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लोकपाल जनता का या सरकार का!

काफी जद्दोजहद के बाद लोकपाल विधेयक का नया मसौदा लोकसभा में पेश किया गया है। चर्चा के लिए खास तौर पर संसद सत्र की अवधि बढ़ाई गई। अब इस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हैं। अन्ना हजारे इसे कमजोर बिल बताकर ठुकरा चुके। सरकार ने भी अपना रुख सख्त कर रखा है। दोनों पक्ष अड़े हैं। आखिर क्या होगा समाधान? पाठकों की प्रतिक्रियाओं में ऐसे ही प्रश्न हैं तो उनके कुछ समाधान भी हैं।

प्रिय पाठकगण! देश में भ्रष्टाचार को लेकर जो फिक्रमंद हैं, उनके जेहन में आज यही सवाल उठ रहा है—क्या लोकपाल विधेयक पारित हो पाएगा? या पिछले 43  साल से इस विधेयक का जो हश्र होता आया है, वही इस बार भी होने जा रहा है। सरकार ने काफी जद्दोजहद के बाद नया मसौदा लोकसभा में पेश किया। चर्चा के लिए खास तौर पर सत्र की अवधि बढ़ाई गई। अब पूरे देश की निगाहें टिकी हैं। यह ऐतिहासिक विधेयक कब, कैसे और किस रूप में पारित होगा। क्या यह एक मजबूत लोकपाल विधेयक है? अन्ना हजारे इसे कमजोर बिल बताकर ठुकरा चुके। सरकार ने भी अपना रुख सख्त कर रखा है। दोनों पक्ष अड़े हैं। इधर विभिन्न राजनीतिक दलों के अपने-अपने पेंच हैं। आखिर क्या होगा समाधान? होगा भी या नहीं। हो तो क्या होना चाहिए? पाठकों की प्रतिक्रियाओं में ऐसे ही प्रश्न हैं तो उनके कुछ समाधान भी हैं।
भोपाल से रवीन्द्र एस. मलैया ने लिखा— 'लोकपाल के लिए हमने 43 वर्षों का लम्बा इन्तजार किया तो क्यों नहीं हम नए साल पर एक मजबूत और प्रभावी लोकपाल के तोहफे की उम्मीद करें। लेकिन सरकार ने हमें तोहफे की बजाय ठेंगा बताने की तैयारी कर रखी है। उसने जो बिल पेश किया है, उसमें सब कुछ है—लोकपाल नहीं। जिस लोकपाल के पास न प्रशासनिक न वित्तीय अधिकार हों, वह क्या खाक भ्रष्टाचार मिटाएगा?'
जयपुर से गुणप्रकाश विजयवर्गीय ने लिखा— 'यह जनभावनाओं का लोकपाल नहीं, जिसके लिए अन्ना हजारे संघर्ष कर रहे हैं। सरकार ने लोकतंत्र और संसदीय मर्यादाओं की आड़ लेकर इसे मकड़ी का जाल बना दिया है। जिस संसद की बार-बार दुहाई दी जा रही है, उसे चुना किसने है। अन्ना हजारे कोई चार-पांच लोगों के आन्दोलन का नाम नहीं, यह जन-आन्दोलन है, जिसकी शक्ति नेताओं को दिखाई नहीं पड़ रही है।'
रायपुर से सुशीला त्यागी ने लिखा— 'अब भी वक्त है। सरकार हमारी भावनाओं को समझो। हम भ्रष्टाचार पर कोई समझाौता नहीं चाहते। भ्रष्टाचार का खात्मा करने के लिए अगर एक मजबूत लोकपाल के सर्वशक्तिमान बन जाने का अंदेशा है तो एकबारगी हमें वह भी मंजूर है।'
अजमेर से रोहित, दिव्या और मनीष ने लिखा— 'हमें भ्रष्ट राजनीतिक नेता बिल्कुल मंजूर नहीं। इन्हीं की वजह से पूरे देश में करप्शन फैला हुआ है।'
कोटा से हिमांशु गोयल ने लिखा— 'अन्ना हजारे के खिलाफ सारे नेता पार्टी लाइन भूलकर एक हो गए। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, जनता दल-यू, यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी व भाजपा के नेता भी एक सुर में बोल रहे हैं। क्या कभी आपने ऐसी एकता देखी? सभी को अन्ना का डर सता रहा है।'
प्रिय पाठकगण! पाठकों ने नए 'लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक-2011' के प्रावधानों पर खुलकर प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं, जो इस ज्वलन्त मुद्दे के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालती हैं। साथ ही उनके इस दृष्टिकोण को भी स्पष्ट करती है कि भ्रष्टाचार का खात्मा जरूरी है इसलिए सशक्त लोकपाल भी जरूरी है।
इंदौर से अनिल देशमुख ने लिखा— 'लोकपाल विधेयक के आधार पर राज्यों में लोकायुक्त बनाने का प्रावधान संविधान सम्मत नहीं है। इससे संघीय ढांचे पर असर पड़ेगा। इसके तहत राज्यों से कानून बनाने की शक्तियां छीन ली गई हैं। इस प्रावधान को अदालत से चुनौती मिलना तय है। यानी बिल अटक जाएगा।'
उज्जैन से दीपेन्द्र महर्षि ने लिखा— 'लोकपाल में आरक्षण का पेंच डालकर इसे ठंडे बस्ते में डालने की चाल रची गई है। इसके लिए लोकसभा में तीन-चौथाई सदस्यों की सहमति जरूरी है, जो संभव नहीं लगती।'
उदयपुर से राजेन्द्र पूर्बिया ने लिखा— 'लोकपाल विधेयक में झाूठी शिकायत करने पर एक साल की सजा व एक लाख का जुर्माना शिकायतकर्ता पर थोपा गया है। दूसरी तरफ शिकायत झाूठी पाई जाने पर अफसर का मुकदमा सरकार लड़ेगी और उसका पूरा खर्च उठाएगी। ताकतवर नौकरशाही अपने खिलाफ शिकायतों को किस तरह झाूठी साबित कर देती है, यह किसी से छिपा नहीं है। क्या कोई ऐसे भ्रष्ट और ताकतवर अफसर के खिलाफ शिकायत करने की हिम्मत करेगा?'
ग्वालियर से स्वप्नदास गुप्ता ने लिखा— 'बात-बात पर आरक्षण का राग अलापने वाले नेता कायर और डरपोक हैं। इन नेताओं की सुरक्षा करने वाले बॉडीगार्ड के लिए ये कभी आरक्षण की मांग नहीं करते। ये सेना में भर्ती के लिए भी कभी आरक्षण की मांग नहीं करते।'
जोधपुर से अरविन्द सोलंकी ने लिखा— 'भ्रष्टाचार के मामलों में सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव जांच की प्रक्रिया है। जांच करने वाली प्रमुख एजेन्सी सीबीआई सरकार के नियंत्रण में है। यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ समूची जांच सरकार के नियंत्रण में रहेगी न कि लोकपाल के नियंत्रण में।'
सीकर से श्याममनोहर शर्मा ने लिखा— ''लोकपाल बिल को लेकर कुछ नेता किस तरह सांसदों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं ये इनके बयानों से साफ जाहिर है (पत्रिका: 22 दिसंबर) मुलायम सिंह ने कहा—लोकपाल आ जाएगा तो एस.पी., डी.एम., दरोगा जब चाहेंगे हमें जेल भेज देंगे। लालू यादव बोले— ये लोग जब चाहेंगे सांसदों को मारेंगे-पीटेंगे। हमारी इज्जत नहीं रहेगी। जबकि हकीकत यह है कि लोकपाल से सिर्फ भ्रष्ट नेता को खतरा है। मगर इनके बयानों से लगता है लोकपाल के नाम से ही इनके पसीने छूट रहे हैं।'
जबलपुर से ब्रजेन्द्र मिश्रा ने लिखा— 'लोकपाल बिल पर अन्ना टीम को फिलहाल टकराव छोड़कर बिल को पारित होने तक खामोश रहना चाहिए। एक बार बिल पारित तो हो। फिर मजबूत लोकपाल की लड़ाई लड़ी जा सकती है।'
प्रिय पाठकगण! पाठकों के पत्रों का सार है कि लोकपाल विधेयक पर चर्चा खूब हो चुकी। इसकी अच्छाइयों और कमियों पर देश में साल भर से बहस चल रही है। अब यह बिल पारित होना चाहिए। सरकार और सांसद देश को ऐसा लोकपाल दे जो भ्रष्टाचार का खात्मा करने में सक्षम हो। यह तभी संभव है जब लोकपाल मजबूत और पर्याप्त अधिकारों से सम्पन्न हो।

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ऑन-लाइन विचारों पर गाज!

घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिरी सरकार को हाल ही एफ.डी.आई. के मुद्दे पर मात खानी पड़ी। इधर लोकपाल को लेकर भी वह चौतरफा घिरी हुई है। ऐसे में सोशल मीडिया पर हाथ डालना बर्र के छत्ते को छेडऩे जैसा है। यही कारण है कि आज पूरी नेटवर्किंग सोसाइटी सरकार से नाराज है और उस पर जोरदार प्रहार कर रही है।


आई.टी. मंत्री कपिल सिब्बल का बयान (नेट पर नकेल कसेगी सरकार पत्रिका: 7 दिसंबर) पढ़कर बहुत कोफ्त हुई। सिब्बल केन्द्र सरकार की बची-खुची साख को भी पलीता लगा रहे हैं। उन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइटों पर लगाम कसने की बात उस वक्त कही, जब केन्द्र सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ निम्नतर स्तर पर है। घोटाले और भ्रष्टाचार के आरोपों से बुरी तरह घिरी सरकार को हाल ही एफ.डी.आई. के मुद्दे पर मात खानी पड़ी। इधर लोकपाल को लेकर भी वह चौतरफा घिरी हुई है। ऐसे में सोशल मीडिया पर हाथ डालना बर्र के छत्ते को छेडऩे जैसा है। यही कारण है कि आज पूरी नेटवर्किंग सोसाइटी सरकार से नाराज है और उस पर जोरदार प्रहार कर रही है।'
जयपुर से श्याम बिहारी माथुर ने उक्त प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इन शब्दों में आक्रोश जाहिर किया— 'कपिल सिब्बल पहले भी बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आन्दोलनों में सरकार की किरकिरी करा चुके। अब सोशल मीडिया पर हमला बोलकर उन्होंने न केवल कांग्रेस बल्कि यूपीए के अन्य घटक दलों को भी मुश्किल में डाल दिया है।'
प्रिय पाठकगण! पिछले दिनों केन्द्र सरकार के सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने फेसबुक, गूगल आदि वेबसाइट्स संचालकों को बुलाकर चेतावनी दी कि राजनेताओं (कांग्रेस) के बारे में की गई आपत्तिजनक टिप्पणियां हटाई जाएं। अगर वेबसाइट्स कंपनियां कोई कदम नहीं उठाएंगी तो सरकार कदम उठाएगी। प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस सोशल मीडिया पर सरकारी नियंत्रण के विरोध में कहा गया कि सरकार साम्प्रदायिकता या संवेदनशीलता की आड़ लेकर विरोधी स्वरों को दबाना चाहती है। हाल ही में फेसबुक पर भावनाओं को भड़काने वाला एक पोस्ट किया गया था जिसे तत्काल हटा दिया गया। परन्तु ऐसी घटनाओं के बहाने सरकार आपत्तिजनक सामग्री की बजाय अपनी आलोचनाओं पर रोक लगाना चाहती है। यह स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर कुठाराघात है। पाठकों की कुछ और प्रतिक्रियाएं भी यहां दी जा रही हैं, जो इस ज्वलंत मुद्दे के कई पहलुओं को स्पष्ट करती हैं।
रायपुर से हरिश सब्बरवाल ने लिखा— 'इसमें दो राय नहीं कि राष्ट्रीय सुरक्षा और संवेदनाओं को भड़काने वाली सामग्री तत्काल हटाई जानी चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि अपवाद स्वरूप ही ऐसी सामग्रियां अपलोड होती हैं। किसी सिरफिरे ने कुछ लिख भी दिया तो उसके विपरीत प्रतिक्रियाओं का दबाव ही  प्रबल रहता है कि वेबसाइट्स को यह सामग्री हटानी पड़ती है।'
भोपाल से देवेन्द्र भदौरिया ने लिखा— 'नेटवर्किंग की दुनिया विराट और विशाल है जिसमें विविधताओं का अम्बार है। इसमें ज्यादातर युवा अपनी अभिव्यक्ति और सपनों पर फोकस करते हैं। किसे फुरसत है भड़काने वाले मुद्दों पर उलझाने की?'
कोटा से स्वप्निल जोशी ने लिखा— 'सरकार नाहक घबरा रही है। नेटवर्किंग सोसाइटी खुले दिमाग वालों की है। उसमें संकीर्णता को कोई जगह नहीं। हां, भ्रष्टाचारियों को लेकर इधर खूब कमेन्ट्स किए जा रहे हैं।'
इंदौर से सुशील चन्द्र जैन ने लिखा— 'सरकार अपनी आलोचना को लेकर कितनी डरी हुई है, यह इसी से साबित है कि गूगल को पेश 358 शिकायतों में से 255 तो उसकी आलोचना से सम्बंधित सामग्री ही पोस्ट है। इनमें संवेदनशील मुद्दों पर महज 8 पोस्टें थीं जिसे सरकार की शिकायत के बाद हटा दिया गया।'
उदयपुर से आलोक श्रीवास्तव ने लिखा— 'नेट को बदनाम करने की क्या जरूरत है। क्या 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, गोपालगढ़ में साम्प्रदायिक हिंसा और संसद व मुम्बई में आतंकी हमले के लिए फेसबुक जिम्मेदार है?'
अलवर से रागिनी शर्मा ने लिखा— 'सोशल नेटवर्किंग पर सेंसर लगाने की सरकार की मंशा भांपते ही दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्रों ने 'राइट टू इंटरनेट एंड सोशलाइज' पेज बनाकर अपलोड किया है। इसमें तेजी से युवा जुड़ते जा रहे हैं।'
जोधपुर से डा. सौरभ ने लिखा— 'सरकार ने अगर साइबर विचारों पर पहरेदारी बिठाई तो उसकी दुनिया भर में बदनामी होगी। चीन ने जिस तरह से सायबर वल्र्ड पर सेन्सर लगा रखा है, उसे कोई पसंद नहीं करता।'
अजमेर से प्रो. देवकृष्ण शर्मा ने लिखा— 'अभिव्यक्ति का खुलापन कई समस्याओं का समाधान स्वत: कर देता है। समाज में यह दृष्टिकोण 'सेफ्टी वाल्व' का काम करता है। इससे डरने की जरूरत नहीं है।'
उज्जैन से डी.डी. भट्ट ने लिखा— 'सोशल मीडिया से वही घबराते हैं जो या तो भ्रष्टाचारी हैं या फिर अत्याचारी। आम जनता के लिए यह खूबसूरत मंच है।'
जबलपुर से मनमोहन 'विश्वास' ने लिखा— 'भारत में फेसबुक और ट्विटर के करीब 8 करोड़ उपभोक्ता हैं। इंटरनेट, मोबाइल आदि को जोड़ें तो करीब 20  करोड़ भारतीय इस सोशल मीडिया से जुड़े हैं। यह एक बहुत बड़ी ताकत है जिससे सरकार का डरना लाजिमी है।'
जबलपुर से दिव्या मिश्रा ने लिखा— 'आज का नेटवर्किंग युवा जागरूक और जिम्मेदार है। वह हिंसा भड़काने व घृणा फैलाने वाली सामग्री को पसंद नहीं करता।'
ग्वालियर से विजेता सिंह ने लिखा— 'बेहतर होगा सरकार सेंसर की बजाय लोगों को आपत्तिजनक सामग्री हटाने के विकल्पों के लिए शिक्षित व प्रेरित करे। ऐसे आइटम हटाने के लिए 'रिपोर्ट एब्यूज' का विकल्प मौजूद है। पहले कंटेट पर क्लिक करें, फिर रिपोर्ट पर एब्यूज पर क्लिक करें। ज्यादा उपभोक्ता जब ऐसा करेंगे तो साइट अपने आप उसे हटा देने के लिए मजबूर हो जाएगी।'
प्रिय पाठकगण! अभिव्यक्ति को बाधित करके कभी महान लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। हमें असहमति को बर्दाश्त करना सीखना होगा। नुकसानदेह व असत्य सामग्री को नेट पर अस्वीकार करने के हमारे पास विकल्प मौजूद हैं। जैसा कि विजेता सिंह ने लिखा लोगों को इसकी जानकारी मिलनी चाहिए और इसके इस्तेमाल के लिए प्रेरित करना चाहिए। न कि सेंसर की तलवार चलानी चाहिए।

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देसी व्यापारी बनाम विदेशी कारोबारी

देश भर में चारों तरफ आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट मिलने से हमारा खुदरा व्यापार का ढांचा तहस-नहस हो जाएगा। छोटे व्यापारी, किसान और खेतिहर मजदूर बर्बाद हो जाएंगे तथा बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर लेगी। दूसरी तरफ सरकार और कई विशेषज्ञों का तर्क  है कि इससे नए किस्म की आर्थिक क्रान्ति का उदय होगा। उपभोक्ता और किसान फायदे में रहेंगे।

प्रिय पाठकगण! विदेशी कंपनियों के खुदरा व्यापार के मसले पर देश भर में घमासान मचा है। केन्द्र सरकार आलोचनाओं से घिरी है। चारों तरफ आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट मिलने से हमारा खुदरा व्यापार का ढांचा तहस-नहस हो जाएगा। छोटे व्यापारी, किसान और खेतिहर मजदूर बर्बाद हो जाएंगे तथा बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर लेगी। दूसरी तरफ सरकार और कई विशेषज्ञों का तर्क  है कि इससे देश में एक नए किस्म की आर्थिक क्रान्ति का उदय होगा। उपभोक्ता और किसान फायदे में रहेंगे। रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। इस मुद्दे पर देशव्यापी बहस छिड़ी है। मीडिया में अलग-अलग विवेचनाएं सामने आ रही हैं। लेकिन एफडीआई का केन्द्रबिन्दु देश का आम उपभोक्ता इस मुद्दे पर क्या सोचता है— यह जानना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हमारे पाठकों की ये प्रतिक्रियाएं आम उपभोक्ता के दृष्टिकोण की ही अभिव्यक्ति मानी जा सकती है। आइए, जानें।
इंदौर से नीरज बंसल ने लिखा — 'मुझे अर्थव्यवस्था की बारीकियां नहीं मालूम। एक उपभोक्ता के नाते मैं तो सिर्फ यह चाहता हूं कि बाजार में मैं जब ब्रेड और मक्खन खरीदने जाऊं तो मुझे  ताजा, उच्च गुणवत्ता से परिपूर्ण और किफायती दाम पर सुलभ हो जाएं। चाहे आटा, चावल, तेल हो या फिर साबुन, ट्यूबलाइट, जूते-चप्पल हों, सभी गुणवत्ता और दाम के लिहाज से अपने उपयुक्ततम स्तर पर हों, ताकि उपभोक्ता के तौर पर मुझे संतुष्टि का सर्वोच्च स्तर प्राप्त हो। यह सब प्रदान करने की गारंटी उपभोक्ताओं को बहुराष्ट्रीय कंपनियां दे रही हैं तो हमें उनसे क्यों एतराज होना चाहिए? मुझे समझ में नहीं आ रहा कि वॉलमार्ट, कैरीफोर जैसी श्रेष्ठ सेवाओं के लिए ख्यात कंपनियों का क्यों विरोध किया जा रहा है।'
जयपुर से एम.बी.ए. छात्र धीरज श्रीवास्तव ने लिखा — 'जो लोग एफडीआई का विरोध कर रहे हैं वे किसान विरोधी तथा व्यापार में बिचौलियों के संरक्षक हैं। उपभोक्ता और उत्पादक (किसान) के बीच में बिचौलियों की क्या जरूरत? हर कोई जानता है कि बिचौलिया पद्धति से किसानों और उपभोक्ताओं को कितना नुकसान भुगतना पड़ता है। किसानों से तीन रुपए में वस्तु खरीदकर उसे तेरह रुपए में बेचना उपभोक्ता और किसान दोनों का शोषण करना है।
उदयपुर से निधि शर्मा ने लिखा — 'कंपनियों के स्टोर्स का माहौल बहुत सुखद होता है। यहां ग्राहकों से बहुत शालीन व्यवहार किया जाता है। कोई भी वस्तु आंख मूंदकर खरीदी जा सकती है। ग्राहक से धोखा नहीं होता।'
प्रिय पाठकगण!  ऐसा नहीं है कि सभी पाठकों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वागत किया है। पाठकों का एक बड़ा वर्ग है, जो छोटे दुकानदारों के पक्ष में है और खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों के खिलाफ है। इन पाठकों की राय में केन्द्र सरकार का निर्णय अदूरदर्शितापूर्ण और देश के लिए अहितकर है।
भोपाल से डा. सुरेखा नागर ने लिखा — 'अजीब बात है, वॉलमार्ट जैसी कंपनियों का अमरीका में जोरदार विरोध हो रहा है, लेकिन भारत में हमारी सरकार पलक-पांवड़े बिछाए जा रही है। सिर्फ अमरीका में ही नहीं, दुनिया के 40 से अधिक देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध हो रहा है, क्योंकि वहां के लोगों के इन कंपनियों को लेकर कड़ुए अनुभव रहे हैं। क्या हम भी पहले चोट खाकर फिर इनके बारे में अपनी राय बनाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं?'
जोधपुर से जमुनदास पुरोहित ने लिखा — 'बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वागत करने वालों को इनका इतिहास पता नहीं है। शुरू में ये लागत से कम कीमत पर माल बेचती हैं और घाटा उठाती हैं। फिर छोटे व्यापारियों का खात्मा कर उनके व्यवसाय पर एकाधिकार कायम कर लेती हैं। इसके बाद उनकी असलियत सामने आने लगती है।'
कोटा से रविन्द्र जैमन ने लिखा — 'भारतीय उपभोक्ता किसी खाम खयाली में नहीं रहे कि उन्हें अच्छी सेवाएं और सस्ती वस्तुएं मिलेंगी। मोनोपॉली कायम करने के बाद ये उपभोक्ताओं को मक्खी-मच्छर से अधिक नहीं समझती।'
रायपुर से हीरेन पटोदिया ने लिखा — 'कुछ राज्यों के चुनाव सामने हैं। यूपीए सरकार ने यह क्या किया। अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी दे मारी। लाखों रिटेलर्स और छोटे कारोबारी सरकार के इस फैसले से खफा हैं।'
अजमेर से दीपक निर्वाण ने लिखा — 'बहुराष्ट्रीय कंपनियां आर्थिक सत्ता हासिल करने के बाद राजनीतिक सत्ता हासिल करने की कोशिश में जुट जाती है। ईस्ट इंडिया कंपनी का अनुभव हमारे इतिहास के पन्नों में दर्ज है। शायद यही वजह है कि इन कंपनियों का व्यापक स्तर पर विरोध किया जा रहा है।'
ग्वालियर से राजेश्वर सिंह ने लिखा — '30 लाख करोड़ रु. का भारतीय रिटेल बाजार हमारी सरकार ने थाली में परोसकर विदेशी कंपनियों को पेश कर दिया है। क्या किसी और देश में ऐसा संभव था?'
बीकानेर से पी.सी. सुथार ने लिखा — 'सरकार की दलील है कि इन कंपनियों को बहुत सारी शर्तों के साथ व्यापार की अनुमति दी गई है। इसलिए भारतीय व्यापार-जगत को नुकसान की आशंकाएं गलत है। परन्तु एक समय के बाद ये कंपनियां किसी शर्त का पालन नहीं करती। सरकारी अधिकारी इनके सामने नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐसे में भारतीय हितों की रक्षा कौन करेगा।'
प्रिय पाठकगण!  इस मुद्दे पर बहस तथा पक्ष-विपक्ष के अनेक बिन्दु हैं। बुनियादी सवाल यह है कि हजारों-लाखों कारोबारियों की अनदेखी करके किसी एक या कुछ विदेशी कारोबारियों को ही व्यापार सौंपने का सिद्धान्त कितना न्यायपूर्ण है। अगर तर्क  यह है कि इससे व्यापार की गुणवत्ता बढ़ेगी और करोड़ों उपभोक्ताओं को फायदा होगा तो यह उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था में भी हासिल किया जा सकता है। जरूरत है हमारे खुदरा व्यापार के ढांचे को चुस्त-दुरुस्त करने की। सरकार खुदरा व्यापार की एक सुस्पष्ट नीति बनाकर और उसे सही तौर पर लागू करवाकर सबका भला कर सकती है—खुदरा और छोटे व्यापारियों का भी, किसानों का भी तथा आम उपभोक्ताओं का भी।

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महंगाई से हैं सब परेशान

सरकार में बैठे लोगों का मानना है कि आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ी है इसलिए वह महंगाई से इतना त्रस्त नहीं है, जितना मीडिया में बताया जा रहा है। तेल कंपनियों की सोच भी यही है कि लोग बढ़े हुए दाम चुकाने में सक्षम हैं। जिन पर महंगाई को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी है, वे अजीबो-गरीब तर्क देते हैं। वे कहते हैं खाद्य वस्तुओं के दाम बढऩा अर्थव्यवस्था
के विकास का प्रतीक है।

'मौत की ओर ले जा रही महंगाई'  (पत्रिका: 5 नवम्बर) समाचार पढ़ा तो लगा केरल हाईकोर्ट ने मुझ जैसे करोड़ों भारतवासियों के दिल की बात कह दी। यह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जयपुर से श्याम सिंह आढ़ा ने लिखा— 'महंगाई ने पहले से ही मार रखा है। उस पर महीने-दो महीने से बढ़ती पेट्रोल की कीमतें मरे हुए पर लात मारने जैसी लगती है। आम आदमी महंगाई से कराह रहा है, लेकिन यूपीए सरकार कुंभकर्ण की तरह बेसुध होकर सोई हुई है।'
प्रिय पाठकगण! पिछले दिनों महंगाई बढऩे के समाचार मीडिया में लगातार सुर्खियां बने हुए थे। इसी बीच तेल कंपनियों ने भी फिर पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने की घोषणा कर दी। सरकार में बैठे लोगों का मानना है कि आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ी है इसलिए वह महंगाई से इतना त्रस्त नहीं है, जितना मीडिया में बताया जा रहा है। तेल कंपनियों की सोच भी यही है कि लोग बढ़े हुए दाम चुकाने में सक्षम हैं। जिन पर महंगाई को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी है, वे अजीबो-गरीब तर्क देते हैं। वे कहते हैं खाद्य वस्तुओं के दाम बढऩा अर्थव्यवस्था के विकास का प्रतीक है।
क्या वाकई ऐसा है? क्या सचमुच महंगाई से लोग परेशान नहीं है? एक नमूना आपने ऊपर देखा। आइए देखते हैं, क्या कहते हैं आम नागरिक।
रायपुर से उमा धरेन्द्रा ने लिखा— 'हम पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं। दो बच्चे और सास-ससुर हैं। कुल छह सदस्यों का परिवार चलाना हम दोनों के लिए दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है। ग्रोसरी, दूध व सब्जियों पर ही आधा वेतन खर्च हो जाता है। रही-सही कसर पेट्रोल निकाल देता है। बच्चों की स्कूल फीस कमर तोड़ देती है। बीमार सास के लिए बहुत महंगी दवाएं खरीदनी पड़ती है। ऊपर से कार की किस्त! हम दोनों अब कार बेचने की सोच रहे हैं। लेकिन बच्चे रोक रहे हैं। उन्हें कैसे समझाएं।'
इंदौर से कृष्णदास 'कौशल' ने लिखा— 'हमारे देश जैसा शायद ही कहीं विचित्र आर्थिक-तंत्र होगा। महंगाई रोकने के लिए रिजर्व बैंक बार-बार ब्याज दरें बढ़ाता है। पेट्रोल कंपनियां बार-बार दाम बढ़ाकर पानी फेर देती हैं।'
उदयपुर से प्रवीण भनोत ने लिखा— 'केन्द्र सरकार झूठी है। वह कहती है पेट्रोल की कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। जबकि उसका पूरा नियंत्रण है। पिछली बार कुछ राज्यों में चुनाव होने वाले थे। घाटा उठाकर भी तेल कंपनियां दाम बढ़ा नहीं पा रही थीं। क्यों? चुनाव हो गए तो ये कंपनियां एक दिन भी नहीं रुकी। इन्हें चुनाव होने तक कौन रोक रहा था, क्या जनता नहीं जानती?'
कोटा से इंद्र मोहन थपलियाल ने लिखा— 'तेल कंपनियों से सरकार की साठगांठ साफ समझ में आती है। पेट्रोल के दाम कंपनियों को बढ़ाने है, लेकिन लोगों को मानसिक रूप से तैयार करने का काम सरकार करती है। कुछ दिनों पहले से ही मंत्रियों के बयान छपने लगते हैं। इस बार भी कंपनियों ने पेट्रोल के दाम ३ नवम्बर को बढ़ाए थे लेकिन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी का बयान २२ अक्टूबर को ही अखबारों में प्रकाशित हो गया।'
भोपाल से संदीप राठोड़ ने लिखा— 'पेट्रोल की कीमतों को सरकार क्यों रोकेगी? उसकी तो चांदी ही चांदी है। एक ही झाटके में करोड़ों रु. का कर सरकारी खजाने को भर देता है। पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने सही कहा— अगर सरकार पेट्रोल पर करों का मोह छोड़ दे, तो आज जनता को २३.३७ रु. लीटर पेट्रोल मिल सकता है।'
जोधपुर से के.एल. पंवार ने लिखा— 'पेट्रोल की कीमतों को अन्तरराष्ट्रीय बाजार की कीमतों से जोडऩा एक सही तर्क तभी होगा, जब अन्य पेट्रो उत्पादों के दाम भी बढ़े। केरोसिन के दाम इसलिए नहीं बढ़ते, क्योंकि वह गरीबों के लिए है। डीजल इसलिए महंगा नहीं कर सकते, क्योंकि ट्रक मालिकों की लॉबी बहुत मजबूत है। पेट्रोल के उपभोक्ता असंगठित हैं। सबसे ज्यादा मार इसी वर्ग पर पड़ रही है।'
ग्वालियर से असीम गुप्ता ने लिखा— 'तेल कंपनियां पेट्रोल के दाम बढ़ाने से पहले हर बार घाटे का तर्क देती है। कोई इनकी बैलेंस शीट तो देखें। करोड़ों का मुनाफा कमा रही है।'
उदयपुर से शरद माथुर ने लिखा— 'चीन ने महंगाई को कैसे काबू में किया, इससे भारत को सीखना चाहिए। चीन ने मुक्त बाजार के दौर में भी मूल्य नियंत्रण की नीति अपनाई। कंपनियों को दो टूक आदेश दिया कि किसी भी सूरत में 5 फीसदी से ज्यादा कीमतें नहीं बढ़ाई जाएंगी।'
अलवर से सुरेश यादव के अनुसार— 'अच्छे मानसून और गोदाम भरे होने के बावजूद महंगाई बढ़ी। साफ है कि जमाखोरों, कालाबाजारियों और बिचौलियों पर हमारी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है।'
जबलपुर से शीतल मिश्र ने लिखा— 'इजरायलवासियों की तरह हमें भी महंगाई के विरोध में सड़कों पर उतरना चाहिए। केरल हाईकोर्ट ने सही टिप्पणी की—लोगों को राजनीतिक दलों से महंगाई से राहत का इंतजार नहीं करना चाहिए। खुद आगे आकर विरोध करना चाहिए। (पत्रिका: 5 नवम्बर)'
प्रिय पाठकगण! बेलगाम कीमतों और अनियंत्रित महंगाई पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी से न तो केन्द्र और न ही राज्य सरकारें बच सकती हैं। चुनाव के दौरान हर राजनीतिक दल महंगाई कम करने का राग अलापता है। जनता से वादे करता है और सत्ता हाथ में आते ही सब कुछ भूल जाता है। सौ दिन में महंगाई कम करने का वादा जनता भूली नहीं है। सरकार भूल गई है तो उसे याद दिलाने के लिए केरल हाईकोर्ट की टिप्पणी पर जनता को गौर करना चाहिए।

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