RSS

अनुत्तरित प्रश्न

  • क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की टीवी सम्पादकों से प्रेस-वार्ता अपने उद्देश्य में सफल रही?
  • भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार ने इस वार्ता के जरिए जनता के सामने अपनी स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की थी। क्या वह इसमें कामयाब रही?
  • एक के बाद एक खुलते घोटालों के बीच सरकार के प्रति उठते संदेहों और सवालों के जवाब लोगों को   मिल पाए?
प्रिय पाठकगण! प्रधानमंत्री की प्रेस-वार्ता पर अनेक पाठकों ने प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं जिनमें आप इन प्रश्नों के उत्तर पा सकते हैं।
उदयपुर से शैलेष राजवंशी ने लिखा- 'प्रधानमंत्री की इस प्रेस-वार्ता से मुझे बड़ी उम्मीद थी। लेकिन पूरी वार्ता सुनने के बाद भी मुझे पता नहीं चल पाया कि बड़े-बड़े घोटालों के लिए आखिर जिम्मेदार कौन था? ए राजा? डी.एम.के? प्रणव मुखर्जी या फिर खुद प्रधानमंत्री, जिन्होंने ए.राजा को काफी पहले ही हिदायत दे दी थी। इसके बावजूद राजा ने २ जी स्पैक्ट्रम आवंटन में गड़बडि़यां की, तो प्रधानमंत्री ने उसके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की। इसी तरह एस. बैंड करार का कौन जिम्मेदार था? इसरो? देवास मल्टी-मीडिया? या फिर खुद केन्द्र सरकार? ये दोनों मामले देश के अब तक के सबसे बड़े घोटाले बन चुके हैं। और इन दोनों मामलों में तभी कार्रवाई हुई जब पूरी दुनिया इन घोटालों को जान चुकी थी।'
जबलपुर से ओ.पी. त्यागी ने लिखा- '२ जी स्पैक्ट्रम और एस. बैंड घोटालों में सरकार ने तब जाकर कार्रवाई की जब उसे मजबूर कर दिया गया। ठीक वैसे ही जैसे जनता ने चोर को ढूंढ निकाला तो पुलिस को उसे हथकड़ी लगानी ही पड़ी। इसमें पुलिस ने क्या कमाल कर दिखाया? प्रधानमंत्री ने ए. राजा को हटाने और गिरफ्तारी की जो सफाई पेश की वह ऐसी ही थी।'
जयपुर से राजकुमार पारीक ने लिखा- 'जिन घोटालों की वजह से देश का नाम दुनिया भर में बदनाम हुआ, जनता त्रस्त हुई, क्या उनका एकमात्र कारण गठबंधन सरकार की मजबूरी थी? अविश्वसनीय दलील थी यह। ए.राजा के मार्फत करुणानिधि के कुनबे और कई कार्पोरेट घरानों को देश का धन लूटने की छूट आखिर किसने दी।'
बीकानेर से ओम प्रकाश गुप्ता ने लिखा- 'प्रेस-वार्ता में दिग्गज टीवी पत्रकार थे लेकिन कोई भी प्रधानमंत्री को तीखे सवालों से घेरने में कामयाब नहीं रहा। एक-दो पत्रकारों ने कोशिश की तो सरकारी अफसर ने उन्हें टोक दिया। लिहाजा यह एकतरफा प्रेस-वार्ता बन कर रह गई। आपने उपयुक्त शीर्षक दिया- टीवी पर सरकारी ड्रामा (पत्रिका- १७ फरवरी)। प्रमुख घोटाले प्रिंट मीडिया ने उजागर किए और प्रिंट मीडिया को ही दूर रखकर सरकार ने संकीर्णता का परिचय दिया।'
भोपाल से सतीश सिंघल ने लिखा- 'जब प्रधानमंत्री ने कहा कि गठबंधन सरकार की कुछ मजबूरियां होती हैं तो पत्रकारों को पूछना चाहिए था कि इन मजबूरियों की कोई सीमा-रेखा है क्या? यह भी पूछा जाना चाहिए था कि २ जी स्पैक्ट्रम गठबंधन धर्म की मजबूरी थी, लेकिन एस.बैंड और कॉमनवेल्थ घोटाले किस राजनीतिक धर्म की मजबूरी थे? प्रेस-वार्ता के दो दिन बाद सरकार ने एस.बैंड करार को रद्द करने की घोषणा कर दी। संभवत: वह जेपीसी की जांच के लिए भी तैयार हो गई है। करुणानिधि की पुत्री कनिमोझी के टीवी चैनल कलैंजर टीवी के दफ्तर पर सीबीआई के छापे मारे गए हैं। ये सारी कार्रवाइयां जाहिर करती हैं कि केन्द्र सरकार कहीं न कहीं खुद को दोषी समझ रही है। लेकिन अफसोस यह कि वह इसे स्वीकार नहीं कर रही है।'
इंदौर से सुभाष चंदेरिया ने लिखा- 'प्रधानमंत्री ने प्रेस-वार्ता में कहा कि वह जेपीसी से डरते नहीं हैं और जांच कराने के लिए तैयार हैं। प्रश्न यह है कि भारत के प्रधानमंत्री से भी शक्तिशाली और कौन शख्स है जिसने उन्हें अभी तक जेपीसी की जांच से रोक रखा था। अगर प्रधानमंत्री तैयार थे तो सरकार ने संसद का पिछला शीतकालीन सत्र पूरा क्यों बरबाद कर दिया। सरकार विपक्ष की यह मांग स्वीकार कर लेती तो देश की जनता के पसीने की गाढ़ी कमाई का १७१ करोड़ रुपए फिजूल खर्च नहीं होते।'
कोटा से नरेन्द्र चतुर्वेदी ने लिखा- 'प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि का मैं शुरू से ही कायल रहा हूं। शायद इसीलिए मेरे जैसे कई राष्ट्रवासियों ने उनसे यह उम्मीद लगा रखी है कि बड़े-बड़े घोटालों की अरबों रुपए की राशि भ्रष्टाचारियों की जेब से निकाल कर वह पुन: जनता के खजाने को सौपेंगे। देश के प्रधानमंत्री को जो शक्तियां हासिल हैं उनके चलते मनमोहन सिंह यह कार्य करके इतिहास में अपना नाम दर्ज करा सकते हैं।'
अजमेर से शौकत अली भाटी ने लिखा- 'मनमोहन सिंह अकेले राजनेता हैं जिन्हें राजनीति में खोना कुछ नहीं है। न उनके वंश में कोई राजनीति में हैं न उन्हें कोई राजनीतिक विरासत छोड़नी है। न ही उनमें अथाह धन इकट्ठा करने और शक्ति- केन्द्र बनने की कोई महत्त्वाकांक्षा नजर आती है। तो फिर वे देश-हित में कठोर निर्णय लेने से क्यों बच रहे हैं?'
होशंगाबाद से जयपाल शर्मा ने लिखा- 'मुझे लगता है कि इस प्रेस-वार्ता का उद्देश्य सोमवार से शुरू हो रहे संसद के बजट अधिवेशन की रिहर्सल थी। मुख्य पात्र की प्रस्तुति से यह साफ लग रहा है कि सरकार की मुश्किलें कम होने वाली नहीं हैं।'

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS

भूमिपुत्र का दर्द

जबलपुर से प्रशांत एस. सब्बरवाल ने लिखा- 'मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा है कि किसान आत्महत्या जैसा कदम उठाने को क्यों मजबूर है? राज्य में पिछले डेढ़ माह में करीब डेढ़ दर्जन से अधिक किसानों ने जान दी है। (पत्रिका: 29 जनवरी) इस मामले में दायर जनहित याचिका पर कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस जारी कर चार सप्ताह में जवाब देने को कहा है। जाहिर है, कर्ज से पीडि़त किसानों की आत्महत्याओं के मामले में सरकार अब कठघरे में खड़ी है। मुख्यमंत्री की ओर से की गई मुआवजे की घोषणाएं थोथी निकलीं। किसानों को कोई राहत नहीं मिली। 'भूमिपुत्र' आज हाशिए पर हैं। उसका दर्द कोई नहीं समझ रहा। 1997 से लेकर आज तक देश में करीब सवा दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। दुख से जब सीना छलनी हो जाता है, तभी कोई ऐसा कदम उठाता है। उपाय सरकारों के पास हैं, लेकिन सरकारें निष्ठुर हैं। न्यायालय के नोटिस से शायद वे पिघलें।'
इंदौर से रवीन्द्र पुष्करणा ने लिखा- 'चर्वाक का कर्ज लेकर घी पीने का कथन अगर किसानों की मौत का कारण बनता तो कुछ और बात थी, किन्तु किसान तो कर्ज लेकर खेत खोदता है, अन्न उपजाने के लिए। अन्न, जो देश का पेट भरता है। इतना ज्यादा कि गोदामों में पड़ा सड़ता है। फिर भी वो आत्महत्या के लिए मजबूर है तो जरूर कोई संगीन बात है। तह में जाने की जरूरत है।'
प्रिय पाठकगण! किसानों की आत्महत्या की घटनाएं पिछले लंबे समय से सिलसिलेवार घटित हो रही हैं। खासकर महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में किसानों ने भारी संख्या में कर्ज से पीडि़त होकर या फसल बर्बाद होने पर आत्महत्याएं की हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 1997 से 2009 के बीच देश में 2,16,500 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। निश्चय ही ये आंकड़े भयावह हैं। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के ताजा नोटिस के परिप्रेक्ष्य में पाठकों की प्रतिक्रियाओं पर गौर करना चाहिए।
भोपाल से तनवीर अहमद ने लिखा- 'मध्यप्रदेश में कर्ज के बोझ तले दबे किसान पिछले लंबे समय से मौत को गले लगा रहे हैं, लेकिन किसी भी सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात का जीता-जागता प्रमाण हैं। ब्यूरो के मुताबिक 1997 में (मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़) 2390 किसानों ने आत्महत्या की वहीं 2008 में यह संख्या बढ़कर 3152 हो गई। इसके बाद भी मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या करने की प्रवृत्ति में इजाफा ही हुआ है। यह इसी से पता चलता है कि पिछले डेढ़ माह में ही मध्यप्रदेश में डेढ़ दर्जन से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं- सरकार यह अच्छी तरह से जानती है इसलिए अदालत में उसे सारे तथ्य सही तरीके से रखने चाहिए।'
उदयपुर से नवीन कुमार मित्तल ने लिखा- 'कमोबेश पूरे देश के किसानों की हालत एक जैसी है। राजस्थान के हालात भी कोई बहुत अच्छे नहीं हैं। राज्य में ग्रामीण क्षेत्रों में 83 प्रतिशत परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं। दो साल पहले एक रिपोर्ट में बताया गया था कि राज्य के हर ग्रामीण परिवार पर औसतन ५५ हजार रुपए का कर्ज है। राज्य में 30 लाख ग्रामीण परिवार कर्जदार हैं। इनमें 34 प्रतिशत किसानों ने तो ऊंची ब्याज दरों पर निजी सूदखोरों से ऋण ले रखे हैं। ये आंकड़े राज्य में भी विदर्भ जैसे हालात उत्पन्न कर सकते हैं।'
जयपुर से डॉ. अशोक चक्रपाणि ने लिखा- 'भारत में किसानों की संख्या लगातार घट रही है, लेकिन आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या बढ़ रही है। इससे हमारी अर्थव्यवस्था में खेती की उपेक्षा का अंदाजा लगाया जा सकता है। भारत जैसे देश में कृषि क्षेत्र को समृद्ध बनाए बिना अर्थव्यवस्था में स्थायी मजबूती की कल्पना ही नहीं की जा सकती।'
कोटा से रामदेव आहूजा ने लिखा- 'किसानों की गरीबी का मुख्य कारण उन्हें अपनी फसलों की सही कीमत नहीं मिलना है। राष्ट्रीय किसान आयोग भी यह स्वीकार कर चुका है। आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया कि अधिकांश राज्यों में किसानों को धान और गेहूं का उत्पादन लागत से भी कम न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है। यही हाल दुग्ध व्यवसाय का है। भारत विश्व में एकमात्र देश है जहां दूध की कीमत किसी ब्रांडेड कम्पनी के पानी से भी कम है।'
बीकानेर से श्याम मनोहर शर्मा ने लिखा- 'सरकारें अक्सर लगान, फसली ऋण या ब्याज माफ करने की घोषणाएं करती हैं। कई तरह के अनुदान और छूटें देती है। कृषि विकास के लिए करोड़ों-अरबों रुपए की योजनाएं बनाती हैं। इस सबके बावजूद आज का किसान पिछड़ा हुआ और दुखी क्यों है? जबकि एक समय था जब राज्य का खजाना खेती-किसानी के राजस्व से ही भरता था। जिसके आधार पर शासकों ने ताजमहल जैसे अजूबे खड़े कर दिए। बड़े-बड़े सैनिक अभियान और युद्ध लड़े। आज हालत यह है कि जिस देश में 63 प्रतिशत लोग खेती पर आश्रित हैं, वहां सकल घरेलू उत्पाद में खेती का योगदान 55 प्रतिशत से गिरकर सिर्फ 17प्रतिशत रह गया है। क्या पूंजीवाद हमारी कृषि व्यवस्था को चौपट करता जा रहा है?'
अजमेर से कैलाश चौधरी तथा जोधपुर से प्रेमशंकर प्रजापत के पत्रों का सार है कि बाजार की शक्तियों से भ्रमित होकर आज का किसान कर्ज के दुष्चक्र में फंस रहा है। वह क्या बोएगा, यह स्थानीय परिस्थिति और जरूरत की बजाय बाजार तय कर रहा है। महंगी खाद और रासायनिक उर्वरक उसकी उपजाऊ जमीन को बंजर कर रहे हैं। इस दुष्चक्र से किसानों को निकालने की जरूरत है।

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS