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नोबेल शांति पुरस्कार

  अजमेर से डॉ. रोहित श्रीवास्तव ने लिखा- '9 अक्टूबर (पत्रिका) को जब यह समाचार पढ़ा कि चीन की जेल में बंद विद्रोही नेता लियू जियाबाओ को नोबेल शांति पुरस्कार (2010) विजेता घोषित किया गया है तो अंदाजा लग गया था कि चीन की क्या प्रतिक्रिया होगी और कैसी होगी। ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। इधर पुरस्कार की घोषणा हुई, उधर ड्रेगन ने अपना रंग-रूप दिखाना शुरू कर दिया। सबसे पहले तो चीन में इस समाचार के प्रसारण पर ही रोक लगा दी। इसके बाद उसने नोबेल समिति को कोसा। चीन की प्रतिक्रिया थी- एक अपराधी को सम्मानित कर नोबेल समिति ने अपने ही नियमों की अवहेलना की है। फिर नार्वे की सरकार को धमकाया। इतना ही नहीं लियू की पत्नी लियू जिया को बीजिंग में उनके घर में नजरबंद कर दिया। किसी मीडियाकर्मी को उनसे बात करने की इजाजत नहीं दी गई। दो दिन बाद जिया को पुलिस बिना बताए कहीं ले गई। फिर पता चला कि पुलिस ने उन्हें जेल में बंद पति से कुछ देर के लिए मिलवाया। लियू जियाबाओ को पत्नी से ही नोबेल पुरस्कार की जानकारी मिली। चीन के इस रवैये से शायद ही किसी को आश्चर्य हुआ होगा। जियाबाओ को शांति का नोबेल मिलना चाहिए या नहीं, यह बहस उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी यह कि जिस व्यक्ति को चीन ने अपराधी घोषित करके जेल में बंद कर रखा है, आखिर उसका अपराध क्या है? नोबेल पुरस्कार ने पूरी दुनिया को यह जानने का अवसर दे दिया है। और यही चीन की बौखलाहट का सबसे बड़ा कारण है।'
भोपाल से अजित रैना ने लिखा- 'लियू जियाबाओ को पिछले दो दशक में बार-बार जेल में बंद किया गया। अभी वह 11 साल जेल की सजा काट रहे हैं। उनका अपराध यह है कि वह लोकतंत्र और मानवाधिकारों का समर्थन करते हैं। वे शांतिपूर्ण बदलाव के समर्थक हैं। उन्होंने चीन में राजनीतिक और संवैधानिक सुधारों की मांग की। उनका अपराध यह है कि वे चीन में एक पार्टी की सत्ता का विरोध करते हैं। उनका अपराध यह भी है कि उन्होंने वर्ष 1989 में थ्यानमन चौक में चीनी सरकार के नरसंहार का विरोध किया और चार्टर 8 का मसौदा तैयार किया। ऐसे 'अपराधी' को नोबेल पुरस्कार के लिए चुना जाए और दुनिया उसके लंबे अहिंसक संघर्ष को मान्यता दे, यह चीनी सर्व- सत्तावादी सरकार को कब सहन होगा।'
प्रिय पाठकगण! गत वर्ष अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया तो दुनिया भर में उसकी आलोचना हुई थी। दूसरी ओर इस वर्ष नोबेल शांति पुरस्कार पर चीन के अलावा शायद ही किसी देश ने आपत्ति की है। अमरीकी राष्ट्रपति के नोबेल पुरस्कार पर पाठकों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। आइए देखें पाठकों की इस बार क्या प्रतिक्रिया है।
जयपुर से इन्द्रदेव दवे ने लिखा- 'नोबेल शांति पुरस्कार कई बार विवादों में रहा है। लेकिन हर बार नोबेल समिति का चयन गलत हो, यह सही नहीं है। जियाबाओ के चयन से सिर्फ चीन नाखुश है। किसी देश को खुश या नाराज करना नोबेल पुरस्कार का आधार नहीं बन सकता। जियाबाओ को नोबेल पुरस्कार देने के लिए डेसमंस टूटू और लेक वालेसा जैसे विश्व प्रतिष्ठित लोग मुहिम चलाए हुए थे।'
जबलपुर से दमयन्ती सिन्हा ने लिखा- 'चीन सरकार की नीतियों से असहमति का मतलब है, जेल। प्रतिरोध के स्वर को सरकारी तानाशाही फौज और पुलिस के दम पर कुचल देती है। थ्यानमन चौक में 2500 लोगों को टैंकों के तले कुचल दिया गया जिनमें अधिकांश संख्या छात्रों की थी। 'द न्यूयार्क टाइम्स' ने सही लिखा कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता पर एकाधिकारवादी पकड़ के खिलाफ उठा हर स्वर देशद्रोह माना जाता है।'
बेंगलुरु से के.के. नायर ने लिखा -'चीन भले ही दुनिया में बड़ी आर्थिक ताकत हो। उसने अपने नागरिकों को भौतिक समृद्धि भी भले खूब प्रदान की हो, लेकिन मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों को वहां कोई जगह नहीं।'
उदयपुर से डी.एन. पालीवाल ने लिखा- 'चीन अपनी आर्थिक और सैन्य ताकत की धौंस पूरे विश्व को दिखाता है, लेकिन एक लेखक और चिन्तक के साधारण विरोध को भी सहन नहीं कर पाता।'
इंदौर से जीवन सिंह ने लिखा- 'धारा से विपरीत बहने का जज्बा रखने वाले शांतिप्रिय बदलाव के समर्थक लोग चीन को पसंद नहीं। ऐसे लोगों को वह अपनी सैनिक ताकत से कुचलना चाहता है। फिर चाहे वह लियू जियाबाओ हो या दलाईलामा।'
आयकर सर्वे के समाचार : गत दिनों एक प्रसिद्ध भुजिया निर्माता और एक ज्वैलर के ठिकानों पर आयकर सर्वे के बारे में पत्रिका में प्रकाशित समाचारों पर जयपुर के डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने लिखा- ''मैंने एक बात लक्ष्य की है कि इस तरह के समाचारों में अगर उनका संबंध किसी बड़े प्रतिष्ठान से होता है तो आरोपी का नाम लेने से परहेज किया जाता है। जबकि अगर ऐसी कार्रवाई किसी छोटे व्यापारी, व्यक्ति या प्रतिष्ठान पर होती है तो बेझिझक उसका नाम ले लिया जाता है। जैसे मिलावट के मामले में मावा या मिठाई विक्रेताओं के नाम तुरन्त लिख दिए गए। मेरे ख्याल से अगर किसी कानूनी विवाद से बचने के लिए ऐसा किया जाए तब तो ठीक है वरना अखबार का दायित्व यह भी है कि गैरकानूनी कार्रवाई में लिप्त प्रतिष्ठानों को जनता के सामने बेनकाब करें। इनका नाम लेने में संकोच क्यों होना चाहिए?''
प्रिय पाठकगण! डॉ. अग्रवाल का अनुमान सही है। कानूनी विवाद से बचने के लिए आम तौर पर ऐसा किया जाता है। कई बार आयकर विभाग कार्रवाई के कई दिन बाद तक यह बताने की स्थिति में नहीं होता कि दोष सिद्ध हुआ है कि नहीं। कई बार विभाग तत्काल करदाता की अघोषित आय और उस पर बकाया कर का पूरा विवरण जारी कर देता है। लेकिन दोनों स्थितियों में व्यक्ति या फर्म का नाम विज्ञप्ति में जाहिर नहीं करता। ऐसे में यदि कोई व्यक्ति या फर्म नाम छपने पर कानूनी कारवाई करता है तो अखबार के पास समाचार की सत्यता सिद्ध करने के लिए कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं होता। दूसरी ओर मिलावट आदि के मामलों में बाकायदा नाम सहित संबंधित विभाग विज्ञप्ति जारी करता है। यह राज्य और केन्द्र सरकार के विभागों की अलग-अलग और विसंगत कार्य-प्रणाली का उदाहरण है। अगर आयकर विभाग विज्ञप्ति में नाम देना शुरू कर दे तो अखबार उसे कभी नहीं रोकेगा। अलबत्ता, सरकार की विसंगत कार्य प्रणालियों को सामने लाने का दायित्व भी मीडिया पर है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

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