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छपे हुए शब्दों का असर

चिंतक लुई बोर्खेज के अनुसार-मनुष्य के ढेर सारे आविष्कारों में किताबें सर्वाधिक विस्मयकारी आविष्कार है। दूसरे आविष्कारों से हमारे शरीर का विस्तार होता है। सिर्फ किताबें ही हैं, जो हमारी कल्पनाओं और स्मृतियों को विस्तार देती हैं। बोर्खेज के कथन को किताबों तक सीमित रखने की बजाय हम इसे प्रिंट मीडिया पर भी लागू कर सकते हैं।


यह सही है कि युवा पीढ़ी डिजीटल प्रेमी है। लेकिन साहित्य के मामले में वह अब भी छपे हुए शब्दों पर ज्यादा भरोसा करती है। कम-से-कम जयपुर साहित्य उत्सव से तो यही लगा। पांच दिवसीय इस उत्सव में युवाओं की भागीदारी बड़ी तादाद में थी। लेखकों को सुनने और उनसे संवाद करने में युवा सबसे आगे रहे।
अक्सर यह कहा जाता है कि नई पीढ़ी किताबों से दूर होती जा रही है। उसका पढऩा-लिखना डिजीटल दुनिया में सिमट कर रह गया है। साहित्य उत्सव में आए अमरीकी लेखक गैरी शेंटनहार्ट ने तो एक सत्र के दौरान ही कहा—अमरीका में लेखक ज्यादा और पाठक कम हैं। क्योंकि युवा किताबें बिल्कुल नहीं पढ़ते। उन्होंने बाकायदा आंकड़ा देकर चौंकाया— अमरीका में 17 मिलियन रायटर हैं जबकि पाठक हैं महज 60 हजार। संभव है शेंटनहार्ट के बयान में अतिशयोक्ति हो। उनके कथन का एक आशय यह भी हो कि अमरीकी युवा पीढ़ी लेखकों को पढ़ती तो है, लेकिन किताबों की बजाय डिजीटल माध्यमों से। शायद यही वजह है कि अमरीका में किताबों और पत्र-पत्रिकाओं के डिजीटल संस्करण खासे लोकप्रिय हैं। पिछले दिनों 80 साल पुरानी साप्ताहिक पत्रिका 'न्यूजवीक' का प्रिंट संस्करण बंद हो गया। यह पत्रिका अब सिर्फ ऑनलाइन उपलब्ध है। अमरीका में मानो कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन भारत में अभी यह स्थिति नहीं आई है। आप आश्वस्त हो सकते हैं, युवा पीढ़ी किताबों और छपे माध्यमों से इतनी दूर नहीं गई है। वह किताबों या कहें साहित्य को गंभीरता से जांच-परख रही है। स्वयं भी लिख-पढ़ रही है। अनेक विधाओं में सृजन कर रही है। छपे हुए शब्दों का असर कायम है। यहां प्रिंट माध्यमों का भविष्य फिलहाल सुरक्षित है। इसलिए प्रकाशन व्यवसाय की चमक बढ़ी है। भारत देशी-विदेशी भाषाओं की पुस्तकों के प्रकाशन और बिक्री के लिहाज से एक बड़ा और प्रभावशाली बाजार है।
दरअसल यह छपे हुए शब्दों का असर है। हमारे दौर के प्रभावी चिन्तकों में शुमार लुई बोर्खेज के अनुसार—मनुष्य के ढेर सारे आविष्कारों में किताबें सर्वाधिक विस्मयकारी आविष्कार है। दूसरे आविष्कारों से हमारे शरीर का विस्तार होता है। सिर्फ किताबें ही हैं, जो हमारी कल्पनाओं और स्मृतियों को विस्तार देती हैं। बोर्खेज के कथन को किताबों तक सीमित रखने की बजाय हम इसे प्रिंट मीडिया पर भी लागू कर सकते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विस्तार के साथ ही प्रिंट मीडिया का भी विस्तार हुआ। चौबीस घंटे दिखाए जाने वाले समाचार चैनलों के बावजूद अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ी। भारत ही नहीं, दुनिया भर में। बोलती तस्वीरें लुभाती तो हैं, लेकिन चेतना का विस्तार नहीं करती। एक समय बाद फिर शब्दों की तरफ लौटने का मन करता है। साहित्य उत्सव में लेखकों की तरह पत्रकारों की भी अच्छी-खासी उपस्थिति साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों को दर्शाती है। वे लोग भी कम न थे, जो मीडिया में कॉलम लिखते हैं, चर्चाओं में बराबर भाग लेते हैं या किसी न किसी रूप में जुड़े हैं। शोभा डे, गुरु चरणदास, फेहमिदा रियाज एडवर्ड गिराडेंट, परंजय गुहा ठाकुरता से लेकर तरुण तेजपाल, शोमा चौधरी, पीटर ब्रूक, रवीश कुमार, ओम थानवी, आशुतोष आदि मीडिया कर्मियों की भागीदारी से यह अहसास पुख्ता होता है कि लेखन की सामाजिक स्वीकार्यता और प्रतिष्ठा कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसीलिए लेखक और पाठक के अन्तर्संबंध गहराई तक जुड़े होते हैं। लेखन और पठन दोनों ही सृजनात्मक क्रिया है और सृजनात्मक प्रक्रिया का उत्कर्ष रूप कागज, कैनवास, कूंची, कलम आदि माध्यमों में बेहतर संभव है।
थोड़े से लोगों का बोलबाला
मीडिया के विभिन्न माध्यमों में होने वाली चर्चाओं और बहसों में अक्सर चुनीन्दा लोग ही भाग लेते रहते हैं। इसलिए अभिव्यक्ति में वैचारिक विविधता की कमी नजर आती है। भारत जैसे वैविध्य वाले देश में कुछ खास तरह के विचारों को स्थापित करने का माध्यम बन कर रह गया है, भारतीय मीडिया। यह निष्कर्ष मीडिया स्टडीज ग्रुप का है, जिसने अपने सर्वेक्षण में पाया कि मीडिया में थोड़े से लोग ही सभी मुद्दों पर बहस करते नजर आते हैं। इसलिए घूम-फिरकर एक-से विचार बार-बार दोहराये जाते हैं। इस स्थिति का सरकार और वर्चस्वशाली लोग फायदा उाठते हैं। ग्रुप ने तीन अलग-अलग सर्वे किए। एक सर्वे दूरदर्शन, दूसरा आकाशवाणी और तीसरा विभिन्न निजी चैनलों से सम्बंधित था। दूरदर्शन सर्वे में यह पाया कि आपातकाल के समय सरकार ने अपनी नीतियों के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ थोड़े से पत्रकारों का इस्तेमाल किया था। यही बात आकाशवाणी पर भी लागू होती है। निजी चैनलों के सर्वे में भी ग्रुप ने पाया कि यहां भी थोड़े से लोग ही किसी मुद्दे पर बहस करते दिखाई दिए। कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो एक समय किसी और चैनल पर दिख रहे थे तो थोड़ी देर बाद दूसरे चैनल पर भी वही मौजूद थे। सरकारी लोकसभा चैनल पर आने वाले वक्ताओं के बारे में सर्वेक्षण का आकलन है कि 6 माह में कुल 989 लोगों को वक्ता के तौर पर बुलाया गया। जबकि बुलाए जाने की जरूरत 2000 लोगों की थी। इनमें भी कुछ लोगों को तो 17-18 बार बुलाया गया। केन्द्रीय आकाशवाणी में 10 लोगों को 179 बार अलग-अलग कार्यक्रमों में बुलाया गया। इस सर्वे में उत्तर-पूर्व के राज्यों का कोई वक्ता किसी समाचार या बहस के हिस्से के रूप में नहीं दिखा। ज्यादातर दिल्ली और आसपास के लोग नजर आए। सर्वे में आकाशवाणी जैसे माध्यम पर वर्ष भर प्रसारित कार्यक्रमों के विषय का विश्लेषण किया गया, तो यह तथ्य सामने आया कि ग्रामीण इलाके, दलित, अल्पसंख्यक युवाओं पर एक फीसदी से कम और आदिवासी के मुद्दे पर एक भी कार्यक्रम प्रसारित नहीं किया गया।
 इस स्थिति पर जाने-माने विश्लेषक विजय प्रताप का आकलन है कि पहले केवल एक चैनल दूरदर्शन हुआ करता था जिस पर सरकारी प्रवक्ता होने का आरोप आम था। अब ढेर सारे निजी चैनलों के बावजूद थोड़े से लोग ही सरकारी और निजी चैनलों में बार-बार दिख रहे हैं। इससे उदारीकरण के दौर में भी विचारों और अभिव्यक्ति में विविधता की दरिद्रता साफ देखी जा सकती है। समाज में हाशिये पर बैठे लोगों के बारे में चिन्तन बहुत कम नजर आता है।

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2040 में गांधी परिवार

कल्पनालोक
आज मक्खनलाल बहुत चिन्तामग्न है। क्या होगा, क्या नहीं होगा। राजन गांधी पार्टी की कमान संभालने के लिए राजी होंगे कि नहीं। अरे, हम पार्टी वर्करों की भावनाओं का ख्याल भी है कि नहीं राजन बाबा को? पूरे दस साल हो गए हैं गुहार लगाते-लगाते। हम ही क्या, देश की सारी युवा-शक्ति उनकी  मुरीद है। उनकी तरफ आशा भरी नजरों से देख रही है। लेकिन राजन बाबा है कि टस से मस नहीं हो रहे। बड़े शर्मीले हैं। अपने डैडी पर गए हैं। उनकी ट्रू कॉपी है। देखा नहीं, 27 बरस पहले आदरणीय राहुल गांधी जी को किस तरह मनाया था कांग्रेसजनों ने मिलकर?
मेरे पापाजी बताते हैं कि जयपुर चिन्तन शिविर में हम सब बिड़ला ऑडिटोरियम के मुख्य द्वार पर धरना देकर बैठ गए थे। राहुल जी तैयार ही नहीं हो रहे थे पार्टी की कमान संभालने को। इतने शर्मीले कि पूज्य सोनिया जी के कहने पर भी मान नहीं रहे थे। सोनिया जी ने कहा, बेटे राहुल, अब मान भी जाओ। जरा देखो इन देशभक्तों की तरफ। कितने घंटों से ये इस भरी सर्दी में बैठे हैं। ऊपर से मौसम खराब। बारिश होने वाली है। किसी को निमोनिया हो गया तो? फिर मेरा भी तो ख्याल करो। उम्रदराज हो गई हूं मैं। तबीयत भी ठीक नहीं रहती। मान जाओ बेटा। 14  साल से भार संभाले हूं। एक-एक करके कई प्रदेश हाथ से निकल गए। अगर दिल्ली भी निकल गई तो? पिताजी बताते हैं कि तब आदरणीय राहुल जी पिघल गए थे।
हम सब कांग्रेसजन ने खूब खुशियां मनाईं। जोरदार आतिशबाजी की। नारे लगे। जयकारे हुए। देश का नेता कैसा हो, राहुल गांधी जैसा हो। नारे इतने गूंजे कि बिड़ला ऑडिटोरियम की गूंज नाहरगढ़ तक सुनाई दी। लेकिन लाल किले तक नहीं पहुंची।
राहुल जी तब प्रधानमंत्री नहीं बन पाए थे। कार्यकर्ताओं के लंबे इंतजार के बाद, वे पिता बनने की तैयारी कर रहे थे। फिर राजन बाबा की 10, जनपथ पर किलकारियां गूंजी। बुआ आदरणीय प्रियंका गांधी वाड्रा ने शिशु की बलैया ली। बोली, मॉम पर गया है। लंबी पारी खेलेगा। फूफाजी रॉबर्ट वाड्रा सोने का पालना 'गिफ्ट' लेकर आए। बोले, दादी मॉम पर गया है। सबकी बोलती बंद कर देगा। बहन मिराया और भैया रेहन बोले-बिल्कुल नाना पर गया है। हवाई जहाज उड़ाएगा। उन्हीं दिनों मुझे पिताजी ने सीख दी, बेटा मक्खन, तुम्हीं मांग कर डालो। वरना कोई और बाजी मार ले जाएगा। राजन बाबा कान्वेन्ट में भर्ती करा दिए गए थे।
मैंने अधिवेशन में मांग कर डाली, पार्टी की कमान हमारे युवराज (राजन बाबा) के कंधों पर डाली जाए। राजन गांधी है तो पार्टी है। पार्टी है तो देश है। देश है तो मक्खन है। एक नहीं सैकड़ों मक्खन लालों की आवाज गूंज उठी। सब बेचैन हो उठे। यह कैसे आगे निकल गया। हम कौन से मक्खन लाल से कम हैं। फिर तो चारों ओर से आवाजें आने लगीं। देश का नेता कैसा हो- राजन गांधी जैसा हो। देश की युवा आंधी! राजन गांधी! राजन गांधी!!
भीड़ में कोई चिल्लाया, 'अरे सपूतों, राजन बाबा के अभी दूध के दांत भी नहीं टूटे। जरा सब्र करो। मक्खन लालों की और तेज आवाज गूंजी—और नहीं बस और नहीं, गम के बादल और नहीं। तभी मक्खन लाल ने माइक थाम लिया— साथियों, हमें फिर चुनौती दी जा रही है, जिसे चाहे वह प्रदर्शन कर रहा है। कोई जन्तर-मन्तर पर, कोई इंडिया गेट पर। कोई टोपी लगाकर। कोई झंडा उठाकर। साथियों, हम पार्टी का संविधान बदलेंगे। अगर राजन बाबा जवान हो गए तो फिर आदरणीय राहुल जी की तरह शरमाने लगेंगे। ना-ना करेंगे। अब यह देश और इन्तजार नहीं कर सकता। वर्ना हम एक बार फिर धरना देकर बैठ जाएंगे। फिर चाहे हमें बुखार हो या निमोनिया। भीड़ में नारे गूंज उठे—
देश का नेता कैसा हो—
राजन बाबा जैसा हो..
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कैमरा झूठ नहीं बोलता!

मीडिया में कैमरे की कितनी अहम भूमिका है, इसकी अहमियत तब सामने आई, जब दिल्ली पुलिस के एक सिपाही सुभाष तोमर की हत्या का मामला दर्ज हुआ। एक टीवी चैनल ने उस दिन की घटना की वह फुटेज दिखा दी, जिसमें सुभाष तोमर दिखाई दे रहे थे।  दो युवा उन्हें होश में लाने की कोशिश कर रहे थे। इनमें एक युवक था और दूसरी युवती।

कैमरा झूठ नहीं बोलता। कैमरा चाहे सी.सी. टीवी का हो या फिर न्यूज टीवी का। सच्चाई को कैद कर ही लेता है। मीडिया में कैमरे की कितनी अहम भूमिका है, इसका उदाहरण दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना के विरोध में हुए एक प्रदर्शन में देखने को मिला। यह प्रदर्शन भी देश भर में हुए अनेक प्रदर्शनों की तरह टीवी चैनलों ने कवर किया था और भुला दिया गया था। लेकिन इसकी अहमियत तब सामने आई, जब दिल्ली पुलिस के एक सिपाही सुभाष तोमर की हत्या का मामला दर्ज हुआ। सुभाष तोमर उस दिन प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए अपनी ड्यूटी पर तैनात थे। दिल्ली पुलिस का आरोप था कि निषेधाज्ञा के दौरान हिंसा पर उतारू भीड़ ने पुलिस पर पथराव किया। इससे सुभाष तोमर गंभीर रूप से घायल हो गए। उन्हें गंभीरावस्था में राममनोहर लोहिया अस्पताल में भरती कराया गया, जहां दो दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई। पुलिस ने निषेधाज्ञा भंग करने सहित, सिपाही पर हमले और हत्या के प्रयास आदि विभिन्न धाराओं में 8 प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया था, जिनमें कुछ छात्र भी थे। बाद में हत्या की धारा भी जोड़ दी गई।
कई लोगों को यह बात गले नहीं उतर रही थी। ज्यादती तो पुलिस ने की थी। निहत्थे छात्र-छात्राओं, युवाओं और बुजुर्गों तक पर पुलिस ने बेरहमी से लाठियां बरसाई थीं। टीवी चैनलों पर लोगों ने यह सब देखा भी। अखबारों में फोटुएं भी छपीं। प्रदर्शनकारी आम नागरिक थे। हमलावर नहीं। वे देश की राजधानी में एक छात्रा के साथ दिल दहला देने वाला दुष्कर्म करने वाले दरिन्दों और दिल्ली की लचर पुलिस व्यवस्था से बेहद खफा थे और अपना गुस्सा प्रकट कर रहे थे। जिन आठ प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने पकड़ा उनमें एक को छोड़कर कोई भी किसी राजनीतिक दल या संगठन से संबद्ध नहीं था। क्या ये लोग हमलावर हो सकते थे? यह सवाल कौंध रहा था। इसी बीच एक टीवी चैनल ने उस दिन की घटना की वह फुटेज दिखा दी, जिसमें सुभाष तोमर दिखाई दे रहे थे। सिपाही की वर्दी में सुभाष तोमर जमीन पर पड़े थे। दो युवा उन्हें होश में लाने की कोशिश कर रहे थे। इनमें एक युवक था और दूसरी युवती। युवती सिपाही का सिर सहला रही थी। युवक सिपाही की एडिय़ों पर मालिश कर रहा था। दोनों मिलकर बेहोश सिपाही की मदद कर रहे थे। दृश्य इतना स्पष्ट था कि न केवल सिपाही सुभाष तोमर, बल्कि आस-पास का परिवेश भी साफ नजर आ रहा था। न तो सड़क पर पत्थर दिखाई दे रहे थे, न ही खून का एक कतरा। सिपाही के बदन पर कोई घाव नजर नहीं आ रहा था। सुभाष तोमर की उम्र ४६ वर्ष थी। ऐसा लग रहा था वे थककर गिर पड़े हों। लेकिन यह सब अनुमान था। सिपाही कैसे बेहोश हुआ? क्या उस पर किसी ने हमला किया? टीवी फुटेज से तो कुछ पता नहीं चल रहा था। शायद पहले की घटना कैमरे में रिकार्ड नहीं हुई होगी। लेकिन यह साफ था कि सिपाही सुभाष तोमर के कोई बाहरी चोट या जख्म नहीं था। न आसपास पथराव का कोई सबूत था। यानी पथराव से सिपाही के गंभीर रूप से घायल होने की दिल्ली पुलिस की कहानी की पोल खुल गई थी। चैनल ने कई बार यह फुटेज दिखाए। अपनी फुटेज देखकर टीवी पर वह युवक स्वयं प्रकट हो गया, जो सिपाही की मदद कर रहा था। योगेन्द्र नामक यह युवक दिल्ली में पत्रकारिता का विद्यार्थी है। उसने चैनल पर उस दिन का घटनाक्रम विस्तार से बता दिया।
उसने बताया कि प्रदर्शनकारियों के पीछे कुछ सिपाही दौड़ रहे थे। तभी एक सिपाही रुका और जमीन पर गिर पड़ा। उसके साथ के अन्य सिपाही आगे निकल गए। योगेन्द्र व उसकी दोस्त पाओली दौड़कर सिपाही के पास पहुंचे। योगेन्द्र ने न केवल सिपाही को होश में लाने की कोशिश की, बल्कि राममनोहर लोहिया अस्पताल पहुंचाने में भी मदद की। योगेन्द्र अस्पताल में काफी देर तक रुका। उसने एक पुलिस इन्सपेक्टर को अपना नाम, पता और मोबाइल नं. दर्ज कराया और घर चला गया। योगेन्द्र ने जब टीवी पर फुटेज देखी तो उसे माजरा समझा में आया कि वह सिपाही सुभाष तोमर थे। बाद में पाओली ने भी टीवी पर आकर योगेन्द्र की बातों की पुष्टि की। बाकी कहानी कैमरे ने बयान कर ही दी थी। सिपाही सुभाष तोमर पर किन लोगों ने हमला किया? हमला किया भी या नहीं? या फिर वे थककर स्वयं ही गिर पड़े? ये जांच के विषय हैं। लेकिन दिल्ली पुलिस के आला अफसरों ने एक सिपाही की आड़ लेकर जो कहानी गढ़ी, उसकी कैमरे ने पोल खोल दी। यह एक मिसाल है, जो पूरे देश में पुलिस के कामकाज और रवैये को दर्शाती है। दिल्ली पुलिस की चौतरफा निन्दा हो रही थी। शायद इसीलिए पुलिस प्रदर्शनकारियों को हिंसक ठहराकर निर्दोष लोगों पर किए गए लाठी चार्ज के अपने गुनाह पर परदा डालना चाहती थी। लेकिन वह कामयाब नहीं हो सकी। पुलिस ने जिन आठ प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया, उनमें दो छात्रों के बारे में पुलिस की पोल सी.सी. टीवी के कैमरों ने खोल दी। ये दोनों छात्र घटना स्थल से काफी दूर उस वक्त मैट्रो में सफर कर रहे थे। ट्रेन में और मैट्रो स्टेशन पर लगे सी.सी. टीवी कैमरों ने हकीकत बयां कर दी।
तो ये हैं कैमरे की करामात। दूध का दूध और पानी का पानी। निर्दोष को बचाने और दोषी पर शिकंजा कसने में इस कैमरे की बड़ी भूमिका है।
मीडिया पर पाबंदी
स्वतंत्र मीडिया से कौन डरता है? इसका जवाब है, या तो वह जो अत्याचार करता है, या वह जो जनता से कुछ छिपाना चाहता है। चीन की सरकार यही कर रही है। चीन में मीडिया पर कई तरह की पाबंदियां हैं। ये पाबंदियां चीन में सरकार चला रही कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से लगाई हुई है। पार्टी का चीन के मीडिया पर पूरी तरह नियंत्रण है। इसका विरोध करने की किसी में हिम्मत नहीं। लेकिन गत 7 जनवरी को 'सदर्न वीकेंड' नामक एक साप्ताहिक चीनी अखबार के पत्रकारों ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की। कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय कार्यालय के बाहर अखबार के सैकड़ों पत्रकार इकट्ठे   हुए और नारे लगाए। यही नहीं, अखबार ने कम्युनिस्ट पार्टी के प्रांतीय नेता तुओ झोन को हटाने के लिए सरकार को एक खुला खत भी लिखा, जो अखबार ने प्रकाशित किया। जानकारों का कहना है कि यह चीन में मीडिया पर नियंत्रण के विरोध में उठी आवाज की शुरुआत है। चीन में आखिर एक अखबार ने मीडिया पर पाबंदी को चुनौती देने का साहस तो किया!

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