नाते-रिश्तेदारों को फ्लैटों की रेवडि़यां बांट दी गईं। बिल्डिंग के कुल 103 फ्लैट्स में से 37 ही सेना से संबंधित लोगों को दिए गए। इनमें सिर्फ 3 करगिल युद्ध सम्बन्धी हैं। और अब खबर आई है कि इनमें भी दो फर्जी नाम हैं।'
      भोपाल से भूपेन्द्र ठुकराल ने लिखा- 'अफसरों, नेताओं और बड़े सैन्य अधिकारियों में फ्लैट लेने की होड़ क्यों मची, यह साफ जाहिर है। जिस फ्लैट की बाजार में 8 करोड़ रुपए कीमत थी, वह उन्हें 85 लाख रुपए में दिया गया।'
      उज्जैन से राज शर्मा ने लिखा- 'सोसायटी के ये फ्लैट्स मुंबई के सर्वाधिक पॉश इलाके में है। यहां जमीन के भाव सबसे महंगे हैं। लेकिन सवाल तो सुरक्षा का है। यह रक्षा मंत्रालय की जमीन थी जो सेना के कब्जे में थी। कोई परिन्दा भी जहां नहीं फटक सकता, वहां भू-माफियाओं ने जमीन हड़प ली।'
      कोटा से जयसिंह चौधरी ने लिखा- 'सोसायटी का घोटाला कॉमनवेल्थ और टेलीकॉम घोटाले से ज्यादा गंभीर है, क्योंकि इसमें देश की सुरक्षा सम्बन्धी पहलू जुड़े हैं इसलिए इसमें लिप्त सभी भ्रष्टाचारियों के नाम उजागर होने चाहिए और सबको सजा मिलनी चाहिए।'
      सूरत से दीपक एस. खत्री ने लिखा- 'पर्यावरण मंत्रालय ने इस बिल्डिंग को गिराने की चेतावनी दी है। अव्वल तो ऐसा करना मुश्किल होगा। मगर सुरक्षा कारणों से बिल्डिंग गिराई जाती है तो इसका पूरा खमियाजा भ्रष्टाचार में लिप्त एक-एक व्यक्ति से वसूल करना चाहिए। चाहे वह नेता हो, या अफसर।'

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      कश्मीर किसका?

      • क्या कश्मीर में शांति के लिए भारत सरकार को पाकिस्तान से बातचीत करनी चाहिए?
      • क्या कश्मीर का भारत में विलय अंतिम नहीं है?
      • क्या कश्मीरवासी सचमुच आजादी मांग रहे हैं और भारत को उसे स्वीकार कर लेना चाहिए?
      • और, क्या कश्मीर कभी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा?
         प्रिय पाठकगण! आप इन सभी प्रश्नों के उत्तर पाठकों के इस बार के पत्रों में प्राप्त कर सकते हैं। कश्मीर के लिए केन्द्र सरकार की तरफ से नियुक्त तीन सदस्यीय वार्ताकारों के मुखिया प्रतिष्ठित पत्रकार दिलीप पडगांवकर का बयान गत दिनों मीडिया में सुर्खियों में रहा। दूसरी ओर कश्मीर पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का पिछले दिनों दिया गया बयान और हाल ही प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय के वक्तव्य भी मीडिया में चर्चा और बहस के घेरे में है।
      किसने क्या कहा, गौर करें।
      • कश्मीर मसले का स्थायी समाधान पाकिस्तान को शामिल किए बिना नहीं हो सकता- दिलीप पडगांवकर (श्रीनगर में)
      • कश्मीर का भारत में विलय अंतिम नहीं है- उमरअब्दुल्ला (श्रीनगर में)
      • अब आजादी ही कश्मीर का रास्ता है- सैयद अली शाह गिलानी (हुर्रियत के कट्टरपंथी नेता, दिल्ली की एक सेमिनार में)
      • कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा- अरुंधति राय (दिल्ली की इसी सेमिनार में)
        प्रिय पाठकगण! कश्मीर के बारे में पिछले दिनों प्रकाशित समाचारों और इन वक्तव्यों का संदर्भ देते हुए पाठकों ने व्यापक प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं। कई पाठकों ने तथ्यों और तर्कों के साथ अपना दृष्टिकोण रखा है। दरअसल, सम्पूर्ण कश्मीर मसले पर भारतीय जनमानस की क्या अभिव्यक्ति है, यह इन प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है।
      सेवानिवृत्त शिक्षक आत्माराम गर्ग (जयपुर) ने लिखा, 'पत्रिका (25 अक्टूबर) में जब पढ़ा कि दिलीप पडगांवकर ने श्रीनगर दौरे में कहा कि कश्मीर समस्या का समाधान पाकिस्तान को शामिल किए बगैर नहीं हो सकता तो मुझे बड़ा आघात लगा। मैं पडगांवकर साहब की लेखनी का प्रशंसक रहा हूं। लेकिन उनके इस बयान से असहमत हूं। पूरी दुनिया जानती है कि कश्मीर घाटी में नफरत का जहर फैलाने वाला कौन है? भारत ने एक बार नहीं सैकड़ों बार अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की कारगुजारियों के सबूत रखे हैं।
      कौन नहीं जानता पाक की शह पर कश्मीर के गैर मुस्लिमों को आतंकित करके योजनाबद्ध ढंग से
      निकाला गया? आज लाखों कश्मीरवासी घर-बार और संपत्ति छोड़कर भारत के विभिन्न हिस्सों में शरणार्थियों की तरह रहने को मजबूर हैं। अपनी धरती से बिछुड़ने का गम कैसा होता है, कोई इनसे पूछे। इन सबको वापस कश्मीर में बसाए बगैर कश्मीर समस्या का समाधान कैसे सोचा जा सकता है।'
      जबलपुर से डॉ. सतीश चंद्र दुबे ने लिखा- 'अगर पडगांवकर का कश्मीर से आशय पाक अधिकृत कश्मीर से है तो उनके बयान का स्वागत है। पाकिस्तान ने कश्मीर के जिस हिस्से को बलपूर्वक हड़प रखा है, उसे वापस पाने के लिए बातचीत में कोई हर्ज नहीं। भारतीय संसद ने 1994 में यह सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया था कि पाक के कब्जे से कश्मीर को मुक्त कराके उसे पुन: भारत में शामिल करना है। यह संकल्प संसद का ही नहीं, पूरे देशवासियों का है। रही जम्मू-कश्मीर की बात तो इसमें पाकिस्तान का क्या काम? यह भारत का अंदरूनी मामला है। क्या बलूचिस्तान की समस्या के लिए पाकिस्तान कभी भारत को बातचीत के लिए आमंत्रित करेगा?'
      इंदौर से जितेन्द्र पी. मालवीय ने लिखा, 'उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री पद पर एक क्षण के लिए भी काबिज नहीं रहना चाहिए। आखिर उन्होंने पद की गरिमा भुलाकर गैर संवैधानिक बयान जो दिया। उमर अब्दुल्ला 26 अक्टूबर1947 की तारीख कैसे भूल गए, जब कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने अपनी रियासत का विलय भारत में करने की स्वीकृति दी। आजादी के बाद पांच सौ रियासतों का विलय भी भारत में इसी प्रकार हुआ। और ये सभी हिस्से आज विधिक तौर पर भारत के अभिन्न अंग हैं। फिर उमर अब्दुल्ला ने कैसे कहा कि कश्मीर का भारत में विलय अंतिम नहीं।'
      देशबंधु पालीवाल (उदयपुर) ने लिखा- 'बड़े अफसोस की बात है कि अरुंधति राय जैसी बुद्धिजीवी लेखिका ने यह बयान दिया कि कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न अंग नहीं रहा। उन्हें प्राचीन भारत का ग्रंथ 'राजतरंगिणी' पढ़ना चाहिए जिसमें लेखक और इतिहासवेत्ता कल्हण ने कश्मीर का इतिहास लिखा है। महर्षि कश्यप ने इस क्षेत्र को बसने योग्य बनाया। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के मगध साम्राज्य का कश्मीर भी एक हिस्सा था। चन्द्रगुप्त के पौत्र सम्राट अशोक ने राजधानी श्रीनगर को बसाया। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने तत्कालीन कश्मीरी राजा दुर्लभवद्र्धन के राज्य का वर्णन अपने यात्रा-वृत्तांत में किया है। महाकवि भवभूति और वाक्पतिराज ने कश्मीर में ही कालजयी साहित्य रचा।'
      प्रीति कुमावत, नवलगढ़ (झुंझुनूं) ने लिखा, 'भारत में अभिव्यक्ति की आजादी है, इसका मतलब यह नहीं कि जिस राष्ट्र ने यह आजादी आपको दी है आप उसको ही तोड़ने की बात करें। कश्मीर की आजादी की बात कहकर इन लोगों ने भारत के करोड़ों लोगों की भावनाओं को आहत किया है।'
      विनय व्यास (रायपुर) ने लिखा, 'भारत के मुकुट कश्मीर पर आज पड़ोसी मुल्कों की बुरी नजर है। पाक अधिकृत कश्मीर में चीन ने डेरा जमा लिया है। वहां चीन निरन्तर अपनी शक्ति बढ़ा रहा है। विश्व पर नजर रखने के लिए भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सम्पूर्ण कश्मीर को वह अपने पिछलग्गू देश पाकिस्तान के कब्जे में देखना चाहता है। भारत को इस साजिश से सावधान रहना होगा।'
      सुमन्त सिंह सोलंकी (जोधपुर) ने लिखा, 'यह सही है कि कश्मीर की समस्या अतीत में की गई कुछ गलतियों का परिणाम है। इसमें जवाहरलाल नेहरू द्वारा कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना, धारा- 370 और सैनिकों की कुछ ज्यादतियां भी शामिल हैं। लेकिन कश्मीर का मतलब केवल कश्मीर घाटी नहीं है। लद्दाख और जम्मू भी इसी राज्य के हिस्से हैं इसलिए केवल घाटी में चंद लोगों की राय सम्पूर्ण कश्मीर पर थोपी नहीं जा सकती।'
      सोमदेव सोढी (भोपाल) ने लिखा, 'कश्मीर सदियों से भारत का अभिन्न अंग था, है और भविष्य में भी रहेगा। भारत के दुश्मनों को यह बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिए।'

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      नोबेल शांति पुरस्कार

        अजमेर से डॉ. रोहित श्रीवास्तव ने लिखा- '9 अक्टूबर (पत्रिका) को जब यह समाचार पढ़ा कि चीन की जेल में बंद विद्रोही नेता लियू जियाबाओ को नोबेल शांति पुरस्कार (2010) विजेता घोषित किया गया है तो अंदाजा लग गया था कि चीन की क्या प्रतिक्रिया होगी और कैसी होगी। ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। इधर पुरस्कार की घोषणा हुई, उधर ड्रेगन ने अपना रंग-रूप दिखाना शुरू कर दिया। सबसे पहले तो चीन में इस समाचार के प्रसारण पर ही रोक लगा दी। इसके बाद उसने नोबेल समिति को कोसा। चीन की प्रतिक्रिया थी- एक अपराधी को सम्मानित कर नोबेल समिति ने अपने ही नियमों की अवहेलना की है। फिर नार्वे की सरकार को धमकाया। इतना ही नहीं लियू की पत्नी लियू जिया को बीजिंग में उनके घर में नजरबंद कर दिया। किसी मीडियाकर्मी को उनसे बात करने की इजाजत नहीं दी गई। दो दिन बाद जिया को पुलिस बिना बताए कहीं ले गई। फिर पता चला कि पुलिस ने उन्हें जेल में बंद पति से कुछ देर के लिए मिलवाया। लियू जियाबाओ को पत्नी से ही नोबेल पुरस्कार की जानकारी मिली। चीन के इस रवैये से शायद ही किसी को आश्चर्य हुआ होगा। जियाबाओ को शांति का नोबेल मिलना चाहिए या नहीं, यह बहस उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी यह कि जिस व्यक्ति को चीन ने अपराधी घोषित करके जेल में बंद कर रखा है, आखिर उसका अपराध क्या है? नोबेल पुरस्कार ने पूरी दुनिया को यह जानने का अवसर दे दिया है। और यही चीन की बौखलाहट का सबसे बड़ा कारण है।'
      भोपाल से अजित रैना ने लिखा- 'लियू जियाबाओ को पिछले दो दशक में बार-बार जेल में बंद किया गया। अभी वह 11 साल जेल की सजा काट रहे हैं। उनका अपराध यह है कि वह लोकतंत्र और मानवाधिकारों का समर्थन करते हैं। वे शांतिपूर्ण बदलाव के समर्थक हैं। उन्होंने चीन में राजनीतिक और संवैधानिक सुधारों की मांग की। उनका अपराध यह है कि वे चीन में एक पार्टी की सत्ता का विरोध करते हैं। उनका अपराध यह भी है कि उन्होंने वर्ष 1989 में थ्यानमन चौक में चीनी सरकार के नरसंहार का विरोध किया और चार्टर 8 का मसौदा तैयार किया। ऐसे 'अपराधी' को नोबेल पुरस्कार के लिए चुना जाए और दुनिया उसके लंबे अहिंसक संघर्ष को मान्यता दे, यह चीनी सर्व- सत्तावादी सरकार को कब सहन होगा।'
      प्रिय पाठकगण! गत वर्ष अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया तो दुनिया भर में उसकी आलोचना हुई थी। दूसरी ओर इस वर्ष नोबेल शांति पुरस्कार पर चीन के अलावा शायद ही किसी देश ने आपत्ति की है। अमरीकी राष्ट्रपति के नोबेल पुरस्कार पर पाठकों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। आइए देखें पाठकों की इस बार क्या प्रतिक्रिया है।
      जयपुर से इन्द्रदेव दवे ने लिखा- 'नोबेल शांति पुरस्कार कई बार विवादों में रहा है। लेकिन हर बार नोबेल समिति का चयन गलत हो, यह सही नहीं है। जियाबाओ के चयन से सिर्फ चीन नाखुश है। किसी देश को खुश या नाराज करना नोबेल पुरस्कार का आधार नहीं बन सकता। जियाबाओ को नोबेल पुरस्कार देने के लिए डेसमंस टूटू और लेक वालेसा जैसे विश्व प्रतिष्ठित लोग मुहिम चलाए हुए थे।'
      जबलपुर से दमयन्ती सिन्हा ने लिखा- 'चीन सरकार की नीतियों से असहमति का मतलब है, जेल। प्रतिरोध के स्वर को सरकारी तानाशाही फौज और पुलिस के दम पर कुचल देती है। थ्यानमन चौक में 2500 लोगों को टैंकों के तले कुचल दिया गया जिनमें अधिकांश संख्या छात्रों की थी। 'द न्यूयार्क टाइम्स' ने सही लिखा कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता पर एकाधिकारवादी पकड़ के खिलाफ उठा हर स्वर देशद्रोह माना जाता है।'
      बेंगलुरु से के.के. नायर ने लिखा -'चीन भले ही दुनिया में बड़ी आर्थिक ताकत हो। उसने अपने नागरिकों को भौतिक समृद्धि भी भले खूब प्रदान की हो, लेकिन मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों को वहां कोई जगह नहीं।'
      उदयपुर से डी.एन. पालीवाल ने लिखा- 'चीन अपनी आर्थिक और सैन्य ताकत की धौंस पूरे विश्व को दिखाता है, लेकिन एक लेखक और चिन्तक के साधारण विरोध को भी सहन नहीं कर पाता।'
      इंदौर से जीवन सिंह ने लिखा- 'धारा से विपरीत बहने का जज्बा रखने वाले शांतिप्रिय बदलाव के समर्थक लोग चीन को पसंद नहीं। ऐसे लोगों को वह अपनी सैनिक ताकत से कुचलना चाहता है। फिर चाहे वह लियू जियाबाओ हो या दलाईलामा।'
      आयकर सर्वे के समाचार : गत दिनों एक प्रसिद्ध भुजिया निर्माता और एक ज्वैलर के ठिकानों पर आयकर सर्वे के बारे में पत्रिका में प्रकाशित समाचारों पर जयपुर के डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने लिखा- ''मैंने एक बात लक्ष्य की है कि इस तरह के समाचारों में अगर उनका संबंध किसी बड़े प्रतिष्ठान से होता है तो आरोपी का नाम लेने से परहेज किया जाता है। जबकि अगर ऐसी कार्रवाई किसी छोटे व्यापारी, व्यक्ति या प्रतिष्ठान पर होती है तो बेझिझक उसका नाम ले लिया जाता है। जैसे मिलावट के मामले में मावा या मिठाई विक्रेताओं के नाम तुरन्त लिख दिए गए। मेरे ख्याल से अगर किसी कानूनी विवाद से बचने के लिए ऐसा किया जाए तब तो ठीक है वरना अखबार का दायित्व यह भी है कि गैरकानूनी कार्रवाई में लिप्त प्रतिष्ठानों को जनता के सामने बेनकाब करें। इनका नाम लेने में संकोच क्यों होना चाहिए?''
      प्रिय पाठकगण! डॉ. अग्रवाल का अनुमान सही है। कानूनी विवाद से बचने के लिए आम तौर पर ऐसा किया जाता है। कई बार आयकर विभाग कार्रवाई के कई दिन बाद तक यह बताने की स्थिति में नहीं होता कि दोष सिद्ध हुआ है कि नहीं। कई बार विभाग तत्काल करदाता की अघोषित आय और उस पर बकाया कर का पूरा विवरण जारी कर देता है। लेकिन दोनों स्थितियों में व्यक्ति या फर्म का नाम विज्ञप्ति में जाहिर नहीं करता। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति या फर्म नाम छपने पर कानूनी कारवाई करता है तो अखबार के पास समाचार की सत्यता सिद्ध करने के लिए कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं होता। दूसरी ओर मिलावट आदि के मामलों में बाकायदा नाम सहित संबंधित विभाग विज्ञप्ति जारी करता है। यह राज्य और केन्द्र सरकार के विभागों की अलग-अलग और विसंगत कार्य-प्रणाली का उदाहरण है। अगर आयकर विभाग विज्ञप्ति में नाम देना शुरू कर दे तो अखबार उसे कभी नहीं रोकेगा। अलबत्ता, सरकार की विसंगत कार्य प्रणालियों को सामने लाने का दायित्व भी मीडिया पर है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

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      अयोध्या और मीडिया

      पिछले साठ साल से चल रहे देश के सबसे संवेदनशील मुकदमे का फैसला आने के बाद भारत में शांति और सदभाव का माहौल देखकर दुनिया के कई देश अचंभित हैं। आखिर यह हुआ कैसे? क्या कट्टरपंथी ताकतें और क्षुद्र राजनीति करने वाली शक्तियां खत्म हो गईं? या जनता की परिपक्व सोच ने इन शक्तियों को खामोश रहने को मजबूर कर दिया? विश्लेषक अपने-अपने निष्कर्ष निकाल रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि शांति का श्रेय देश की जनता को है। लेकिन जनता की सोच को दिशा देने में मीडिया की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही। पाठकों की प्रतिक्रियाओं का यही निचोड़ है।
      इंदौर से अवधेश श्रीवास्तव ने लिखा- 'अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का फैसला आने से पहले जितनी आशंकाएं व्यक्त की गई थीं, वे सब निर्मूल सिद्ध हुई। क्या इसलिए कि सरकार ने सुरक्षा की चाक-चौबन्द व्यवस्था कर रखी थी? या इसलिए कि दोनों समुदायों के कट्टरपंथी तत्त्व खामोश रहे? या फिर इसलिए कि इस मुद्दे पर राजनीति करने वाले दलों ने अपना रवैया बदल लिया? मेरी राय में इनमें से किसी को भी अयोध्या फैसले के बाद रही शांति का श्रेय नहीं दिया जा सकता। इसका वास्तविक श्रेय दोनों समुदाय की परिपक्व होती सोच को दिया जाएगा। हालांकि जनता की परिपक्व सोच के कई कारण हैं, लेकिन मुझे इसमें मीडिया का रोल सबसे अहम नजर आता है। अखबारों ने अयोध्या प्रकरण की बहुत सकरात्मक कवरेज की। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी इस बार सराहनीय रोल निभाया। आखिर तथ्यपूर्ण जानकारियों और सदभाव व भाईचारे के सोद्देश्य संदेशों का जनमानस पर असर पड़ता ही है। मुकदमें के कानूनी पहलुओं को सामने रखकर भी एक तरह से मीडिया ने लोगों की जानकारी बढ़ाई।'
      जयपुर से दीपेन्द्र सिंह सोलंकी ने लिखा- 'अयोध्या मामले से जुड़ी पिछले दिनों प्रकाशित 'पत्रिका' की सभी खबरें मैंने बहुत गौर से पढ़ीं। मुझे हर समाचार से नई और प्रेरक जानकारियां मिली। इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला आने से काफी पहले (23 सितम्बर) 'पत्रिका' में प्रकाशित 'रिश्तों की नींव बहुत मजबूत' ने मुझे बड़ा प्रभावित किया। कश्मीर से लेकर केरल तक दोनों समुदायों के ऐसे कई धर्मस्थल हैं जहां दोनों धर्मों के लोग समान श्रद्धा भाव से जाते हैं। मुस्लिम होते हुए भी टीपू सुल्तान ने कई वैदिक मंदिर बनवाए। अतीत की बात छोड़ें और आज की नूर फातिमा (पत्रिका 29 सितम्बर 'मंदिर-मस्जिद से बड़ा देश') की बात करें तो वही सदभाव नजर आता है। वाराणसी की नूर फातिमा ने अपने मोहल्ले में शिव मंदिर बनवाया। इसी तरह 'भाईचारे पर नहीं आए आंच' (29 सितम्बर), 'अमन को किसी की नजर न लगे' (30 सितम्बर) तथा 'न जीत न हार' (30 सितम्बर) आदि समाचारों ने भी अयोध्या मामले की वास्तविक स्थिति को समझाने में मेरी बहुत मदद की। देश के युवाओं का दृष्टिकोण (पत्रिका सर्वे 28 सितम्बर) भी पता चला।'
      बीकानेर से अब्दुल सलाम भाटी ने लिखा- 'बीकानेर शायद देश में पहला शहर है जहां पाकिस्तान के कायदे आजम जिन्ना के नाम पर सड़क बनी हुई है। यहां की गंगा-जमुनी संस्कृति बहुत मजबूत है। शायद इसीलिए यहां के लोगों ने पिछले दिनों सभी प्रमुख अखबारों और न्यूज चैनल्स के अयोध्या मसले को बहुत गौर से देखा और सकारात्मक कवरेज को सराहा।'
      कई पाठकों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में दोनों पक्षों की ओर से अपील करने के निर्णय पर भी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं।
      बाड़मेर से तेजसिंह चौधरी ने लिखा- 'उच्च न्यायालय ने न्यायसंगत फैसला किया है, तभी तो पूरे देश ने फैसले का स्वागत किया है पर दोनों तरफ कुछ लोग अपवाद हैं जो अब भी पुराना राग अलाप रहे हैं। उनके लिए गुलाब कोठारी ('राम-ओ-रहीम' 2 अक्टूबर) ने सही लिखा- 'आपको देशवासियों का सम्मान करना चाहिए जिन्होंने किस तरह अपने सब्र का परिचय दिया है। उनकी स्वीकृति के बिना कोर्ट (सुप्रीम कोर्ट) में चुनौती देना वाजिब नहीं कहा जाएगा। क्योंकि आप धर्म या सम्प्रदाय के प्रतिनिधि ही हैं, मालिक नहीं।'
      भोपाल से रतिमोहन तिवारी ने लिखा- 'दोनों समुदायों की ओर से मामले की अपील की घोषणा से यह तो जाहिर है कि दोनों पक्षों को सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानना होगा। बातचीत से न सही, न्यायालय से ही सही, इस समस्या का समाधान देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगा।'
      झालावाड़ से श्रीमती गायत्री देवी ने लिखा- 'राजनीति वाले आग न लगाएं और मीडिया वाले उसे सुलगने न दें तो अयोध्या प्रकरण के शांतिपूर्ण समाधान को कोई नहीं रोक सकता।'
      कोटा से प्रमोद सेन ने लिखा- 'अयोध्या मामले का हल जल्दी निकल आएगा क्योंकि इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले के बाद अब यह मुद्दा राजनीतिक दलों और कट्टरपंथी नेताओं के हाथ से निकल चुका है। जरूरत है जनमानस को निरन्तर जागरूक रखने की। यह काम मीडिया बखूबी कर सकता है।'
      प्रिय पाठकगण!
      मीडिया जनता की ही अभिव्यक्ति है। जनता इस मुद्दे के गुण-दोषों को पहचान चुकी है। अतीत से उसने बहुत कुछ सीखा है, मीडिया ने तो उसे याद भर दिलाया है। 1992 के बाद बहुत समय गुजर चुका है। एक पूरी पीढ़ी (युवा वर्ग) नए सोच और विचार के साथ हमारे सामने है, जिसे अनदेखा करना किसी के लिए आसान नहीं।

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      'हम भगवान नहीं'

      पिछले दिनों 'पत्रिका' में राजस्थान में रेजीडेन्ट डॉक्टरों की हड़ताल से सम्बन्धित समाचार टिप्पणियां, लोगों की राय और सम्पादकीय प्रकाशित किए गए थे। प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में डॉक्टरों का यह आन्दोलन सुर्खियों में रहा। इधर कई डॉक्टरों की शिकायत है कि उनके बारे में एकतरफा कवरेज हुई। उनका पक्ष जानने की किसी ने कोशिश नहीं की। उनको बार-बार 'भगवान' सम्बोधित करके कटघरे में खड़ा किया गया।
      महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल, जयपुर के मनोचिकित्सक डॉ. पार्थ सिंह ने लिखा- 'डॉक्टरों को भगवान-भगवान कहकर उन पर व्यंग्य किया जा रहा है, उन्हें खलनायक के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है। बस, बहुत हुआ, हमें बख्श दें। हम भगवान नहीं, आम नागरिक हैं। आम भारतीय नागरिक- जो सम्मान और सुरक्षा के साथ जीना चाहता है... और इतना चाहना तो कोई अपराध नहीं।'
      डॉ. पार्थ ने लिखा- 'रेजीडेन्ट डॉक्टरों की असंवेदनशीलता की खबरें तो टीका-टिप्पणियों के साथ बड़े-बड़े अक्षरों में प्रकाशित की गई, परन्तु उन पर ढाए गए जुल्म पर दो लाइन तक नहीं लिखी गई। जोधपुर में पुलिस ने हॉस्टल में घुसकर रेजीडेन्ट डॉक्टरों के साथ जैसा बर्ताव किया, वैसा तो शायद अजमल कसाब जैसे आतंककारियों के साथ भी नहीं किया गया। 37 मेडिकल छात्रों को गम्भीर चोटें आईं। कई तो शायद अब आजीवन अपंग बन जाएं। ये है भगवानों के साथ बर्ताव करने का तरीका? चिकित्सकों को भगवान का दर्जा दिया जाना ही उनके भावनात्मक शोषण की वजह बन गया है। जब-जब चिकित्सकों ने अपनी सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के मुद्दे उठाए हैं, तब-तब उनको 'भगवान' होने का पाठ पढ़ाकर टरका दिया गया। फौजी और चिकित्सक की यही विडम्बना है। उनके जायज हक को उनके कर्त्तव्यों की याद दिलाकर ठुकरा दिया जाता है।'
      'कर्त्तव्य परायणता का ठीकरा चिकित्सकों के सिर ही क्यों फोड़ा जाए? पुलिसकर्मी नागरिकों के रक्षक के रूप में भगवान हैं मगर वो थानों में बलात्कार करने से नहीं चूकते। देश निर्माण करने वाले इंजीनियर भी भगवान का रूप हैं, पर वो केवल अपने बैंक खातों का निर्माण करते रहते हैं। पत्रकार आजादी और अभिव्यक्ति के रक्षक के रूप में भगवान हुए पर आज वे भी बड़े-बड़े राजनेताओं और धनकुबेरों से पैसे लेकर उनकी खबरें छापते हैं। आज हालत यह है कि नई पीढ़ी चिकित्सक बनना ही नहीं चाहती। अनेक स्कूलों में जीव-विज्ञान का संकाय ही समाप्त कर दिया गया है? क्योंकि पूरी उम्र खपने के बाद भी उन्हें न अच्छा वेतन मिलता है, न सम्मान। ऊपर से कोई भी ऐरा-गैरा आकर उनसे मारपीट कर जाता है। रेजीडेन्ट डॉक्टरों के हड़ताल पर जाने से जो क्षति हुई वह अपूरणीय है, और इसका चिकित्सकों को बेहद अफसोस है। बिना इलाज के मौत हो जाना सभ्य समाज पर कलंक है। लेकिन ये हालात जिन परिस्थितियों में बने वे बेहद विचारणीय हैं।'
      और अन्त में उन्होंने लिखा- 'कहा गया कि जो मांगें डॉक्टरों ने रखी वे बिना हड़ताल किए शान्तिपूर्ण तरीके से भी तो रखी जा सकती थी। परन्तु क्या व्यवहार में हमारा प्रशासन और सरकार शान्तिपूर्वक की गई मांगों को सुनते हैं?'
      लगभग इसी तरह के विचार कोटा मेडिकल कॉलेज के छात्र (नाम स्पष्ट नहीं), महेन्द्र उपाध्याय, नेहा सिंह, प्रिया सिंघल, प्रवीण प्रजापत, (सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज, बीकानेर) सुप्रिया अग्रवाल, मोहनलाल भार्गव आदि रेजीडेन्ट डॉक्टर तथा उनके शुभचिन्तकों ने व्यक्त किए हैं। कुछ डॉक्टरों ने 8 सितम्बर को 'प्रवाह' में प्रकाशित 'प्रायश्चित जरूरी' (भुवनेश जैन) टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जोधपुर की घटना के वीडियो लिंक भेजकर प्रश्न पूछे हैं कि इनमें आपको कौन हैवान नजर आता है डॉक्टर या पुलिस? और लिखा- 'भगवान को तो सब माफ करके अगले दिन अपने फूटे सिर और टूटी टांगें लेकर समाज की सेवा करनी चाहिए।'
      एक मेडिकल छात्र ने लिखा- 'गुंडागर्दी पुलिस करती है और आप हमें बदनाम करते हो। प्रायश्चित तो आपको करना चाहिए।'
      प्रिय पाठकगण! डॉक्टरों के इस आक्रोश से जाहिर है कि उन्होंने चौतरफा उठे विरोध और जन आक्रोश के स्वरों को नहीं सुना। 5, 6 व 7 सितम्बर को राज्य में रेजीडेन्ट डॉक्टरों की हड़ताल पर बहुत कुछ लिखा-कहा जा चुका है। हड़ताल का किसी ने समर्थन नहीं किया। उल्टे चिकित्सकों के आन्दोलन की जितनी भर्त्सना हुई, उतनी किसी की नहीं। इस दौरान जिन 70 मरीजों की मृत्यु हुई, उनके परिजनों को वे कैसेसमझाएँगे कि मरीजों की मौत स्वाभाविक कारणों से हुई। डॉक्टरी बहुत संवेदनशील कर्म है। तभी तो आपको 'भगवान' कहते हैं। मीडिया नहीं, आम आदमी का सम्बोधन है यह। वह दिल से डॉक्टर का सम्मान करता है। यह भी सच है कि जोधपुर में डॉक्टरों पर पुलिस ज्यादती की किसी ने प्रशंसा नहीं की। सभी ने पुलिसकर्मियों को दोषी माना। अखबार के समाचार और टिप्पणियों से भी यह स्पष्ट है। अलबत्ता सरकारी स्तर पर इस मामले में अभी तक पुख्ता कार्रवाई नहीं हुई। सरकारी कामकाज का अपना ढर्रा है। ऐसे मामलों में उसे अपनी शैली बदलनी चाहिए। पर डॉक्टरों को तो निसंदेह अपने रवैये पर विचार करना चाहिए। रेजीडेन्ट डॉक्टरों के बात-बात पर हड़ताल पर जाने के लिए बदनाम होने के कारण वे अपनी जायज मांगों के प्रति भी आमजन की सहानुभूति खोते जा रहे हैं। मीडिया को दोष देने और अन्यों से तुलना करने से क्या होगा? वे अपने चारों तरफ देखें। कौन उनके साथ हड़ताल में खड़ा हुआ? निसंदेह डॉक्टर सम्मान और सुविधाओं के हकदार हैं, लेकिन वे जीवन और मृत्यु से जुड़े अपने पेशे के कठोर कर्त्तव्य को भी नजरअंदाज न करें।

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