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गरीबों से खिलवाड़


टिप्पणी 

गरीबों को सस्ता गेहूं मुहैया कराने के सरकारी दावे की पोल एक बार फिर खुल गई। मरे जानवर जैसी बदबू वाला सड़ा हुआ गेहूं रविवार रात जब ट्रेन से जयपुर के कनकपुरा रेलवे स्टेशन पहुंचा, तो सड़ांध के मारे जी मिचलाने लगा। यह गेहूं  53 हजार कट्टों में पंजाब से आया था और फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया के गोदाम में भरा जा रहा था। 'पत्रिका' में सड़े गेहूं के कट्टों का फोटो व खबर छपने के बाद एफसीआई के अफसर लीपापोती कर रहे हैं। दरअसल, एफ.सी.आई. का ऐसे मामलों में यही तर्क होता है कि सड़ा हुआ अनाज लोगों में नहीं बांटा जाता। इसे वे 'नान इश्यू व्हीट' के खाते में डाल देते हैं। अव्वल तो इस बात का कोई भरोसा नहीं कि सड़ा गेहूं लोगों को नहीं बांटा जाता। मीडिया में अगर खबर नहीं आई होती, तो गेहूं चुपचाप न केवल गोदाम में भर दिया जाता, बल्कि लोगों के घरों में भी पहुंच जाता तो कोई आश्चर्य नहीं और यह मान भी लिया जाए कि कार्पोरेशन के अफसर इतने सतर्क हैं कि वे सड़े गेहूं को बांटने नहीं देते, तो सैकड़ों कट्टों को गोदाम में रखा क्यों जा रहा था? अधिकांश कट्टों की हालत इतनी खराब थी कि वह बाहर पड़े रहते तो जानवर भी उनमें मुंह नहीं मारते। यह जनता के साथ धोखा है। इस गेहूं का आटा लोगों तक पहुंच जाता तो? उनके स्वास्थ्य के साथ अक्षम्य खिलवाड़ होता। गरीबों को दो जून की रोटी नसीब नहीं। लेकिन खाये-अघाये अफसरों को कोई फिक्र नहीं। सड़ता है तो सड़े अनाज! उनकी तनख्वाह पक्की! अनाज की ऐसी दुर्गति अक्सर क्यों होती है, कोई पूछने वाला नहीं। यह कैसा राज है? एक तरफ देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून लाने की तैयारी की जा रही है और दूसरी ओर ऐसे नारकीय दृश्य। आखिर कोई तो इसके लिए जिम्मेदार होगा? सरकार को तत्काल जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक मामला दायर करना चाहिए। राज्य सरकार भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। खाद्य विभाग का सतर्कता दस्ता क्या कर रहा था? सड़ा हुआ अनाज गोदाम तक पहुंचना भी गंभीर मामला है। लापरवाही चाहे एफसीआई के अफसरों की रही हो, ऐसा अनाज ट्रेन से जयपुर में उतरना ही नहीं चाहिए था। मामले की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि राज्यपाल को दखल करना पड़ा है।

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तो अब 'डेड न्यूज'भी!

नवीन जिन्दल पहले से ही कठघरे में हैं। जिस तरह जी-न्यूज पर आरोप लगाकर नवीन जिन्दल बरी नहीं हो सकते, वैसे ही जिन्दल पर आरोप लगाकर न्यूज चैनल बरी नहीं हो सकता। जी-न्यूज कोल ब्लॉक्स आवंटन से जुड़ी भ्रष्टाचार की खबरें निरन्तर दिखा रहा था। तभी जी-न्यूज पर यह दुर्भाग्यपूर्ण आरोप लगा कि यह धंधे का हिस्सा था। दुर्भाग्य कि बचाव में जी-न्यूज लचर दलीलें दे रहा है।

खबरों के शौकीन पाठकजी उस दिन बेचैन नजर आए। दो-तीन बार उनका फोन आ चुका था। उन्हें खबरों की चीर-फाड़ किए बगैर चैन नहीं पड़ता। खबरों पर टीका-टिप्पणियां करना और बिन मांगे सलाह देना उनका शौक है। मीडिया सम्बंधी खबरों पर वे पैनी नजर रखते हैं। अक्सर वे मुझासे फोन पर ही बात करते हैं। वे जी-न्यूज- नवीन जिन्दल प्रकरण पर कुछ कहने के लिए उतावले हो रहे थे।
फिर घंटी बजी। इस बार उनसे बात हुई। वे छूटते ही बोले, 'अब तक मीडिया नेताओं का स्टिंग करता था। अब ये नेता लोग मीडिया का स्टिंग करने लगे हैं। कैसा रहा रिवर्स स्टिंग?'
मैं कुछ कहता, उससे पहले वह बोल पड़े, 'पैसा लेकर खबर छापने की बात तो सुनी थी। पैसा लेकर खबर रोकने की बात पहले कभी नहीं सुनी। आपने सुनी क्या? आपको जी-न्यूज के स्पष्टीकरण पर भरोसा हुआ?'
मेरा जवाब सुनने की उन्हें फुरसत नहीं थी। वह बोलते चले गए, 'जी-न्यूज के संपादक ने जो कहा उस पर कौन यकीन करेगा। माना नवीन जिन्दल फंसे हुए हैं। लेकिन आज के जमाने में ऐसा नासमझा कौन होगा, जो अपने खिलाफ खबर रुकवाने के लिए किसी एक न्यूज चैनल से 'सौदा' करेगा? वो भी तब, जब सारे न्यूज चैनल और अखबार उसके खिलाफ खबरें दे रहे हों... देश का सबसे बड़ा घोटाला (कोल ब्लॉक्स आवंटन) हुआ हो... इस घोटाले पर कैग की रिपोर्ट जग-जाहिर हो चुकी हो... रिपोर्ट में कांग्रेस सांसद नवीन जिन्दल की कंपनी का नाम भी शामिल हो... तो कौन मासूम होगा, जो केवल एक मीडिया ग्रुप से सौदेबाजी की कोशिश करेगा? क्या जी-न्यूज के चुप होने पर सारा मीडिया भी खामोश होकर बैठ जाता?' इतने सारे सवाल दागने के बाद जवाब सुनने की पाठकजी को कोई दिलचस्पी नहीं थी। अपनी बात कहकर उन्हें चैन आ चुका था। उपसंहार करते हुए अंत में वे चुटकी लेने से बाज नहीं आए, 'पेड न्यूज के बाद अब मीडिया की नई ईजाद है 'डेड न्यूज'! यह पेड न्यूज से आगे का मामला है भाई। है कि नहीं? अच्छा तो नमस्कार।' कह कर उन्होंने फोन बंद कर दिया।
भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में १ लाख ८६ हजार करोड़ रुपए के कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में सांसद व उद्योगपति नवीन जिन्दल की कंपनी जे.एस.पी.एल. का नाम भी शामिल है। मीडिया में खबरें आ रही थीं। इसी बीच गत २५ अक्टूबर को नवीन जिन्दल ने एक प्रेस कान्फ्रेंस में समाचार चैनल जी-न्यूज पर काफी संगीन आरोप लगाया। जिन्दल ने अपनी कंपनी द्वारा कराए गए स्टिंग ऑपरेशन का खुलासा किया। कहा, कंपनी से जुड़ी कोल ब्लॉक की खबरें नहीं दिखाने के बदले चैनल ने उनसे १०० करोड़ रुपए मांगे थे। प्रेस कांफ्रेंस में जी-न्यूज प्रमुख सुधीर चौधरी व जी-बिजनेस चैनल के समीर अहलूवालिया से हुई बातचीत का टेप भी जारी किया गया। जिन्दल का आरोप था कि दोनों चैनल सहित डीएनए अखबार में खबरें रोकने के नाम पर 20 करोड़ की राशि मांगी गई थी, जो बाद में 100 करोड़ तक पहुंच गई। जी- न्यूज प्रतिनिधियों ने जिन्दल के आरोप खारिज किए। कहा, वे तो उल्टे जिन्दल की कंपनी की पोल खोलना चाहते थे कि वह अपने खिलाफ खबरें रुकवाने के लिए किस हद तक जाने को तैयार थी। जी-न्यूज ने नवीन जिन्दल पर १५० करोड़ रुपए की मानहानि का नोटिस भी दिया है।
इस प्रकरण की आमजन में कैसी प्रतिक्रिया है, पाठकजी के फोन से इसकी कुछ झालक मिल जानी चाहिए। आम जनता की जिस तरह राजनेताओं पर पैनी नजर है, उसी तरह मीडिया पर भी है। उसकी निगाहों में धूल झाोंकने की कोशिश निरर्थक है।  जिन्दल की कंपनी ने किस तरह कोयला खदान हथियाई, यह कैग की रिपोर्ट के बाद मीडिया में आई रिपोर्टों में जाहिर हो चुका है। नवीन जिन्दल पहले से ही कठघरे में हैं। जिस तरह जी-न्यूज पर आरोप लगाकर नवीन जिन्दल बरी नहीं हो सकते, वैसे ही जिन्दल पर आरोप लगाकर न्यूज चैनल बरी नहीं हो सकता। जी-न्यूज कोल ब्लॉक्स आवंटन से जुड़ी भ्रष्टाचार की खबरें निरन्तर दिखा रहा था। दर्शक उसकी साहसपूर्ण खबरों की प्रशंसा कर रहे थे। तभी जी-न्यूज पर यह दुर्भाग्यपूर्ण आरोप लगा कि यह सब धंधे का हिस्सा था। दुर्भाग्य की बात यह भी कि बचाव में जी-न्यूज लचर दलीलें दे रहा है। जो प्राथमिक तथ्य सामने आए हैं, उनके मद्देनजर न्यूज चैनल पर कौन भरोसा करेगा? क्यों करेगा? जब आप रंगे हाथ पकड़े जा चुके हों। अगर आपको नवीन जिन्दल की कंपनी का भ्रष्टाचार दिखाना था तो २० करोड़ की पेशकश ही काफी थी। उसे १०० करोड़ तक ले जाने की क्या जरूरत थी? और अगर जी-न्यूज और जी-बिजनेस के हैड जिन्दल की कंपनी से विज्ञापन की कोई डील कर रहे थे, तो सवाल उठता है कि इसकी जरूरत उस वक्त क्यों थी, जब आप कंपनी के खिलाफ लगातार खबरें दिखा रहे थे? न्यूज चैनल आसानी से नहीं छूट पाएगा। जिन्दल की कंपनी ने बाकायदा चैनल के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई है। आरोप में दम नहीं होता तो न्यूज चैनलों की संस्था ब्रॉड कास्टिंग एडिटर एसोसिएशन(बीईए) जी-न्यूज के सुधीर चौधरी की सदस्यता रद्द नहीं करती। आरोपों के बाद बीईए ने छानबीन करने के लिए तीन सदस्यों की समिति बनाई थी। समिति की रिपोर्ट के बाद बीईए ने यह फैसला किया। सुधीर चौधरी बीईए के कोषाध्यक्ष भी थे। हालांकि बीईए के फैसले पर सुधीर चौधरी ने अपना विरोध दर्ज कराया है, लेकिन जो दाग लग चुका है उसे हटाने की जरूरत है। यह तभी संभव है, जब आप अपने पाक-साफ होने का प्रामाणिक सबूत भी पेश करें। यह इसलिए भी जरूरी है कि इस घटना ने पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों को बहुत क्षति पहुंचाई है। ऐसे तो पत्रकारिता का उद्देश्य खत्म हो जाएगा।
वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने लिखा, 'जब भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीति को हिला रहा है, वही भ्रष्टाचार अगर मीडिया में आ जाए तो सत्ता और सरकार का काम और आसान हो जाएगा' ऐसी स्थिति में आम आदमी का क्या होगा? जिसकी पैरवी करने की मीडिया पर अहम जिम्मेदारी है।

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खोजी पत्रकारिता का हाल

मीडिया ने अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से उठाया है। छिपे हुए मामलों, प्रकरणों और घोटालों का पर्दाफाश किया है। स्टिंग ऑपरेशनों ने भ्रष्टाचारियों और आतताइयों की पोल खोली है। इसलिए मीडिया से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं। इसलिए मीडिया का काम जब कोई दूसरा करता है, तो उसकी भूमिका और सार्थकता को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।

उस दिन सुबह-सुबह एक फोन आया। आवाज में झाल्लाहट थी— 'महोदय, क्या देश में खोजी पत्रकारिता खत्म हो चुकी है?'
अचानक दागे गए प्रश्न पर मैं हैरानी से इतना ही बोल पाया—
'क्यों, क्या हुआ भाई?'
'क्या हुआ??' उसने गहरी सांस भरी— 'लगता है आप भी सोये हुए हैं।' आवाज में व्यंग्य का पुट भी था— 'क्या सारे बड़े कांड, घपले-घोटालों का भंडाफोड़ करने का काम अब मीडिया ने आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं के हवाले कर दिया है?'
अब तक मैं संभल चुका था। लेकिन उसने मुझो फिर बोलने का अवसर नहीं दिया। सवालों का हमला जारी था—
'पहले 70 हजार करोड़ का सिंचाई घोटाला, जिसमें एक उप मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। और अब 'देश के दामाद' की करोड़ों की काली कमाई, जिसने सरकार को हिला कर रख दिया। किसने उजागर किए? क्या यह सच्चाई नहीं, अंजली दमानिया या अरविन्द केजरीवाल 'बड़े लोगों के बड़े कारनामे' उजागर कर रहे हैं और पूरा मीडिया फॉलोअप कर रहा है?'
अन्त में वह फिर व्यंग्य करने से बाज नहीं आया— 'महोदय, असली खबरें तो इन लोगों के पास हैं।'
फोन बंद हो चुका था, पर उसने एक ऐसे मुद्दे पर हाथ रखा था, जो संभवत: अनेक लोगों के जेहन में भी कौंध रहा होगा। तो क्या सचमुच खोजी पत्रकारिता दम तोड़ रही है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों के दौरान देश को झकझोरने वाले भ्रष्टाचार के जितने भी बड़े मामले उजागर हुए उनमें मीडिया का योगदान नहीं था। कम-से-कम प्रारम्भिक उद्घाटनों में तो नहीं था। आप जानते हैं आदर्श हाउसिंग स्कीम, कॉमनवेल्थ खेल, 2 जी स्पैक्ट्रम से जुड़े घोटाले तो लोगों को रट चुके हैं। फिर आए कोयला आवंटन, महाराष्ट्र सिंचाई परियोजना और रॉबर्ट वाड्रा से जुड़े मामले, ये सब या तो कैग की रिपोर्टों से सामने आए या सीवीसी की रिपोर्ट से। या फिर आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं ने उजागर किए। कई मामले उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद खुल सके।
रॉबर्ट वाड्रा का मामला तो और भी संगीन है। करीब डेढ़ वर्ष पहले एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित होने के बावजूद इसे एक मुद्दे के रूप में खड़ा करने का श्रेय मीडिया की बजाय अरविन्द केजरीवाल को प्राप्त हुआ। रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों के कारनामों पर 'द इकनोमिक्स टाइम्स' ने मार्च, 2010 में ही एक रिपोर्ट प्रकाशित कर दी थी। मीडिया इसका फॉलोअप नहीं कर सका। जानबूझकर या अनजाने में—यह अलग मसला है। आज यह सवाल हर कोई पूछना चाहेगा कि केजरीवाल से ज्यादा साधन-सम्पन्न और सक्षम होने के बावजूद मीडिया पीछे क्यों रहा? क्यों मीडिया इतने भर से संतुष्ट है कि उसे एक बनी-बनाई खबर मिल गई? जो काम केजरीवाल ने आज किया, वह काम मीडिया डेढ़ साल पहले ही नहीं कर सकता था? मीडिया पर और भी कई प्रश्नचिक्ष लग रहे हैं। क्या मीडिया शक्तिसम्पन्न और प्रभावशाली लोगों के बारे में सीधे तौर पर मुद्दे उठाने से बच रहा है? या फिर उसकी खोजी अन्तर्दृष्टि खत्म होती जा रही है? आज मीडिया से लोग यह जानना चाहते हैं कि वह खोजी पत्रकारिता कहां है, जो स्वयं पहल करके दस्तावेजों का पड़ताल करती थी। विश्लेषण करके निष्कर्ष निकालती थी। दूर-दराज के इलाकों में जाकर धूल फांकती थी और तथ्यों का स्वयं सत्यान्वेषण करती थी।
मीडिया ने अनेक महत्वपूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से उठाया है। कई छिपे हुए मामलों, प्रकरणों और घोटालों का जनहित में पर्दाफाश किया है। भागलपुर का आंखफोड़ कांड, नेल्ली का नरसंहार, बोफोर्स कांड, हथियारों की दलाली, रिश्वत लेकर संसद में प्रश्न पूछने से लेकर सामाजिक अन्याय व उत्पीडऩ और मानवाधिकार हनन के अनेक महत्वपूर्ण प्रकरण उजागर किए हैं। कई स्टिंग ऑपरेशनों ने भ्रष्टाचारियों, बाहुबलियों और आतताइयों की पोल खोली है। इसलिए मीडिया से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं। आम जनता की भलाई और सेवा के लिए बनी हुई सरकारें हकीकत में कर क्या रही हैं, यह लोगों को मीडिया से बेहतर और कौन बताएगा? इसलिए मीडिया का काम जब कोई दूसरा करता है, तो उसकी भूमिका और सार्थकता को लेकर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
सुबह-सुबह उस दिन मुझे जिस फोन ने जगाया वह मीडिया के प्रति इसी जनमानस की अभिव्यक्ति थी। यह अजीब मगर सुखद संयोग ही था इस घटना के तीन दिन बाद ही खोजी पत्रकारिता के दो महत्वपूर्ण उदाहरण मीडिया ने पेश किए। इंडिया टीवी ने 20-20 क्रिकेट में छह अम्पायरों को मैच फिक्सिंग की बात कबूलते हुए कैमरे में कैद किया। इन छहों अम्पायरों को जांच पूरी होने तक अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने निलम्बित कर दिया। जो अम्पायर खेल नियमों का पालन करने के जिम्मेदार थे, वे पहली बार मैच फिक्सिंग के आरोपी बने। फिर 'आज तक' ने स्टिंग के जरिए केन्द्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद की पोल खोली। आरोप है कि उनकी संस्था जाकिर हुसैन मेमोरियल ट्रस्ट ने विकलांगों के नाम पर अफसरों के जाली हस्ताक्षर कर 71 लाख रु. हजम कर लिए। सलमान खुर्शीद इस संस्था के अध्यक्ष तथा उनकी पत्नी लुइस खुर्शीद परियोजना निदेशक हंै। इस खुलासे के बाद देश के कानून मंत्री की खासी किरकिरी हुई। वे सफाई दे रहे हैं, लेकिन लोगों को उनकी सफाई शायद ही रास आए। जो सच्चाई कैमरे में कैद हुई, उसे झाुठलाना आसान नहीं।
बात फिर खोजी पत्रकारिता की। मीडिया गाहे-बगाहे अपनी भूमिका निभा रहा है। लेकिन वो नहीं, जिसकी उससे उम्मीद की जाती है। फस्र्ट पोस्ट डॉट कॉम के सम्पादक आर. जगन्नाथन के अनुसार— 'मीडिया राजनेताओं, उद्योगपतियों, मंत्रियों और नौकरशाहों के प्रति इतना नरम क्यों है? राजनेताओं से मीडिया फिर भी सवाल कर लेता है, लेकिन उद्योगपतियों, खासकर बड़े और शक्तिशाली व्यवसायियों को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करता।' मीडिया के भविष्य को लेकर सजग व्यक्ति आज यही चिन्ता करता नजर आता है।

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समाचार अभियान और सरकार

शायद ही ऐसा कभी हुआ कि अतिक्रमण, अवैध निर्माण व आवंटन के लिए जिम्मेदार अफसरों का कुछ बिगड़ा हो। अफसर क्यों जान-बूझाकर आंखें मूंदे रहते हैं? अतिक्रमण ढहाकर अतिक्रमणकारी को सजा मिल जाती है, तो इसके लिए कसूरवार अफसर का क्यों बाल भी बांका नहीं होता? सरकार से मोटी तनख्वाह व सुख-सुविधाएं पाने वाला अफसर अपनी जिम्मेदारी में विफल रहकर क्यों साफ बच निकलता है?

मीडिया अपनी प्रभावी भूमिका को किस तरह निभा सकता है— इसके उदाहरण 'पत्रिका' के अभियान हैं। महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर ये अभियान चलाए जाते रहे हैं। पाठकों को याद होगा, पिछले दिनों मोबाइल टॉवरों को लेकर जो अभियान छेड़ा गया, वह देशव्यापी मुद्दा बना। हाल ही एक और अभियान रंग लाया, 'लौटे अमानीशाह का अतीत।'
कहने को यह जयपुर शहर के एक नाले में अतिक्रमण से जुड़ा मुद्दा है, परन्तु इसका प्रतीकात्मक महत्व व्यापक है। नाले में बनी एक बड़ी कंपनी की नौ मंजिल इमारत का बड़ा हिस्सा बारूद से उड़ा दिया गया। राज्य में ऐसा पहली बार हुआ। कार्रवाई उच्च न्यायालय के आदेश से हुई। लेकिन नदी-नालों के प्राकृतिक प्रवाह को अवरुद्ध करने वाले इन अतिक्रमणों के विरुद्ध जो अभियान छेड़ा गया था, उसने भूमाफिया, भ्रष्ट अफसरों व राजनेताओं की चूलें हिला दी। नाले में रसूखदारों के कुछ और अतिक्रमण भी हटाए गए। शहर के बीच से निकल रहा यह प्राचीन नाला भारी बारिश से उफन पड़ा था। अतिक्रमणों के अवरोध से पानी का प्रवाह बाधित हुआ। बारिश लगातार हो जाती, तो यह नाला तबाही का कारण बन जाता। इस खतरे को भांपकर ही पत्रिका ने अभियान शुरू किया था।
न्यायालय के आदेश और पत्रिका के अभियान से उभरे अतिक्रमण के विरुद्ध जनाक्रोश के दबाववश सरकारी एजेंसियां सक्रिय हुईं। अफसरों ने आनन-फानन कुछ कार्रवाइयां कीं। बहुत कुछ करना अभी बाकी है। भ्रष्ट नौकरशाही पर अंगुलियां उठीं। राजस्थान उच्च न्यायालय ने उन पर तल्ख टिप्पणियां की। जब भी ऐसा माहौल बनता है, अतिक्रमियों के विरुद्ध अभियान छिड़ जाता है। लेकिन चपेट में अक्सर गरीब जनता ही आती है, लेकिन इस बार कुछ रसूखदार भी चपेट में आए। शायद ही ऐसा कभी हुआ कि अतिक्रमण, अवैध निर्माण व आवंटन के लिए जिम्मेदार अफसरों का कुछ बिगड़ा हो। अफसर क्यों जान-बूझकर आंखें मूंदे रहते हैं? अतिक्रमण ढहाकर अतिक्रमणकारी को सजा मिल जाती है, तो इसके लिए कसूरवार अफसर का क्यों बाल भी बांका नहीं होता?
सरकार से मोटी तनख्वाह व सुख-सुविधाएं पाने वाला अफसर अपनी जिम्मेदारी में विफल रहकर क्यों साफ बच निकलता है? ये सवाल अब सब तरफ उठने लगे हैं। उच्च न्यायालय ने तो साफ कह दिया—जिसका निर्माण टूटे उसे अफसरों से पैसे दिलाओ। न्यायालय की चिन्ता गरीबों को लेकर खास तौर पर है। पिछले दिनों रामगढ़ बांध के बहाव क्षेत्र में अतिक्रमण पर सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने मौखिक टिप्पणी की — अतिक्रमण होते समय तो अधिकारी सोते हैं। लापरवाही अफसर करता है, तलवार जनता पर लटकती है। अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम नौकरशाही सवालों के घेरे में है। भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाही का गठबंधन शायद इतना ताकतवर है कि सचमुच इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता।
अमानीशाह के मामले को ही ले लीजिए। चारों तरफ से कठघरे में खड़े होने के बावजूद अभी तक नौ मंजिला इमारत के मामले में किसी अफसर के विरुद्ध कुछ नहीं हुआ। राज्य के नगरीय विकास मंत्री शान्ति धारीवाल ने घोषणा की— 'सरकार की मंशा है कि गलत निर्माण की इजाजत देने वाले अधिकारियों पर अवश्य कार्रवाई होनी चाहिए। अमानीशाह नाले में इस तरह के निर्माण के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को चिह्नित किया जाएगा।'  25 दिन बीत गए, आज तक अधिकारी चिह्नित नहीं किए गए। कार्रवाई की बात तो बहुत दूर है। आजकल सरकारें ऐसे जनहितकारी कार्य न्यायालय के आदेश से भले ही करने को बाध्य हो जाएं, स्व-विवेक से नहीं करतीं।
मोबाइल टॉवरों का उदाहरण लें। शहरों में लगे उच्च क्षमता के हजारों टॉवर जनता के स्वास्थ्य के साथ किस तरह खिलवाड़ कर रहे, इसका खुलासा अखबार ने किया। यह काम सरकार का था। खुलासा होने के बाद टॉवरों के बारे में निर्णय करने का कार्य तो सरकार का था। वह भी उसने नहीं किया। न्यायालय के आदेश से ही सरकार हिली। स्कूलों से टॉवर हटाने का काम आधे मन से शुरू किया। परिणाम भी अधूरा है। पत्रिका ने अपनी भूमिका निभाई, बड़ी मोबाइल कंपनियों की नाराजगी झेलकर भी। न्यायालय ने भी फर्ज निभाया, पर सरकार निद्रा में है।
प्राकृतिक जलाशयों को उनका मूल स्वरूप लौटाने की लड़ाई पत्रिका सिर्फ राजस्थान में ही नहीं, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में भी लड़ रहा है। भोपाल में बड़ी झील और रायपुर में तेलीबंधा तालाब को लेकर भी मुहिम चल रही है। मोबाइल टॉवर का मुद्दा भी लगभग सभी प्रमुख शहरों में उठाया गया। निश्चय ही ये मुद्दे गांव, शहर और जनता के भविष्य से जुड़े हैं। मगर ध्यान दिलाने के बावजूद सरकार सोई रहती है। तभी तो पत्रिका का ध्येय वाक्य है— 'य एषु सुप्तेषु जागर्ति।'
पत्रकारों का पलायन
पिछले दिनों आई एक रिपोर्ट ने पत्रकारिता के पेशे को लेकर चिन्ताजनक तस्वीर पेश की है। रिपोर्ट के अनुसार देश में काफी संख्या में प्रशिक्षित पत्रकार दूसरे क्षेत्रों में पलायन कर रहे हैं। रिपोर्ट में वर्ष 1985 से लेकर 2010 तक के आंकड़े शामिल करने का दावा किया गया है। यह रिपोर्ट मीडिया स्टडीज ग्रुप और जन मीडिया जर्नल ने भारतीय जनसंचार संस्थान के उक्त अवधि के शैक्षणिक सत्र के छात्रों की प्रतिक्रिया के आधार पर तैयार की है। रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय जनसंचार संस्थान से प्रशिक्षित एक चौथाई से ज्यादा (26.76 फीसदी) पत्रकार दूसरे क्षेत्रों में पलायन कर चुके हैं। रिपोर्ट भले ही पत्रकारिता के एक बड़े और केन्द्रीय संस्थान के छात्रों की प्रतिक्रिया पर आधारित है, फिर भी है, तो चिन्ताजनक। खासकर तब, जब मल्टीमीडिया के युग में अखबार, टीवी, रेडियो, साइबर माध्यम तथा जनसम्पर्क का दायरा विस्तृत होता जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, मीडिया से जुड़े प्रशिक्षित छात्रों में से 32.28 फीसदी अखबार, 25.98 फीसदी टीवी, 13.39 फीसदी साइबर माध्यम, 8.66 फीसदी रेडियो, 7.09 फीसदी पत्रिकाओं, 2.88 फीसदी विज्ञापन तथा 5.77 फीसदी जनसम्पर्क क्षेत्रों में कार्यरत हैं।

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