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समाज, बाजार और मीडिया

सच है कि समाज के अन्य अंगों की तरह मीडिया भी बाजारवाद से प्रभावित है। बल्कि उसके बहुत बड़े हिस्से पर बाजार की शक्तियां हावी हो गई हैं। 'मिशनरी' पत्रकारिता से 'व्यावसायिक' पत्रकारिता का सफर एक सच्चाई है। लेकिन 'व्यावसायिक' पत्रकारिता और मूल्यहीन पत्रकारिता में कोई अनिवार्य अन्तर्संबंध देखना भूल है।

हाल ही मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल होने का अवसर मिला। चर्चा का केन्द्र-बिन्दु लोकतंत्र के स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया—में आम आदमी के सरोकारों से जुड़ा था। मीडिया से सम्बंधित चर्चा के दौरान कुछ ऐसे सवाल उठाए गए, जो इधर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लगातार उठाए जा रहे हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि संगोष्ठी एक छोटे-से कस्बे में कन्या शिक्षा से सम्बंधित एक निजी संस्थान द्वारा आयोजित की गई थी। बीकानेर जिले के नोखा कस्बे में श्री जैन आदर्श सेवा संस्थान के विशाल परिसर में कन्या शिक्षा से जुड़ी विभिन्न शिक्षण संस्थाएं संचालित हैं। संस्थान के 25 वर्ष पूर्ण होने पर रजत जयंती समारोह की शृंखला में 28 जुलाई को आयोजित इस संगोष्ठी में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार और ख्यात अर्थशास्त्री प्रो. विजय शंकर व्यास मुख्य वक्ता थे। प्रो. व्यास ने आर्थिक नीतियों और आम आदमी के अन्तरसम्बंधों पर सारगर्भित व्याख्यान दिया। अन्य विषयों पर भी आम आदमी पर केन्द्रित सार्थक चर्चा हुई। यहां मैं मीडिया के दायित्व-बोध पर हुई चर्चा पर रोशनी डालना चाहूंगा।
मीडिया को लेकर विभिन्न मंचों पर जो बात लगातार कही जा रही है, वही संगोष्ठी में भी उभर कर आई। ...वर्तमान परिवेश ने मीडिया को 'मिशन' से 'व्यवसाय' बना दिया है। वह बाजार की कठपुतली बन गया है। मीडिया जैसा शक्तिशाली माध्यम का इस्तेमाल करने वाला बाजार न तो किसी आचरण संहिता को मानता है और न ही किसी नैतिक मर्यादा को। एडमंड बर्क ने लोकतंत्र में प्रेस के महत्व व उपयोगिता को अभिव्यंजित करने के उद्देश्य से उसे चौथा स्तंभ कहा, लेकिन आज मीडिया के बाजारवाद की प्राथमिकता ने लोकतंत्र के इस स्तंभ से मूल्यपरक पत्रकारिता को छूमंतर कर दिया। पूंजीवाद से पोषित अर्थव्यवस्था में पल-बढ़ रहे मीडिया ने आम आदमी को भुला दिया है। वह संवेदनहीन हो गया है और उसका सामाजिक दायित्व-बोध नष्ट हो चुका है।...
उपरोक्त भाव मैंने एक प्रतिभागी डॉ. प्रतिभा कोचर के व्याख्यान से उद्धृत किए हैं, जो मीडिया पर व्यक्त किए जा रहे विचारों व धारणाओं की प्रतिनिधि अभिव्यक्ति है।
सच है कि समाज के अन्य अंगों की तरह मीडिया भी बाजारवाद से प्रभावित है। बल्कि उसके बहुत बड़े हिस्से पर बाजार की शक्तियां हावी हो गई हैं। 'मिशनरी' पत्रकारिता से 'व्यावसायिक' पत्रकारिता का सफर एक सच्चाई है। लेकिन 'व्यावसायिक' पत्रकारिता और मूल्यहीन पत्रकारिता में कोई अनिवार्य अन्तर्संबंध देखना भूल है। व्यावसायिक होते हुए भी मूल्यपरक पत्रकारिता की जा सकती है जिसमें पाठक केन्द्र में रहता है। जबकि बाजार प्रेरित मीडिया के केन्द्र में पाठक या दर्शक या श्रोता उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना बाजार और उसकी जरूरतें महत्वपूर्ण है। हमें मीडिया का आकलन करते समय इनमें अन्तर करना होगा ताकि सभी मीडिया संस्थानों को एक ही लाठी से न हांका जाए।
इसलिए जब संगोष्ठी के संयोजक और कन्या महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो. वेद शर्मा ने मुझो मीडिया की ओर से विचार रखने के लिए आमंत्रित किया तो मैंने 'राजस्थान पत्रिका' के एक समाचार अभियान के हवाले से अपना मंतव्य स्पष्ट किया। यह समाचार अभियान जयपुर शहर में मोबाइल टॉवरों से होने वाले रेडिएशन और लोगों पर पड़ रहे उसके दुष्प्रभावों को लेकर शुरू किया गया था, जो बाद में राज्य भर में फैला और अन्तत: एक राष्ट्रव्यापी बहस का मुद्दा बना। मोबाइल कंपनियों की ओर से गली-गली में अंधाधुंध ढंग से लगा दिए गए उच्च क्षमता के ये टॉवर लोगों के स्वास्थ्य के साथ किस तरह खिलवाड़ कर रहे हैं, इसकी असलियत उजागर की गई। अलग-अलग गली-मोहल्लों में रेडिएशन का स्तर क्या है? उसका जन स्वास्थ्य पर क्या दुष्प्रभाव पड़ रहा है? विशेषज्ञ क्या कहते हैं? आम लोगों की क्या प्रतिक्रिया है? मोबाइल कंपनियों के प्रतिनिधियों का क्या कहना है? ये सभी मुद्दे तथ्यात्मक आंकड़ों व सम्पूर्ण ब्योरों के साथ एक समाचार अभियान के रूप में लगातार प्रकाशित किए गए। अभियान का लोगों पर असर पड़ा। लोग अपने-अपने गली-मोहल्लों और कॉलोनियों में निकलने लगे। रेडिएशन से प्रभावित लोग मुखर होकर बोलने लगे। मोबाइल टॉवरों के खिलाफ प्रदर्शन करने लगे। न केवल कॉलोनियों में एक ही इमारत पर लगे कई टॉवरों का विरोध हुआ, बल्कि स्कूलों, अस्पतालों आदि संवेदनशील जगहों पर लगे मोबाइल टॉवरों को तत्काल हटाने की मांग जोर पकडऩे लगी। अपने घर में लगे टॉवर को कुछ मकान मालिकों ने स्वयं ही हटवाने का निर्णय किया। कैंसर जैसे जानलेवा रोग और रेडिएशन के अंतरसंबंधों पर विशेषज्ञों के विचार सामने आए। जन विरोध को देखते हुए राज्य सरकार ने जांच कमेटी बनाई। दूसरी ओर शिक्षा मंत्री ने शिक्षण संस्थानों पर लगे टॉवर हटाने की घोषणा की।
इधर राजस्थान उच्च न्यायालय के आदेश से भी जांच कमेटी बनाई गई। केन्द्रीय दूरसंचार मंत्रालय ने न्यायालय में बाकायदा शपथ पत्र पेश करके घोषणा की कि वह सितंबर 2012 से मोबाइल टॉवरों के मौजूदा 4500 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर रेडिएशन को 10 गुणा घटा देगा। जयपुर शहर के नागरिकों से प्रेरित होकर राज्य के कई शहरों में मोबाइल टॉवरों के खिलाफ धरने-प्रदर्शन हुए और जन स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का माहौल बना। राज्य की सीमा से निकलकर यह अभियान देश के अन्य शहरों में भी फैला। अब यह एक राष्ट्रव्यापी अभियान बन चुका है। जयपुर शहर में यह अभियान नवम्बर 2011 में शुरू हुआ था। इसके बाद से अब तक यानी गत आठ माह से कोई नया टॉवर नहीं लग पाया। केन्द्र सरकार मोबाइल टॉवर स्थापित करने की सर्वमान्य नीति पर विचार कर रही है। माना जाता है, मोबाइल कंपनियां टॉवर स्थापित करने के मामले में विकासशील और विकसित देशों में अलग-अलग मापदंड अपनाती हैं। विकसित देशों में कम फ्रिक्वेंसी के टॉवर लगाए जाते हैं, ताकि उनसे निकलने वाले रेडिएशन का स्तर कम हो। कई यूरोपीय देशों ने इन टॉवरों की क्षमता तय कर रखी है, जिससे अधिक क्षमता का टॉवर लगाने की अनुमति नहीं है। भारत जैसे विकासशील देश में ऐसे प्रतिबंध नहीं है। लिहाजा मोबाइल कंपनियों ने इसका फायदा उठाकर उच्च क्षमता के टॉवरों का देश भर में जाल फैला दिया है। यह लोगों के स्वास्थ्य के साथ कैसा खिलवाड़ है? पत्रिका के अभियान ने नीति-निर्माताओं को भी सोचने पर विवश किया। जाहिर है, मोबाइल कंपनियों की इस अभियान पर अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं हुई है। उन्होंने टॉवरों से रेडिएशन को बेबुनियाद बताया और पत्रिका के समाचारों के विपरीत प्रचार अभियान चलाया, पर लोग भ्रमित नहीं हुए। आखिर रेडिएशन के दुष्परिणामों के वे भुक्तभोगी हैं। पत्रिका ने तथ्यों सहित सारी जानकारियां जुटाईं। यही कारण है कि इस मुद्दे से लाखों लोग जुड़े और यह राष्ट्रीय बहस का विषय बना। क्या बाजार की शक्तियों के हाथों की कठपुतली बनकर कोई मीडिया संस्थान ऐसा जनोन्मुखी कार्य कर सकता है? 'पत्रिका' ने सामाजिक सरोकार के ऐसे अनेक जनोन्मुखी कार्य किए हैं। बाजार के दबाव से ग्रस्त कोई मीडिया ऐसा शायद ही कर पाए।

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कार्टून, ज्यादती और मनमोहन सिंह


तीन साल पहले भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लाखों लोगों की जिन्दगियां बदलने वाला शख्स बताने वाली 'टाइम' पत्रिका ने लिखा, अर्थव्यवस्था के उदारीकरण में वैश्विक प्रशंसा पाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब सुधारों पर कड़े फैसले लेने के अनिच्छुक लगते हैं। 'टाइम' की यह स्टोरी भारतीय मीडिया में सुर्खियां बनी और लगभग सबने अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की।

इस बार हम पिछले दिनों मीडिया की सुर्खियों में रही कुछ घटनाओं पर चर्चा कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में माओवादियों से मुठभेड़ के नाम पर बस्तर के 17 आदिवासियों की मौत की घटना से रमन सिंह सरकार कठघरे में है। 'पत्रिका' ने शुरू से घटनाक्रम को प्रमुखता से उठाया। विभिन्न जांच एजेंसियां इस घटना की परतें उधेड़ रही हैं। राज्य सरकार सवालों से घिरी है। उससे जवाब देते नहीं बन रहा है। केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को अपना पूर्व बयान बदलकर खेद व्यक्त करना पड़ा।
एन.सी.ई.आर.टी. से जुड़ा कार्टून विवाद फिर सुर्खियां बना। इस बार विवाद का कारण इस मुद्दे पर बनी एस.के. थोराट कमेटी की वह सिफारिश थी, जिसमें पाठ्य-पुस्तकों से 21 कार्टून हटाने की बात कही गई। इस पर कई प्रमुख शिक्षाविदों ने आपत्तियां उठाईं। 'द हिन्दू' और 'इंडियन एक्सप्रेस' ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। परिणामत: एन.सी.ई.आर.टी. ने थोराट कमेटी की रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए केवल दो कार्टून हटाने का निर्णय किया। अमरीका की प्रतिष्ठित पत्रिका 'टाइम' में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर प्रकाशित कवर स्टोरी 'अंडर अचीवर' मीडिया में न केवल खबर का विषय बनी, बल्कि इस पर अच्छी-खासी बहस भी चल पड़ी।
'माओवादियों' से मुठभेड़!
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के कोरसागुड़ा गांव में 28-29 जून की रात को सुरक्षा बलों ने माओवादियों से मुठभेड़ के नाम पर 17 आदिवासियों की हत्या कर दी। प्रदेश में विपक्षी दल कांग्रेस ने इसे सामूहिक नरसंहार बताया और आदिवासी विधायक कवासी लखमा के नेतृत्व में जांच दल गठित किया। बताया गया कि जमीन के किसी विवाद को सुलझाने के लिए ग्रामीण एकत्रित हुए थे। पुलिस ने उन्हें चारों तरफ से घेरकर उन पर फायरिंग की। कांग्रेस के जांच दल की रिपोर्ट के अनुसार मारे गए 17 ग्रामीणों में 9 नाबालिग हैं। इनमें 7 तो 13 से 15 साल की उम्र के स्कूली बच्चे हैं। मृतकों में 2 स्कूली छात्राएं भी शामिल हैं। विपक्षी दल की रिपोर्ट सामने आई तो केन्द्र सरकार ने इस पूरे घटनाक्रम पर केन्द्रीय रिजर्व सुरक्षा बल से रिपोर्ट मांगी। सुरक्षा बल अपनी रिपोर्ट देता, उससे पहले ही दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस करके केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने घोषणा कर दी, 'कोरसागुड़ा की मुठभेड़ में मारे गए सभी माओवादी थे।' यही नहीं, उन्होंने इस घटना को अंजाम देने वाले पुलिस बल की तारीफ भी की।
'पत्रिका' ने सवाल उठाया कि रिपोर्ट मिले बगैर सभी मृतकों को माओवादी कहना और सुरक्षाबलों की पीठ थपथपाना कहां तक जायज है? लेकिन राज्य सरकार की तरह केन्द्र की आंख पर भी पर्दा पड़ा रहा। दूसरी तरफ, मानवाधिकार आयोग ने स्वत: प्रसंज्ञान लेते हुए सरकार से सम्पूर्ण घटनाक्रम की रिपोर्ट मांगी। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी पूरे घटनाक्रम को गंभीर माना और केन्द्र सरकार से निष्पक्ष जांच कराने तथा मानवाधिकार हनन के दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की। पीयूसीएल पीयूडीआर जैसे मानवाधिकार संगठनों ने अपने स्वतंत्र जांच दल गठित किए। अंतत: 4 जुलाई को चिदम्बरम ने इस घटना पर अफसोस जताया। दूसरी ओर, छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार अब भी दोषी पुलिसकर्मियों को बचाने और मामले पर पर्दा डालने की कोशिश में लगी है। निर्दोष ग्रामीणों और बच्चों की हत्याओं को आखिर सरकार कब तक छुपाकर रख पाएगी? बड़ा सवाल यह कि क्या ऐसी दुखद घटनाएं माओवाद को कुचल पाएंगी या उसे और जमीनी मजबूती देंगी?
थोराट कमेटी और कार्टून विवाद
अंबेडकर और नेहरू के कार्टून से उपजे विवाद के बाद सरकार की ओर से गठित एस.के. थोराट कमेटी ने एन.सी.ई.आर.टी. की नौवीं और ग्यारहवीं कक्षा की पाठ्य-पुस्तकों से 21 कार्टून हटाने की सिफारिश की। कमेटी की ओर से पाठ्य-पुस्तकों में प्रतिबंधित कार्टूनों में से कुछ कार्टून 'द हिन्दू' और 'इंडियन एक्सप्रेस' ने 4 जुलाई के अंक में प्रकाशित किए। एक्सप्रेस ने जहां पूरा पृष्ठ इस पर केन्द्रित किया, वहीं 'हिन्दू' ने प्रस्तावित प्रतिबंधित कार्टूनों के अलावा तीखा सम्पादकीय भी लिखा। एक बात स्पष्ट थी कि थोराट कमेटी की सिफारिश राजनेताओं को खुश करने के लिए है। इसका शैक्षणिक गुणवत्ता से कोई सम्बंध नहीं है। जिन कार्टूनों को पाठ्यपुस्तकों से हटाने की सिफारिश की गई, उनके बहुत ही लचर कारण बताए गए। जैसे, शेख अब्दुल्ला के जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बनने पर इंदिरा गांधी द्वारा उन्हें ताज पहनाना। इस कार्टून को हटाने की सिफारिश इसलिए की गई कि इससे प्रांतीय भावनाएं आहत होंगी। एक कार्टून में मतदान केन्द्र पर नेता मतदाता को हाथ जोड़कर कहता है—क्यों परेशान होते हो? जाओ तुम्हारा वोट तो हमने पड़वा दिया! यह कार्टून इसलिए हटाने की सिफारिश की कि इसमें राजनेताओं के विरुद्ध नकारात्मक संदेश है। इसी तरह के कारण गिनाते हुए कमेटी ने 21 कार्टून हटाने की सिफारिश कर दी।  विख्यात इतिहासज्ञ के.एन. पन्नीकर ने थोराट कमेटी की सिफारिशों को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए उसकी कड़ी आलोचना की। हैदराबाद विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अरुण के. पटनायक ने कमेटी की रिपोर्ट को गलत माना। इसी तरह मृणाल मिरी, जी.बी. देशपांडे और प्रो. एस.एस. पांडियन जैसे ख्याति प्राप्त शिक्षाविद् भी कमेटी की रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं। यहां तक कि एन.सी.ई.आर.टी. की निदेशक प्रवीण सिक्लेंर ने भी थोराट कमेटी की रिपोर्ट को अतार्किक बताया। और फिर अखबारों में खबरें छपीं कि एन.सी.ई.आर.टी. ने सिर्फ दो कार्टूनों को हटाने का निर्णय किया है। इनमें एक कार्टून अंबेडकर-नेहरू वाला है। दूसरा कार्टून हिन्दी विरोधी आन्दोलन से सम्बंधित है। निश्चय ही यह एक बेहतर निर्णय है। आखिर शैक्षणिक क्षेत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप की जरूरत ही क्या है?
'टाइम' की कवर स्टोरी
'टाइम' पत्रिका ने अपने 8 जुलाई के अंक में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को 'अंडर अचीवर' बताते हुए लिखा कि भारतीय अर्थव्यवस्था की गति बहुत सुस्त चाल से चल रही है, लेकिन प्रधानमंत्री कोई फैसले नहीं ले पा रहे। भ्रष्टाचार और घोटालों पर भी वे सख्त कदम नहीं उठा पा रहे हैं। विकास दर स्थिर है और महंगाई पर नियंत्रण नहीं हो रहा। तीन साल पहले डॉ. मनमोहन सिंह को लाखों लोगों की जिन्दगियां बदलने वाला शख्स बताने वाली 'टाइम' पत्रिका ने लिखा, अर्थव्यवस्था के उदारीकरण में वैश्विक प्रशंसा पाने वाले मनमोहन सिंह अब सुधारों पर कड़े फैसले लेने के अनिच्छुक लगते हैं। 'टाइम' की यह स्टोरी मीडिया में सुर्खियां बनी और सबने अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या की। समीक्षकों ने 'टाइम' के इस आकलन की आलोचना की और भारतीय मामलों में एक विदेशी पत्रिका का अनावश्यक दखल बताया। यह सही है कि मनमोहन सिंह पर कुछ टिप्पणियां की गईं। लेकिन यह भी सच है कि कोई नई बात नहीं कही गई। 'टाइम' ने प्रधानमंत्री के बारे में जो लिखा वह भारतीय मीडिया में लगातार छपता रहा है। ऐसे में, 'टाइम' की स्टोरी को अनावश्यक तूल देने की क्या जरूरत है?

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आमिर खान के टीवी 'शो' के बहाने

'सत्यमेव जयते' की कडिय़ों में अब तक जो मुद्दे उठाए गए, वे अलग-अलग मंचों पर कई बार उठाए जा चुके हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी इन पर कई-कई बार रोशनी डाली गई है। इसके बावजूद आमिर के शो में ताजगी है। दर्शक उसे पसंद कर रहे हैं।

अगर आप सामाजिक मुद्दों पर केन्द्रित आमिर खान का टीवी शो 'सत्यमेव जयते' देखते हैं तो आपने महसूस किया होगा, इसके एपिसोड दिल को छू जाते हैं और हमें सोचने को मजबूर कर देते हैं। आमिर अपने शो में जो मुद्दा उठाते हैं उसे दर्शकों का पूरा समर्थन मिलता है। एपिसोड में आमिर द्वारा प्रस्तुत किए गए वास्तविक पात्रों के साथ दर्शक तादात्म्य करते दिखाई पड़ते हैं। दर्शक इन पात्रों के साथ भावुक होते हैं, दुखी होते हैं और ठहाके मारकर हंसते भी हैं। अब तक जो विषय उठाए गए वे असरदार रहे। सोशल और मुख्यधारा के मीडिया में इन पर चर्चाएं हुईं। कन्या भ्रूण हत्या के मुद्दे को तो आश्चर्यजनक जन समर्थन मिला।
इसमें दो राय नहीं, 'सत्यमेव जयते' की कडिय़ों में अब तक जो मुद्दे उठाए गए, वे अलग-अलग मंचों पर कई बार उठाए जा चुके हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी इन पर कई-कई बार रोशनी डाली गई है। कन्या भ्रूण हत्या, बाल यौन शोषण, अन्तरजातीय विवाह, घरेलू हिंसा से लेकर बीते रविवार को उठाई गई युवाओं में शराबखोरी की लत जैसी सामाजिक समस्याएं पहली बार सामने नहीं लाई गईं। ब्रांडेड बनाम जेनेरिक दवाएं और जैविक खेती जैसे राष्ट्रीय मुद्दों पर भी मीडिया में निरन्तर बहसें प्रकाशित-प्रसारित होती रही हैं। इसके बावजूद आमिर के शो में ताजगी है। दर्शक उसे पसंद कर रहे हैं। सवाल यह है कि मीडिया में अनेक बार उठाए गए मुद्दों पर बना एक टीवी शो कैसे अपना असर छोडऩे में कामयाब है? अगर हम यह पड़ताल करें तो संभव है इसके निष्कर्ष युवा पत्रकारों के लिए फायदेमंद साबित हों। आइए, आमिर के इस शो के बहाने हम इस पर चर्चा करें।
कैसे शुरुआत करें?
किस विषय को कैसे उठाएं कि शुरुआत में ही स्पष्ट हो जाए कि समस्या क्या है। अखबार की भाषा में कहें तो यह इंट्रो है। आमिर फसलों में कीटनाशकों के घातक परिणाम बताना चाहते हैं। वे गृहणियों से पूछते हैं। आप जो ताजा फल और सब्जियां बाजार से खरीद कर लाई हैं, उनमें कीटनाशकों का जहर भी छुपा हो सकता है—क्या आप जानती हैं? इसी तरह युवाओं में शराब की लत को फोकस करने के लिए आमिर शुरुआत ही युवा दर्शकों से यह पूछकर करते हैं— क्या आप कभी-कभी या अक्सर शराब का सेवन करते हैं? युवाओं के हां कहने पर वे कारण पूछते हैं। कोई बताता है—मस्ती के लिए तो कोई और कारण बताता है। आमिर सभी को मिलाकर एक निष्कर्ष की तरफ बढ़ते हैं कि कैसे कभी-कभी शराब पीना एक लत बन जाती है, जो आखिर में एक बीमारी का रूप धारण कर लेती है। ताजा फल और सब्जियों का उदाहरण देकर आमिर न केवल कीटनाशकों के घातक दुष्परिणामों को सामने लाते हैं, बल्कि जैविक खेती की उपयोगिता और विशेषताओं को भी प्रभावी ढंग से उजागर करते हैं।
प्रमाणित करें
किसी भी मुद्दे को अगर प्रामाणिक ढंग से उठाया जाए तो उसका असर जरूर होता है—यह भी 'सत्यमेव जयते' से सीखा जा सकता है। आमिर केवल नैतिक उपदेश या भाषण नहीं देते—वे समस्याओं को प्रामाणिक ढंग से आपके सामने रखते हैं। हमारे देश में निशक्त जन की आबादी और उनकी समस्याओं को उन्होंने इसी तरह अपने शो में रखा। एक उदाहरण देखिए—'सरकार कहती है, हमारी जनसंख्या का 2 फीसदी हिस्सा निशक्त है। ज्यादातर विशेषज्ञ और गैर सरकारी संगठन इस आंकड़े को 6 फीसदी तक बताते हैं। मैं सोचता हूं कि देश के विभिन्न हिस्सों में निशक्त जनों का यह आंकड़ा 6 से 10 फीसदी के बीच हो सकता है। मान लेते हैं कि यह 8 फीसदी है। 1.20 अरब जनसंख्या का 8 फीसदी यानी 9.6 करोड़ लोग। यह जनसंख्या इंग्लैंड की जनसंख्या (5.1 करोड़), फ्रांस की जनसंख्या (6.5 करोड़) और जर्मनी की जनसंख्या (8 करोड़) से भी ज्यादा है।' आमिर सवाल उठाते हैं— 'क्या हम अपनी 9.6 करोड़ आबादी को अशिक्षित, बेरोजगार और अनुत्पादक बने रहना चाहते हैं?' निश्चय ही भारत में निशक्तजन की समस्याओं को आमिर न केवल प्रामाणिकता देते हैं, बल्कि आम जन को उनके प्रति सोचने को मजबूर भी करते हैं। आमिर अपने शो की विभिन्न कडिय़ों में यही तरीका अपनाते हैं। वे खेती में कीटनाशकों का निर्माण करने वाली कंपनियों के तर्कों को खारिज करते हैं। वे कीटनाशकों के व्यापार का खोखलापन उजागर करते हुए आंकड़ों का सहारा लेते हैं— 'कीटनाशक की 1 प्रतिशत मात्रा ही कीटों को मारने के काम आती है। शेष 99 प्रतिशत भोजन के जरिए हमारे शरीर में पहुंचते हैं।' बेशक आमिर आंकड़ों और तर्कों के लिए विशेषज्ञों का सहारा लेते हैं, परन्तु विषय को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने के सभी उपाय करते हैं।
संवेदनाओं को छूएं
आमिर में एक रूखे विषय को भी भावनाओं के स्पर्श से सरस बना देने की खूबी है। जब आप आंकड़ों और तथ्यों का जाल बुनते हैं तो दर्शक या पाठक उसमें उलझकर असली समस्या से दूर चला जा सकता है। आमिर अपने दर्शकों को मूल मुद्दे से तनिक भी भटकने नहीं देते। इसके लिए वे संवेदनाओं का सहारा लेते हैं। जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं के व्यापार की पोल वे विभिन्न दवाओं की कीमतों में तुलनात्मक अन्तर से बखूबी खोल देते हैं। (20 पैसे की एक गोली ब्रांडेड बनाकर साढ़े 12 रुपए में बेची जाती है।) पर वे एक भावनात्मक तथ्य पर लोगों का ध्यान खींचते हैं— 'किसी लाइलाज बीमारी से अपने बच्चे को लड़ते देखना और उसकी मृत्यु हो जाना एक दुखदायी और कटु सत्य है। खासकर जब हम एक लाइलाज बीमारी के सामने कुछ भी कर पाने में असमर्थ हों। पर, यदि किसी बीमारी का इलाज मौजूद हो और इलाज का खर्च वहन न कर पाने के कारण मेरा बच्चा मर जाए तो यह अकल्पनीय त्रासदी है।'
गहन अध्ययन करें
किसी मुद्दे की तह में जाने के लिए आपको उसके सारे पक्षों को खंगालना पड़ेगा। विषय के सभी अच्छी-बुरे पहलुओं को समझाना होगा। फिर उसे तर्क की कसौटी पर परखना होगा। तभी किसी मुद्दे पर संतुलित दृष्टिकोण रखा जा सकता है। आमिर जब प्रेम-विवाह और अपनी पसंद के जीवन-साथी का मुद्दा उठाते हैं तो युवाओं की पसंद को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन वे माता-पिता की सीख और अनुभवों की भी अनदेखी नहीं करते। वे कहते हैं— 'मेरा मानना है कि बड़ों की सलाह में दम होता है और निश्चित रूप से युवाओं को उनकी सलाह का इस्तेमाल करना चाहिए।' इसी तरह महंगी दवाओं वाले एपिसोड में आमिर समस्या की तह में जाते हैं। आखिर दवाओं का यह महंगा व्यापार क्यों फल-फूल रहा है? जन स्वास्थ्य का विषय जन कल्याणकारी सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में होना चाहिए। लेकिन सरकार हमारी जीडीपी की मात्र 1.4 फीसदी राशि ही जन स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवंटित कर रही है। आमिर एक सेलेब्रिटी हैं। उनके पास किसी मुद्दे पर शोध के लिए एक टीम है। टीम सभी संसाधनों से परिपूर्ण है। इसलिए जो काम आमिर खान कर सकते हैं, वह एक सामान्य पत्रकार नहीं कर सकता। इसमें काफी हद तक सच्चाई भी है। इसके बावजूद उनका यह शो किसी मुद्दे को उठाने की खास शैली, उसके प्रति संतुलित दृष्टिकोण तथा पूरी तैयारी और सजगता को जाहिर करता है, जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। खासकर, तब जब हम एक्सक्लूसिव स्टोरी या विशेष रिपोर्ट तैयार करते हैं।

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फैसला शानदार, लागू हो पूरे देश में

टिप्पणी
 गेहूं की बर्बादी पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जो सख्त रुख अपनाया है उसकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। कोर्ट की लखनऊ बेंच का यह आदेश कि जिन अधिकारियों की वजह से अनाज सड़ता है, उनके वेतन से इस नुकसान की भरपाई की जानी चाहिए— पूरे देश के गैर-जिम्मेदार अधिकारियों के लिए एक नजीर है।
गेहूं की बर्बादी पर कोर्ट अनेक बार चिन्ता जाहिर कर चुका है। देश की सर्वोच्च अदालत तक कह चुकी है कि अनाज बर्बाद करने से अच्छा यह है कि उसे गरीबों में मुफ्त बांट दिया जाए। लेकिन न तो सरकार और न ही अधिकारियों ने न्यायालय के निर्देशों की परवाह की। उल्टे केन्द्र सरकार ने उपेक्षापूर्ण रुख अपनाया और बेशर्मीपूर्वक कह दिया कि नीतिगत रूप से यह सही नहीं होगा कि लोगों को मुफ्त में अनाज बांट दिया जाए। लगता है सरकार और उसके कारिन्दों की जनता के प्रति न तो कोई जवाबदेही है और न ही परवाह। उन्हें अपने वेतन-भत्तों और सुख-सुविधाओं के सिवा कुछ सूझता ही नहीं। इलाहाबाद न्यायालय ने यह आदेश एक जनहित याचिका पर दिया जिसमें कहा गया कि लखीमपुर खीरी में एक हजार बोरियों से ज्यादा गेहूं बारिश की वजह से सड़ गया। बारिश से गेहूं सड़ जाने के ऐसे समाचार राजस्थान हो या मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ हो या पश्चिम बंगाल देश के हर राज्य से मिलते हैं। और हर साल मिलते हैं। यानी लाखों टन गेहूं सिर्फ इसलिए बरबाद हो जाता है कि उसे रखने के लिए सरकार के पास जगह नहीं है। कृषि प्रधान देश में इससे बड़ी कोई विडम्बना नहीं हो सकती कि अच्छी मात्रा में पैदा हुए अन्न को रखने के लिए भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है।
कुछ समय पहले ही सरकार ने संसद में सदस्यों के चिन्ता जाहिर करने पर आश्वस्त किया था कि गेहूं के भंडारण की समुचित व्यवस्था की जाएगी। लेकिन सरकार का यह वादा खोखला साबित हुआ। इसका प्रमाण है कि मानसून पूर्व बारिश के दौरान ही जगह-जगह से गेहूं की बोरियां भीगकर सडऩे के समाचार मिलने लगे और अब तक हजारों टन अनाज सड़ चुका है। जिस देश में ३०-३५ करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी नसीब न हो, वहां ऐसे हालात दयनीय हैं। होना तो खुश चाहिए कि इस बार लक्ष्य से ज्यादा अनाज का उत्पादन हुआ, लेकिन दिल रोने को कर रहा है। क्योंकि हमारी आंखों के सामने अनाज बरबाद हो रहा है। दरअसल, भंडारण की व्यवस्था तो एक आड़ है जिसे देश की नाकारा नौकरशाही ने जानबूझाकर ओढ़ रखी है। सारी दिक्कत अधिकारियों के कुप्रबंधन की है। पिछले साल यूपी के भंडारागार निगम के ११ में से ६ गोदाम एक निजी कंपनी को किराए पर दे दिए गए थे, जिसमें उसने कोल्ड ड्रिंक, सिगरेट और शराब की बोतलें भंडारित कर रखी थीं। दूसरी तरफ गेहूं बाहर सड़ रहा था। कमोबेश ऐसे हालात सभी राज्यों में हैं। अधिकारियों की अन्न के प्रति यह बेकद्री इसलिए है कि उनके पेट भरे हुए हैं। अनाज सडऩे पर उनसे कोई सवाल नहीं पूछता। सरकार और उसके मंत्री सोए हुए हैं। उल्टे वे भ्रष्ट और लापरवाह अधिकारियों को प्रश्रय ही देते हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उनकी नींद उड़ाने वाला साबित होगा। देश भर में यही हालात हैं, ऐसे में इलाहाबाद कोर्ट का यह फैसला देश के सभी राज्यों पर लागू होना चाहिए। नुकसान की भरपाई जब अधिकारियों के वेतन से होगी, तब आप देखिएगा कि कैसे अनाज की हिफाजत होती है और कैसे गेहूं की बोरियां सुरक्षित रहती हैं। सड़ा हुआ अनाज शराब बनाने के काम भी आता है, जो शराब कंपनियों को नीलामी में बेचा जाता है। कहीं यह सब भ्रष्ट अफसरों और शराब कंपनियों की मिलीभगत का खेल तो नहीं— इसकी तहकीकात की भी जरूरत है।

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