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जहां तय है खबरों की दरें

कल्पना करें, जब सरकार का शक्तिशाली व साधन-सम्पन्न तंत्र ही खबरों की खरीद-फरोख्त करेगा, तो मीडिया को भ्रष्टाचार के दलदल में धकेलने से भला कौन रोक पाएगा? छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने कुछ प्रमुख टीवी चैनलों पर मनचाही खबरें दिखाने के लिए किस तरह सरकारी खजाना खोल दिया, इसकी पोल 'इंडियन एक्सप्रेस ने खोली है।

यह सही है, 'पेड न्यूज' के अधिकांश मामलों में मीडिया दोषी है। लेकिन दूसरी ओर मीडिया को भ्रष्ट करने में चुनावी उम्मीदवार, राजनीतिक दलों, नेताओं के अलावा कारपोरेट घरानों को भी कम जिम्मेदार नहीं माना जाता। अब इसमें एक नाम और जुड़ गया है और वह है छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार। सरकार भी खबरें खरीदती हैं, यह पहला उदाहरण है। कल्पना करें, जब सरकार का शक्तिशाली व साधन-सम्पन्न तंत्र ही खबरों की खरीद-फरोख्त करेगा, तो मीडिया को भ्रष्टाचार के दलदल में धकेलने से भला कौन रोक पाएगा? छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार ने कुछ प्रमुख टीवी चैनलों पर मनचाही खबरें दिखाने के लिए किस तरह सरकारी खजाना खोल दिया, इसकी पोल 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों प्रकाशित एक विस्तृत समाचार रिपोर्ट में खोल दी।
'छत्तीसगढ़ गवर्नमेंट पे'ज फार आल द टीवी न्यूज देट इज फिट टू बाय' हैडलाइन से प्रकाशित इस रिपोर्ट में जो तथ्य और आंकड़े दिए गए हैं, वे छत्तीसगढ़ में टीवी चैनलों और राज्य सरकार दोनों पर बदनुमा दाग है। रिपोर्ट में हालांकि 2009 से 2011 तक के ही ब्यौरे हैं, लेकिन अब सब कुछ ठीक हो गया होगा, यह मानने का कोई कारण नजर नहीं आता। सरकारी कार्यक्रमों खासकर, मुख्यमंत्री की कवरेज के लिए स्थानीय टीवी चैनलों ने बाकायदा कई पैकेज बना रखे हैं। सबकी अलग-अलग दरें निर्धारित हैं। एक टीवी चैनल का उदाहरण देखिए—मुख्यमंत्री के भाषण व अन्य महत्वपूर्ण सरकारी कवरेज के लिए 2 मिनट का स्पेशल पैकेज। रोजाना 15 बार प्रसारण। कीमत 3.28 करोड़ रु. प्रतिवर्ष। इसी तरह मुख्यमंत्री की जनसभाओं की 10 मिनट लाइव कवरेज की कीमत 48 लाख रु. प्रतिवर्ष। (हर माह 4  प्रसारण) एक और पैकेज है—टिकर। रोजाना 10 घंटे दिखाए जाने वाले इस टिकर पैकेज की कीमत है 60 लाख रु. प्रतिवर्ष। एक और स्पेशल पैकेज है जिसमें सरकारी कार्यक्रमों की आधा घंटा कवरेज है। यह राष्ट्रीय नेटवर्क के लिए भी भेजी जाती है। इस पैकेज की कीमत है—50 लाख रुपए प्रतिवर्ष। (हर माह दो कार्यक्रमों का प्रसारण) टीवी स्क्रीन पर एक पट्टिका दिखाने का भी छोटा पैकेज है, जिसमें बच्चों के साथ मुख्यमंत्रीजी की फोटो दिखाने का प्रावधान है। इसकी कीमत है 14.6 लाख रु. प्रतिवर्ष। ये सारे पैकेज निजी टीवी चैनल की ओर से सरकार को 2010-11 के कार्यक्रमों की कवरेज के लिए प्रस्तावित किए गए थे।
'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट में कई टीवी चैनलों की प्रसारित खबरों का तिथिवार ब्यौरा भी छपा है, जिनकी अलग-अलग कीमतें प्रस्तावित की गईं। इन्हें अखबार ने 'मैन्यूफ्रेक्चर्ड न्यूज' कहा है। इस 'मैन्यूफ्रेक्चर्ड न्यूज' के दो-एक उदाहरणों से ही पता चल जाएगा कि सरकार किस तरह अपने पक्ष में खबरें प्रायोजित कराती हैं। इनमें विरोधियों से लेकर माओवादी तक शामिल हैं। जाहिर है, प्रायोजित या फिर नकली खबरों ने सरकार का नैतिक बल कमजोर कर दिया। शायद इसीलिए राज्य सरकार राज्य के बजट प्रसारण के लिए भी चैनलों को कीमत चुकाती है। अखबार की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में राज्य सरकार ने बजट प्रसारण के लिए चार टीवी चैनलों को 25 लाख रु. का भुगतान किया। यही नहीं, बस्तर में गरीब आदिवासियों को अनाज वितरण का सरकारी कार्यक्रम टीवी पर दिखाने के लिए टीवी चैनलों को 14.26  लाख रु. की कीमत चुकाई गई। किसी के भी जेहन में यह सवाल कौंध सकता है, आखिर यह सब क्या है? सरकार को क्या जरूरत है ऐसा करने की? अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं के लिए सरकार को मीडिया का मोहताज क्यों होना चाहिए? क्यों सरकार लालायित है मीडिया में अपनी पब्लिसिटी के लिए? स्पष्ट है, सरकार की नीयत में खोट है। अगर सरकार पब्लिसिटी ही चाहती है तो बाकायदा विज्ञापन जारी करे। विज्ञापन-सामग्री को खबर का रूप देना जनता से धोखा है। यही सवाल मीडिया से भी है। जन कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों की जानकारी लोगों तक पहुंचाना मीडिया का काम है। इनकी जमीनी हकीकत बताना भी मीडिया का फर्ज है। जनहित में सूचनाओं का प्रसार और खबरों का विश्लेषण मीडिया नहीं तो और कौन करेगा? इन कार्यों की कीमत कैसी? आश्चर्यजनक रूप से सरकार और मीडिया ने अपने-अपने तर्कों में लीपापोती की है। छत्तीसगढ़ सरकार और स्थानीय चैनल जिन्हें विज्ञापन या प्रायोजित खबरें बता रहे हैं, वे साधारण खबरों के रूप में ही लोगों के सामने परोसी गईं, विज्ञापन के रूप में नहीं। चतुराई बरतते हुए भले ही कुछेक अपवाद छोड़ दिए गए हों, लेकिन भ्रष्टाचार का यह धंधा छत्तीसगढ़ में आज भी खूब फल-फूल रहा है। वह भी राज्य सरकार के सरपरस्ती में।
सरकारी मकानों पर             
पत्रकारों के कब्जे
मीडिया और सरकार के भ्रष्ट गठजोड़ का एक और उदाहरण मध्यप्रदेश से है। मामला मीडिया संस्थानों की बजाय मीडिया कर्मियों से ज्यादा जुड़ा है। मध्यप्रदेश में सरकारी मकानों पर 210 पत्रकार बरसों से कब्जा जमाए बैठे हैं। इन पत्रकारों पर 14 करोड़ रु. से अधिक की किराया राशि बकाया है। यह चौंकाने वाली जानकारी अगर राज्य सरकार की ओर से स्वाभाविक तौर पर आई होती तो और बात थी। जानकारी सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त हुई है। इस आधार पर एक रिटायर्ड सरकारी अधिकारी ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की है। आरोप है कि दो या तीन साल के लिए आवंटित सरकारी मकान में कुछ पत्रकार तो 37 वर्षों से कब्जा जमाए हुए हैं। इस दौरान राज्य में पांच-छह सरकारें तो आई होंगी। किसी भी सरकार ने इन पत्रकारों से मकान खाली कराने या किराया वसूल करने की कोशिश क्यों नहीं की? जाहिर है, हर सरकार अपने हित साधने के लिए पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई करने से बचती रही। हालांकि 210 आवंटित सरकारी मकानों पर 11 मकानों में अदालत का स्टे है और 23 मकान खाली भी कराए गए हैं। लेकिन अब भी 176 मकानों पर पत्रकारों के अनधिकृत कब्जे हैं। क्या इनके खिलाफ सरकार कोई कार्रवाई कर रही है या फिर कोर्ट के आदेश का इंतजार कर रही है?

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मनोरंजन, मजाक और मौत!

यह पाठकों, मीडिया और सरकार, तीनों के लिए महत्वपूर्ण समय है। जहां मीडिया को अपनी सीमा का ध्यान रखना चाहिए। वहीं सरकारों को भी आलोचना बर्दाश्त करनी चाहिए। कोई भी सरकार आदर्श सरकार नहीं होती। इसलिए आलोचना से ऊपर नहीं हो सकती। ऐसे में मीडिया अगर जनहित के मुद्दे उठाकर लोगों का ध्यान खींचे, तो क्या बुराई है?
रेडियो जॉकी की 'हॉक्स कॉल' के बाद मौत को गले लगा लेने वाली नर्स जेसिंथा सल्दान्हा का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। जेसिंथा मीडिया के एक क्रूर मजाक का शिकार बन गई। भारतीय मूल की जेसिंथा सल्दान्हा लंदन के मशहूर किंग एडवर्ड सप्तम अस्पताल में नर्स थी। उसकी ड्यूटी एक खास मरीज की सेवा में लगी थी। यह खास मरीज थी ब्रिटेन के शाही परिवार की बहू केट मिडिल्टन, जो इन दिनों गर्भवती हैं।
गत सप्ताह अस्पताल की रिसेप्शनिस्ट के पास फोन आया। यह फोन ऑस्ट्रेलिया के २ डे एफ.एम. के दो रेडियो जॉकी ने मिलकर किया। महिला जॉकी मेल ग्रेग ने ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का स्वांग रचते हुए कहा, 'क्या मैं अपनी बहू केट से बात कर सकती हूं।' रिसेप्शनिस्ट ने तत्काल फोन मिला दिया। उधर से नर्स जेसिंथा ने बात की। निस्संदेह जेसिंथा ने महारानी एलिजाबेथ समझकर ही रेडियो जॉकी से बात की। उसे जरा भी संदेह नहीं हुआ, क्योंकि बीच-बीच में वह एक पुरुष आवाज भी सुन रही थी, जिसे महारानी 'प्रिंस चाल्र्स' कहकर सम्बोधित कर रही थी। प्रिंस चाल्र्स का रोल माइकल क्रिश्चियन निभा रहा था। जेसिंथा ने शाही बहू की तबीयत का पूरा ब्यौरा भी दिया और चिंतित महारानी को ढांढस भी बंधाया कि उनकी बहू ठीक हैं और सो रही हैं। जेसिंथा ने भोलेपन में मरीज से मिलने का माकूल समय भी बता दिया। तभी दोनों रेडियो जॉकी ठहाका लगाकर हंस पड़े। हकीकत पता चलने पर जेसिंथा बहुत शर्मिन्दा हुई। अगले दिन वह अपने फ्लैट में फंदे से लटकी पाई गई। आत्महत्या से पूर्व उसने तीन पत्र लिखे। पत्र में उसने अपनी मौत के लिए दोनों रेडियो जॉकी को जिम्मेदार ठहराया। उसके शव को भारत लाकर उड्डुपी के पास पैतृक गांव में गमगीन माहौल के बीच अंतिम संस्कार कर दिया गया।
एक कत्र्तव्यनिष्ठ नर्स की दुखद मृत्यु ने झकझोर दिया। सोशल मीडिया में गुस्सा फूट पड़ा। रेडियो जॉकी व एफ.एम. चैनल की जबर्दस्त निन्दा की गई। लंदन में शोकसभा कर जेसिंथा को श्रद्धांजलि दी गई। ऑस्ट्रेलिया की प्रधानमंत्री जूलिया गेलार्ड ने इसे 'भयानक हादसा' बताया। खबर है २ डे एफ.एम. रेडियो की लोकप्रियता में गिरावट आ गई। कई विज्ञापनदाताओं ने रेडियो से मुंह फेर लिया। ऑस्ट्रेलिया के संचार और मीडिया प्राधिकरण ने स्वत: संज्ञान लेकर रेडियो के खिलाफ जांच शुरू कर दी।
इधर सोशल नेटवर्क पर कई लोगों ने मांग की है कि शाही बहू केट मिडिल्टन के होने वाले बच्चे का नाम जेसिंथा रखा जाए। कुछ लोगों ने सोशल नेटवर्क पर वेबपेज बनाया, 'नेम द रॉयल बेबी जेसिंथा इन द मेमोरी ऑफ नर्स जेसिंथा सल्दान्हा'। 'हॉक्स कॉल' करते हुए दोनों रेडियो जॉकी को अंदाज नहीं था कि बात इस हद तक पहुंच जाएगी। वे तो नर्स को मजाक का पात्र बनाकर श्रोताओं का मनोरंजन करना चाहते थे। नर्स ही क्यों, किसी का भी मजाक उड़ाकर लोगों का मनोरंजन हो, तो क्या हर्ज है! यही सोच आज मीडिया पर हावी है। जेसिंथा त्रासदी की वजह भी यही है। ब्रिटिश पत्रकार एंड्रयू ब्राउन ने 'द गार्जियन' में सही लिखा कि मीडिया को अपने कामकाज के तरीकों पर गौर करने की जरूरत है।
छत्तीसगढ़ में प्रेस का दमन
मीडिया ही क्यों, सरकारों को भी अपने कामकाज के तरीकों पर गौर करने की जरूरत है। जनता के वोटों से चुनी हुई सरकारें जब जनता के हकों पर ही कुठाराघात करें, तो लोकतंत्र का खतरे में पडऩा निश्चित है। छत्तीसगढ़ में यही हो रहा है। यहां की रमन सिंह सरकार प्रेस का दमन करने में सबको पीछे छोड़ चुकी है। सरकार जब सत्ता के मद में डूब जाती है, तो उसे ठकुरसुहाती के अलावा कुछ पसंद नहीं आता। सरकारी तंत्र के घपले-घोटाले उजागर करके पत्रिका ने लोगों के हकों पर हो रहे कुठाराघात की ओर ध्यान खींचा। यही नहीं, मुख्यमंत्री रमन सिंह के भी कुछ कारनामों को उजागर किया, जो पहली बार छत्तीसगढ़ की जनता के सामने आए। सरकार की भवें तन गईं। पत्रिका को सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए। इसकी परवाह न करते हुए पत्रिका जनता के प्रति अपना दायित्व लगातार निभाता रहा। पिछले विधानसभा सत्र में पत्रिका संवाददाताओं के प्रवेश पत्र निरस्त कर दिए गए थे।
पत्रिका को सुनवाई का मौका तक नहीं दिया। अगला सत्र शुरू होने के बावजूद पत्रिका संवाददाताओं के विधानसभा प्रवेश पर रोक जारी है। जबकि जब छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के निर्देश हैं कि पत्रिका के आवेदन करने पर उसके संवाददाताओं को विधानसभा कवरेज के लिए प्रवेश पत्र जारी करने पर निर्णय करें। विधानसभा लोकतंत्र का मंदिर है, जहां कानून का सम्मान होता है। न्यायालय के आदेश के बावजूद पत्रिका संवाददाताओं को प्रवेश से रोकना क्या कानून और न्याय की अवहेलना नहीं है?
छत्तीसगढ़ की जनता को जानने का हक है कि सदन में उसके हितों के लिए राज्य सरकार क्या कदम उठा रही है। इस हक से वंचित करना जनता की अवहेलना है, जिसने सरकार को सत्ता सौंपी। यह सीधे अभिव्यक्ति व प्रेस की स्वतंत्रता का दमन है। यह दूसरी बात है कि पत्रिका अपने स्रोतों से विधानसभा के समाचार प्रकाशित कर रहा है और जनता के प्रति अपना दायित्व निभा रहा है।  
गांव का 'स्मार्ट' अखबार
गत दिनों अखबारों की दुनिया में एक नई शुरुआत हुई। लखनऊ के पास छोटे से गांव कुनौरा से नया हिन्दी अखबार निकला—'गांव कनेक्शन'। यह गांवों की 'स्मार्ट' तस्वीर पेश करेगा। अखबार के सम्पादक नीलेश मिश्र के अनुसार, मीडिया में यह भ्रान्ति है कि गांव का मतलब सिर्फ खेती-बाड़ी या फिर ऑनर किलिंग है। आप कुनौरा आकर देखिए। यहां लोगों को डेनिम्स पहने हुए और गांव की स्टॉल पर मोमोज खाते हुए देख सकते हैं। 'गांव कनेक्शन' का पहला अंक ही स्मार्ट तेवर के साथ आया है। एक फीचर ग्रामीण शादियों में लोकप्रिय हो रहे 'बुफे डिनर' पर है, तो एक लेख बलिया के निवेश बैंकर पर है, जो मूलत: न्यूयार्क में स्थित है।
'गांव कनेक्शन' में युवा ग्रामीण पत्रकारों को रखा गया है, जिनमें ज्यादातर संवाददाता मॉस कम्यूनिकेशन व पत्रकारिता स्कूलों के स्थानीय विद्यार्थी हैं।

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अखबारों की महत्वपूर्ण भूमिका

सबसे बड़ी खामी धारा 66-ए में यह है कि अगर आपकी बात से किसी को नाराजगी हुई तो वह आपके खिलाफ मामला दर्ज करवा सकता है। और इस पर पुलिस का एक सिपाही भी आपको थाने ले जाकर बैठा सकता है। ऐसे में सर्वोच्च अदालत की दखलंदाजी से इस कानून की कमियों, अस्पष्टताओं को दूर करने के हर संभव प्रयास  करने पड़ेंगे

आपको याद होगा, जिस दिन शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे की अन्त्येष्टि हुई, उस दिन समूचा मुम्बई महानगर बंद रहा। बंद डर की वजह से रहा या ठाकरे के प्रति सम्मानवश, इस बहस में पड़े बगैर हम यह कहेंगे कि इस पर भिन्न राय रखने वालों को अपना मत प्रकट करने का पूरा अधिकार है। मुम्बई की दो लड़कियों ने फेसबुक पर अपनी राय जाहिर की। बल्कि राय सिर्फ शाहीन ने जाहिर की थी। उसकी दोस्त रेणु ने महज उसका समर्थन किया था। शाहीन की राय थी कि किसी की मृत्यु पर पूरे शहर को बंद कर देना कहां तक जायज है? इसे पढ़कर शिव सैनिक भड़क गए। शाहीन के चाचा के क्लिनिक पर तोडफ़ोड़ की तथा पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी। पुलिस रात को ही दोनों लड़कियों को पकड़कर ले गई। लड़कियों ने तत्काल माफी मांग ली। अपना फेसबुक अकाउंट भी बंद कर दिया। यह घटना संभवत: मुम्बई के एक इलाके पालघर तक सिमटकर रह जाती। लेकिन इस घटना का विवरण टाइम्स ऑफ इंडिया ने अगली सुबह प्रकाशित कर दिया। अगले दिन बाकी अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी यह घटना सुर्खियों में छा गई। अदालत में जमानत के बाद तीसरे दिन ये लड़कियां जेल से छूट पाईं। महाराष्ट्र सरकार की नींद खुली। लड़कियों के खिलाफ मामला बंद कर दिया गया। इतना ही नहीं, दो पुलिस अधिकारियों को निलंबित भी कर दिया गया। सरकार ने आदेश दिया कि अब से धारा ६६-ए के तहत मामलों को पुलिस महानिरीक्षक स्तर का अधिकारी ही देखेगा।
और अब इस धारा को देश की सर्वोच्च अदालत में चुनौती मिल गई। दिल्ली की छात्रा श्रेया सिंघल की जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सहित, महाराष्ट्र, प. बंगाल, दिल्ली और पुड्डुचेरी की सरकारों को नोटिस जारी करके चार सप्ताह के भीतर अपना पक्ष रखने को कहा है। इन राज्यों में सूचना तकनीक कानून के दुरुपयोग की घटनाएं पिछले दिनों प्रकाश में आई थीं। कुछ अरसा पूर्व पुड्डुचेरी के रवि श्रीनिवासन को भी पुलिस घर से पकड़कर ले गई थी। रवि ने ट्विटर पर वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम और सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा के बारे में समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों के आधार पर अपनी राय व्यक्त की थी। इसी तरह पश्चिम बंगाल में जाधवपुर विश्वविद्यालय के दो प्रोफेसरों को भी इसलिए जेल जाना पड़ा, क्योंकि इनमें से एक ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर कार्टून बनाया था और दूसरे ने अन्य लोगों को भेज दिया था। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त की गई अभिव्यक्तियों को जिस तरह से दबाने की कोशिशें की गई, उससे लोगों में यह संदेश गया कि सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने पर तुली है। स्वीकार किया जा रहा है कि सूचना तकनीक कानून के तहत मिले अधिकारों का पुलिस और शासन ने दुरुपयोग ही किया। शासन में बैठे कई लोग इस बात को मानते हैं कि सूचना कानून को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया। सूचना तकनीक मंत्री कपिल सिब्बल भी मानते हैं कि इस कानून में कई खामियां हैं। सबसे बड़ी खामी धारा 66-ए में यह है कि अगर आपकी बात से किसी को नाराजगी हुई तो वह आपके खिलाफ मामला दर्ज करवा सकता है। और इस पर पुलिस का एक सिपाही भी आपको थाने ले जाकर बैठा सकता है। ऐसे में सर्वोच्च अदालत की दखलंदाजी से इस कानून की कमियों को दूर करने का प्रयास होगा। संसद में हंगामा और बिना बहस कानून पारित होने से ऐसी ही विसंगतियां पैदा होती हैं।
कानून, मीडिया और कोयले की कालिख
सौ करोड़ की जबरन वसूली के मामले में जी न्यूज की दलील काम नहीं आई। अपने दो सम्पादकों की गिरफ्तारी में अभिव्यक्ति की आजादी के मुद्दे पर उसे समर्थन नहीं मिला। उल्टे सोशल मीडिया में लोगों का गुबार फूट पड़ा। मामला जिस रूप में सामने आया उससे जी न्यूज की काफी किरकिरी हुई। लिहाजा कानून को अपना काम करने देना चाहिए।
कानून को कोयले की कालिख भी मिटानी चाहिए। सांसद और उद्योगपति नवीन जिन्दल की कंपनी जिन्दल स्टील एंड पावर लि. जे.एस.पी.एल. पर गंभीर आरोप हैं। इसलिए कहीं जिन्दल दो सम्पादकों के वीडियो टेप के बहाने खुद को पाक साबित करने की कोशिश तो नहीं कर रहे? कैग की रिपोर्ट में बहुत कुछ साफ है। इसके बावजूद सीबीआई जे.एस.पी.एल. व उससे जुड़ी कंपनियों पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं कर सकी है। केन्द्र की सरकार अपने सांसद के कारनामों पर चुप्पी साधे हुए हैं। वह २ जी स्पेक्ट्रम की तरह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बगैर कुछ नहीं करना चाहती। कैग की रिपोर्ट और मीडिया में आए तथ्य बताते हैं कि नवीन जिन्दल की कंपनी कोयला खदानों का आवंटन पाने और गरीब किसानों की जमीनें लेने में अग्रणी है। उनके पास झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और मध्यप्रदेश में कोयला खदानें हैं। कैग की रिपोर्ट के बाद जांच के दौरान यह बात सामने आई कि जे.एस.पी.एल. ने १६ कोयला खदानों के ब्लॉक्स हासिल करने के लिए आवेदन किया था। यह बात भी सामने आई कि कुछ कंपनियां, जिन्हें कोल ब्लॉक्स आवंटित हुए, वे भी नवीन जिन्दल की कंपनी से जुड़ी हुई हैं। इनमें नलवा स्पंज आइरन लि., गगन स्पंज आइरन लि. तथा मोनेट इस्पात एंड एनर्जी लि. कंपनियों के नाम शामिल हैं। मोनेट इस्पात संदीप जाजोडिया की कंपनी है, जो नवीन जिन्दल के निकट रिश्तेदार हैं। इन सभी मामलों की तह में जाने की जरूरत है। कुछ कंपनियां ही कोयला खदानों पर कब्जा जमाने की कोशिश में क्यों लगी हैं? उनके आपस में तार क्यों जुड़े हुए हैं? क्यों वे नाम बदलकर काम करती हैं? उनकी राज्यों व केन्द्र की सरकारों से क्या साठगांठ है? प्रशासनिक तंत्र क्यों उन पर मेहरबान रहता है? ये सारे सवाल मीडिया के सामने चुनौती की तरह हैं। केन्द्रीय जांच ब्यूरो अव्वल तो इनकी तह तक शायद ही जाए। अगर गया भी, तो परिणाम हासिल होगा, इसकी उम्मीद कम है। कई बड़े-बड़े नाम सामने आ चुके हैं। सजा किसी एक को भी अभी तक नहीं मिली। सजा मिलना तो दूर, अभी तक उनके खिलाफ कानून का शिकंजा कसता हुआ भी नजर नहीं आ रहा है।

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