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भ्रष्टतंत्र बनाम जनतंत्र

मैं 27  वर्षीय युवक हूं। सार्वजनिक मुद्दों में रुचि लेता हूं। आजादी के संघर्ष को किताबों में पढ़कर रोमांचित और भावुक होता रहा हूं। जेपी के आन्दोलन के बारे में भी मैंने खूब सुना था। इसलिए जब गांधीजी की तरह एक बुजुर्ग ने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर आन्दोलन छेड़ा तो मैं इससे भावनात्मक रूप से जुड़ गया। रोज शाम को मोमबत्ती लेकर स्टेच्यू सर्कि ल पर पहुंच जाता, लेकिन जब दिन बीतने लगे तो मैं भावुक होने लगा। अन्ना का अनशन खत्म होगा या नहीं? आठ दिन-नौ दिन-दस दिन... एक-एक दिन मुझो बहुत भारी लग रहा था। आखिर बारहवें दिन प्रधानमंत्री जी की चि_ी पाकर अन्ना ने अनशन खत्म करने की घोषणा की, तो थोड़ी राहत मिली। फिर भी मन में शंका थी, कहीं रात को उन्हें कुछ हो गया तो? मुझो नींद नहीं आई। रविवार सुबह जब उनका अनशन टूटा तो चैन आया। मैं सोचता रहा आखिर मेरी इस बेचैनी की क्या वजह थी? आजकल वास्तविक मुद्दों को लेकर ऐसी मजबूती से आन्दोलन चलाने वाले कहां बचे हैं। मेरी पीढ़ी तो यही सुनती आ रही थी। अब एक विश्वास तो जगा है, अन्याय और शोषण के खिलाफ जनता का। आगे यह हौसला निरन्तर बढ़े, इसके लिए अन्ना हजारे जैसे नेतृत्वकारियों की सख्त जरूरत है। उनका जीवन अमूल्य है- शायद यही मेरी बेचैनी की वजह थी।
- दुष्यन्त पारीक, जयपुर
इस देश के लिए भ्रष्टाचार कितना बड़ा मुद्दा है, आम आदमी को अन्दर ही अन्दर मथ रहा था। अन्ना के आह्वान पर पूरा देश सड़कों पर निकल आया। कुछ घंटे या एक-आध दिन के लिए नहीं- पूरे बारह दिनों तक जनता जमी रही। जज्बा ऐसा कि बारह महीने भी आन्दोलन चलता तो लोग डटे रहते।
- रवीन्द्र कालरा, बीकानेर
मीडिया ने इस आन्दोलन को फैलाया तथा अन्ना की मजबूती और जनता के जज्बे ने सत्ता को झुकाया। यह भ्रष्टतंत्र बनाम जनतंत्र की लड़ाई थी। जिसे सिविल सोसायटी बनाम संसद की लड़ाई बनाने की चालें भी चली गईं।
- दिनेश जैन, इन्दौर
न लड़ाई अभी खत्म हुई है, न ही मुद्दा। बहुत बड़ी विजय की खामखयाली अभी न पालें तो बेहतर होगा। जन लोकपाल बिल पर एक किरण नजर आई है। कानून बनने की राह अभी दूर है। सिविल सोसायटी और व्हीसल ब्लोअर्स के सामने आगे कई चुनौतियां खड़ी हैं।
- नरेन्द्र साहू, रायपुर
जन लोकपाल बिल आन्दोलन से अभी हमें जो हासिल हुआ है, उसे कम नहीं आंकें। आन्दोलन ने सारे राजनीतिक दलों पर एक ऐसा नैतिक दबाव पैदा कर दिया है कि भ्रष्टाचार की आगे की लड़ाई अब इतनी मुश्किल नहीं रह जाएगी, जितनी आन्दोलन की शुरुआत में लग रही थी। ऊपर से लेकर निचले पायदान तक संदेश पहुंच चुका है।
- धर्मेश हाड़ा, कोटा
प्रिय पाठकगण! लोकपाल, जन लोकपाल और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर पाठक इस स्तंभ में खुलकर राय व्यक्त करते रहे हैं। १६ अगस्त को अन्ना हजारे के अनशन शुरू करने से लेकर २८ अगस्त को अनशन समाप्त करने तक अनेक पाठकों की प्रतिक्रियाएं और प्राप्त हुई हैं। इनमें कुछ चुनींदा प्रतिक्रियाओं की बानगी आपने देखी। कुछ और प्रतिक्रियाएं भी देखें।
जबलपुर से कौशल भारद्वाज ने लिखा- 'मैं एक निजी कम्पनी में कार्यरत हूं। सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक ड्यूटी करता हूं। अन्ना के आन्दोलन में भाग लेने के लिए सप्ताह भर छुट्टी लेकर दिल्ली गया। फिर लौट आया, लेकिन मन वहीं अटका रहा। इसलिए घर में ज्यादातर समय टीवी चैनल पर चिपका रहता हूं।'
जोधपुर से दिनेश चन्द्र पुरोहित ने लिखा- 'मीडिया से पल-पल की खबरें मिलती रहीं। सुबह-सुबह अखबार और शाम को टीवी चैनल। पिछले दस-बारह दिन की मेरी यही दिनचर्या थी। 'पत्रिका' के 'दमन पर भारी सत्याग्रह' को मैं सबसे पहले देखता था। जन लोकपाल बिल के मुद्दे को समझने में इस पृष्ठ ने मेरी बड़ी मदद की।'
उज्जैन से कृपाशंकर ने लिखा- 'दरअसल, जन लोकपाल विधेयक एक ऐसे कानून की परिकल्पना है, जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार पर लगाम कसने की बात कही गई है। हालांकि कानून बनना एक बात है, उसे लागू करना बिलकुल दूसरी बात है। हम कई अच्छे कानूनों का हश्र देख रहे हैं। नेता और नौकरशाही उन्हें लागू ही नहीं होने देते।'
अजमेर से भगवान चन्द्र अजमानी ने लिखा- 'जन लोकपाल विधेयक से सबसे ज्यादा वही डर रहे हैं, जो भ्रष्टाचारी हैं। बड़े-बड़े घोटालों में जिन नेताओं और अफसरों के नाम हैं, वे इसे कभी लागू करना नहीं चाहेंगे। शायद इसीलिए इतने बड़े जन आन्दोलन के बावजूद एक सशक्त लोकपाल बिल बनने में इतनी अड़चनें आ रही हैं।'
उदयपुर से गौरव मेहता ने लिखा- 'अन्ना ने सही कहा, अभी आधी जीत हुई है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत लोकपाल कानून बनना ही काफी नहीं होगा, उसे उतनी ही मजबूती से लागू कराने की भी जरूरत पड़ेगी। इसके लिए टीम अन्ना और आम जनता को तैयार रहना होगा।'
प्रिय पाठकगण! हर जन आन्दोलन का एक संदेश है। जिसका निहितार्थ है कि हम कर्तव्य और अधिकार दोनों के प्रति जागरूक रहें। इन पर आंच आए तो संघर्ष के लिए तैयार रहें। गांधीजी और अन्ना के अहिंसक संघर्ष की तरह। इसकी शक्ति बहुत बड़ी है, जिसकी एक बानगी आपने देखी। देश कितनी ही तरक्की कर ले, भ्रष्टाचार का दैत्य उसे निगल जाएगा। इसलिए इस आन्दोलन को अपने उद्देश्य तक पहुंचना बहुत जरूरी है।

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ऐसा हो लोकपाल


पाठक इसी स्तंभ में राय व्यक्त कर चुके हैं कि देश में भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए एक लोकपाल की नियुक्ति शीघ्र होनी चाहिए। सरकार के भरोसे पिछले 42 वर्षों से लोकपाल विधेयक अटका रहा। अन्ना हजारे ने अनशन किया तो सरकार हरकत में आई। आनन-फानन में समिति बनी और तय समय में लोकसभा में विधेयक भी पेश हो गया। इसलिए अब बहस का विषय यह नहीं है कि लोकपाल की नियुक्ति हो, बल्कि यह है कि सशक्त लोकपाल की नियुक्ति हो। ऐसे लोकपाल की जो भ्रष्टाचार का खात्मा करने में सक्षम हो।
क्या सरकार ने जो विधेयक पेश किया है वह इस उद्देश्य को पूरा करता है?
या अन्ना हजारे ने जो मसौदा रखा, वह इस उद्देश्य के ज्यादा नजदीक है। यानी आज बहस का विषय है कि देश का लोकपाल कैसा हो।
जैसा अन्ना हजारे और सिविल सोसाइटी चाहती है वैसा हो, क्योंकि...
या
जैसा यूपीए सरकार और गठबंधन दल चाहते हैं वैसा हो, क्योंकि...
लोकपाल पर समूची बहस इन दो बिन्दुओं में सिमट आई है। सरकार के अपने तर्क हैं, अन्ना हजारे के अपने। एक को सरकारी लोकपाल कहा जा रहा है। दूसरे को जन लोकपाल जो अन्ना हजारे और सिविल सोसाइटी के आंदोलन का मुख्य मुद्दा है। आखिर इन दोनों में क्या फर्क है, इस पर मीडिया में खूब चर्चा हो चुकी है। अनेक विशेषज्ञों के विचार सामने आ चुके हैं। पाठकों के क्या विचार हैं, यह जानना भी महत्वपूर्ण है। लोकपाल कैसा हो-इस पर पाठकों की राय जनभावनाओं का प्रतिबिम्ब है।
भोपाल से आरिफ अहमद ने लिखा-'जैसा अन्ना हजारे और उनकी टीम चाहती है वैसा लोकपाल ही नियुक्त होना चाहिए, क्योंकि यही जनभावनाएं हैं। देश के आम नागरिकों की भावनाओं का सच्चा प्रतिनिधित्व अन्ना का जन लोकपाल ही करता है, न कि सरकारी लोकपाल जिसका मसौदा संसद में पेश किया गया है। यह कपिल सिब्बल, प्रणव मुखर्जी जैसे घाघ सत्ताधीशों ने तैयार किया है। इस विधेयक के पारित होने से भ्रष्टाचारियों का बाल तक बांका नहीं होगा।'
कोटा से ज्योति जैन ने लिखा-'यह प्रणव मुखर्जी वहीं हैं जिन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री को शामिल करने की सिफारिश की थी। मुखर्जी लोकपाल का मसौदा तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष थे और तब विपक्ष में नेता थे। लेकिन आज सत्ता में आकर उन्होंने गिरगिट की तरह रंग बदल लिया।'
जयपुर से दिनेश पालीवाल ने लिखा-'सरकारी लोकपाल विधेयक की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले को ही कटघरे में खड़ा कर देता है। अगर भ्रष्टाचार की शिकायत गलत पाए जाने पर किसी को जेल हो सकती है तो कोई भ्रष्टाचार की शिकायत करेगा ही क्यों?'
इंदौर से संजय नागौरी ने लिखा-'लोकपाल ऐसा होना चाहिए, जिसे भ्रष्ट व्यक्ति को दंडित करने और उसकी सम्पत्ति जब्त करने का सम्पूर्ण अधिकार हो। केवल सिफारिश करने में लोकपाल से कोई नहीं डरेगा। दोषी व्यक्ति अपनी तिकड़म और ताकत से सरकार में पूरी दखल रखता है। इसलिए वह साफ बच निकलेगा।'
उदयपुर से कैलाशचन्द गुप्ता ने लिखा-'अन्ना हजारे का लोकपाल एक शक्तिशाली लोकपाल है, जिसकी आज देश को सख्त जरूरत है। क्योंकि देश में भ्रष्टाचार अपनी चरम स्थिति में पहुंच चुका है। लोकसभा में कुल 543 सांसदों में 162 सांसद दागी हैं। 76 सांसद तो ऐसे हैं जिन पर संगीन आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं। देश में प्रतिनिधित्व जब ऐसे लोग करेंगे तो आम जनता का क्या होगा।'
रायपुर से अनिल बिस्वाल ने लिखा-'काले धन की समस्या का समाधान सशक्त लोकपाल ही कर सकता है। सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल की कोई हैसियत नहीं होगी कि वह भ्रष्टाचारियों की काली कमाई विदेशों से लाकर जब्त कर ले। काला धन आज देश का लाइलाज रोग बन चुका है। ताज्जुब होता है जब यह सुनते हैं कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपए स्विस बैंकों में जमा है। ये कालाधन आजादी के 64 साल में देश से भ्रष्टाचारियों ने लूटा है। अंग्रेजों ने भारत पर करीब 200 साल राज किया और करीब एक लाख करोड़ रुपए लूटे, लेकिन ये भ्रष्टाचारी तो अंग्रेजों से गए-गुजरे हैं जिन्होंने महज 64 वर्षों में देश का 280 लाख करोड़ रुपए लूट लिया।'
अजमेर से दीप साहनी ने लिखा-'लोकपाल के गठन में जब 9 में से 5 सरकार के लोग होंगे तो वे शक्तिशाली लोकपाल का चुनाव करेंगे? कौन मूर्ख होगा जो अपनी सर्वशक्तिमान सत्ता को किसी दूसरे को सौंप कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा।'
श्रीगंगानगर से कुलदीप चढ्ढा ने लिखा-'लोकपाल की नियुक्ति और गठन का अधिकार नागरिकों की समिति को ही दिया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार करने वाले ही जब लोकपाल का चयन करेंगे तो निश्चय ही एक भ्रष्ट व्यक्ति को ही चुनेंगे।'
इसके विपरीत कुछ पाठकों ने राय व्यक्त की है कि लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना हजारे और सिविल सोसाइटी को लचीला रुख अपनाना चाहिए और प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट को मुक्त रखना चाहिए।
ग्वालियर से देवेन्द्र कौशिक ने लिखा-'अन्ना हजारे का जन लोकपाल न्याय प्रक्रिया में स्थापित सिद्धांत का उल्लंघन करता है। न्याय का सिद्धांत है कि अपराध का संज्ञान लेने वाली, जांच करने वाली तथा अभियोजन करने वाली संस्थाएं अलग-अलग होनी चाहिए। लेकिन जन लोकपाल में अकेले में सारी प्रक्रियाएं समाहित की गई हैं। लोकपाल ही पुलिस, लोकपाल ही वकील और लोकपाल ही न्यायाधीश का काम करेगा। ऐसे में जन लोकपाल में एक निरंकुश, सर्वशक्तिमान अधिपति की बू आती है।'
उज्जैन से रामकृष्ण दाधीच  ने लिखा-'अत्यन्त शक्तियों से परिपूर्ण जन लोकपाल कहीं भष्मासुर का दूसरा अवतार नहीं बन जाए।'
बीकानेर से पूनमचंद सुथार ने लिखा-'भारत में सरकारी कर्मचारियों की संख्या करोड़ों में है। अकेला जन लोकपाल इन सबके भ्रष्ट कारनामों पर कैसे नजर रखा पाएगा?'
प्रिय पाठकगण! जन लोकपाल बनाम सरकारी लोकपाल की शक्तियों और कमजोरियों पर पाठकों ने खुलकर प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं, जिनसे यह तो स्पष्ट है कि देश के लिए एक सशक्त लोकपाल की जरूरत है। सरकार का लोकपाल कहीं बहुत कमजोर तो नहीं कि उसके अस्तित्व का औचित्य ही खत्म हो जाए तथा जन लोकपाल कहीं इतना ताकतवर तो नहीं कि अधिनायक बनकर लोकतंत्र को ही लील जाए। पाठकों की ये प्रतिक्रिया इसी चिन्ता की अभिव्यक्ति है। लेकिन भ्रष्टाचार के भस्मासुर का खात्मा हो, यह हर आम आदमी चाहता है। क्योंकि वहीं इससे पीडि़त है। इसलिए लोकपाल सशक्त, स्वतंत्र और सक्षम हो-यह लोकतंत्र ही नहीं देश की सेहत के लिए भी बहुत अच्छा रहेगा।
सभी पाठकों को 65वें स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं।

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आयकर वसूली

  • क्या भारत में व्यक्तिगत आयकर की वसूली खत्म कर देनी चाहिए?
  • क्या मौजूदा आयकर प्रणाली देश के सभी आयकरदाताओं के साथ समान रूप से न्याय करती है?
  • क्या काले धन की समस्या की मुख्य वजह आयकर ढांचे की विसंगतियां हैं?
प्रिय पाठकगण!  इस बार पाठकों की बहस इन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित है। पाठकों ने अपने विचार 'नहीं वसूला जाए आयकर' (पत्रिका: 24 जुलाई 2011) के संदर्भ में व्यक्त किए हैं। यह रविवारीय आवरण-कथा भारत में आयकर के 150 वर्ष के अवसर पर प्रकाशित की गई थी। ज्यादातर पाठकों ने जहां व्यक्तिगत आयकर वसूली को खत्म करने के विचार का समर्थन किया है, वहीं कई पाठक आयकर ढांचे को अधिक न्याय संगत बनाने के पक्षधर हैं।
जयपुर से जी.सी. श्रीवास्तव ने लिखा- 'आयकर का सिद्धान्त है- ज्यादा कमाने वाले से ज्यादा कर और कम कमाने वाले से कम कर, लेकिन बिल्कुल उल्टा हो रहा है। हमारी वर्तमान आयकर प्रणाली छोटे, मध्यम नौकरीपेशा वर्ग से तो पाई-पाई वसूल कर लेती है, लेकिन काली कमाई करने वाले बड़े 'मगरमच्छों' के सामने लाचार नजर आती है। हां, बीच-बीच में जो छापामारी की कवायद दिखाई पड़ती है- वह जनता की आंखों में धूल झोंकने के सिवाय कुछ नहीं। हकीकत में छापे की ये कार्रवाइयां भारत जैसे विशाल देश में काली कमाई के महासागर में बुलबुले के समान हैं। जो 728 खरब रुपए का कालाधन अब तक विदेशी बैंकों में जमा हो चुका है, वह इस सच्चाई को प्रमाणित करने के लिए काफी है। ये आंकड़े भारत में आयकर के 150 साल के इतिहास के नहीं हैं, बल्कि 1961 का आयकर कानून बनने के बाद के हैं। इसमें भी ज्यादातर काली कमाई पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के दौरान जमा की गई।'
इंदौर से अरुण सनोलिया ने लिखा-'नौकरीपेशा छोटे आयकरदाताओं के साथ आयकर पद्धति न्याय नहीं करती। इसलिए इस वर्ग के लिए आयकर एक अनचाहा उत्तरदायित्व बन गया है। पन्द्रह से पच्चीस हजार मासिक वेतन पाने वाला देश में बहुत बड़ा तबका है। यह तबका महंगाई और दूसरे आर्थिक दबावों से त्रस्त है। इन दबावों के चलते इसे कई सामाजिक समस्याओं से भी जूझना पड़ता है। कर्ज और समस्याओं से घिरे व्यक्ति को अपने अल्प वेतन का भी कुछ हिस्सा कर के रूप में चुकाना पड़ता है। दूसरी तरफ उससे अधिक कमाने वाले गैर वेतन भोगी को जब वह मजे से कर चोरी करते पाता है, तो मन मसोस कर रह जाता है।'
भोपाल से रवि कौशिक ने लिखा- 'मुझे बहुत कोफ्त होती है, जब हमारे खून-पसीने की कमाई से वसूले गए कर राजस्व का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्ट नेता और अफसर एक झटके से घोटालों में हड़प जाते हैं।
जोधपुर से श्याम सुन्दर ओझा ने लिखा-'आयकर में स्लैब व्यवस्था न्यायपूर्ण नहीं है। 8 लाख रुपए कमाने वाला भी 30 प्रतिशत कर चुकाए और 80 लाख कमाने वाला भी 30 प्रतिशत ही चुकाए, यह उचित नहीं। ऐसे प्रावधान लोगों को कर चोरी के लिए मजबूर करते हैं।
जबलपुर से बी.के. पटेल ने लिखा- 'आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2010-11 में देश को आयकर से कुल 4 लाख 46 हजार करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त हुआ। हालांकि देश का आकार और क्षमता को देखते हुए यह राशि बहुत कम है, लेकिन यह सच्चाई है कि यह राशि हमारे सकल राजस्व में 35 फीसदी की हिस्सेदारी निभाती है। दूसरी सच्चाई यह भी है कि करीब साढ़े चार लाख करोड़ रुपए के आयकर राजस्व में निगम कर और धन कर को छोड़ दें तो व्यक्तिगत आयकर का योगदान सिर्फ डेढ़ लाख करोड़ रुपए है, जबकि 2जी घोटाला 1.76 लाख करोड़ का है। और कई घोटालों में कई लाख करोड़ का भ्रष्टाचार सामने आ चुका है। यह धन देश के नागरिकों से वसूला गया टैक्स है, जिससे कम से कम व्यक्तिगत आयकरदाताओं को तो मुक्त रखा ही जा सकता है।'
रायपुर से राजेन्द्र साहू ने लिखा-'एक तरफ छोटे करदाताओं पर बोझ लादा जाता है, दूसरी तरफ बड़े आयकरदाताओं को आयकर संबंधी कई माफी योजनाओं के जरिए लाभ पहुंचाया जाता है। इससे काला धन जमा करने वालों को ही प्रोत्साहन मिलता है। यह पढ़कर आश्चर्य हुआ कि भारत सरकार ने 2005-06 से 2010-11 के बीच कॉरपोरेट जगत को 3 लाख 74 हजार 937 करोड़ रुपए की कर माफी दी। दूसरी तरफ हम किसानों और गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को सरकारी अनुदानों को हड़पने का दोषी ठहराते हैं। आर्थिक सिद्धान्तों के ये दोहरे मापदंड क्यों?'
उदयपुर से अंकित सामर ने लिखा- 'देश के कुल राजस्व में आयकर की हिस्सेदारी को खत्म कर दिया गया तो हमारी अर्थव्यवस्था को ऐसा तगड़ा झटका लगेगा कि हम संभल नहीं पाएंगे। आयकर खत्म करने की बजाय आयकर तंत्र को सुधारने की ज्यादा जरूरत है।'
बीकानेर से मिथिलेश गुप्ता ने लिखा- 'आयकर का ढांचा इतना सुसंगत हो कि किसी को भी यह बाध्यकारी कानून की बजाय एक नैतिक और जरूरी नागरिक उत्तरदायित्व लगे।'
प्रिय पाठकगण! यह सही है कि आयकर के संदर्भ में अर्थशास्त्रियों व विशेषज्ञों की राय महत्वपूर्ण है। आयकर की अवधारणा, महत्व और उद्देश्य को वे अच्छी तरह परिभाषित कर सकते हैं। आयकर कानून यही इंगित करता है, लेकिन आयकरदाता और आम नागरिकों का दृष्टिकोण भी कम मायने नहीं रखता। आयकर की विसंगतियों को लोगों के अनुभवों से ही परिमार्जित किया जा सकता है। बेहतर होगा, कर नीतियों-खासकर व्यक्तिगत आय कर के मामले में जनता के विचारों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।

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