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अभिव्यक्ति पर अंकुश की धारा

सोशल साइट्स पर आपत्तिजनक टिप्पणी मामले में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की इजाजत के बगैर किसी को गिरफ्तार न करने का मुद्दा चर्चा में है। दो राय नहीं, धारा 66-ए विवादित धारा है। समय की मांग है कि सूचना तकनीक कानून व्यावहारिक बने।  सुनिश्चित किया जाए कि संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को इस कानून से ठेस नहीं पहुंचे।

सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई को एक फैसले में व्यवस्था दी कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर आपत्तिजनक टिप्पणी के मामले में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की इजाजत के बगैर किसी को गिरफ्तार न किया जाए। जनभावनाओं के मद्देनजर केन्द्र सरकार ने गत 9 जनवरी को सूचना तकनीक कानून की विवादित धारा 66-ए को लेकर राज्यों को दिशा-निर्देश जारी किए थे। सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से उस पर मुहर ही लगाई है। इस कानून का कई राज्यों में दुरुपयोग हो चुका है। फेसबुक, ट्विटर आदि सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सामान्य असहमति दर्ज करने वाले कई नागरिकों को पुलिस पकड़कर जेल में डाल चुकी है। इसका सबसे शर्मनाक उदाहरण गत वर्ष नवम्बर में महाराष्ट्र के ठाणे शहर के पालघर पुलिस थाने में सामने आया।
आपको याद होगा, गत वर्ष 18 नवम्बर को शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के निधन पर बंद के खिलाफ फेसबुक पर टिप्पणी करने और उसे पसंद (लाइक) करने पर ठाणे की दो लड़कियों को गिरफ्तार किया गया था। शिव सैनिकों ने इन लड़कियों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई। उसके बाद आनन-फानन में रातोंरात सम्बंधित थाने का इन्सपेक्टर लड़कियों को गिरफ्तार कर थाने ले आया। पुलिस ने यह गिरफ्तारी सूचना तकनीक कानून की धारा 66-ए के तहत की थी। इस धारा के खिलाफ देश भर में आवाजें उठीं। अदालत में जमानत के बाद तीसरे दिन ये लड़कियां जेल से छूट पाईं। भारी आलोचना के बाद महाराष्ट्र सरकार की नींद खुली। लड़कियों के खिलाफ मामला बंद करना पड़ा। दो पुलिस अफसर निलंबित हुए। इस घटना के बाद ही केन्द्र सरकार ने राज्यों को दिशा-निर्देश जारी किए जिसके तहत कहा गया कि केवल पुलिस महानिरीक्षक और पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी ही इस धारा के तहत किसी की गिरफ्तारी के लिए अधिकृत होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इसी की पुष्टि की है।
ध्यान देने की बात यह है कि शीर्ष अदालत ने अभी इस धारा की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर अपना कोई फैसला नहीं सुनाया है। यह मामला अभी लंबित है। धारा 66-ए का भविष्य इसी फैसले पर निर्भर है। ठाणे प्रकरण के बाद इस धारा को अदालत में चुनौती दी गई थी। दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून की छात्रा श्रेया सिंघल की जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 30 नवम्बर 2012 को केन्द्र सरकार सहित महाराष्ट्र, प. बंगाल, दिल्ली और पुड्डुचेरी की सरकारों को नोटिस जारी किए थे। इन राज्यों में धारा 66-ए के दुरुपयोग की घटनाएं प्रकाश में आई थीं। ठाणे की घटना के कुछ अरसा पूर्व पुड्डुचेरी के रवि श्रीनिवासन को भी पुलिस घर से पकड़कर ले गई थी। रवि ने ट्विटर पर वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम और सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा के बारे में अपनी राय व्यक्त की थी। प. बंगाल में जाधवपुर विश्वविद्यालय के दो प्रोफेसरों को भी जेल की हवा खानी पड़ी, क्योंकि इनमें से एक ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर कार्टून बनाया था और दूसरे प्रोफेसर ने कार्टून अन्य लोगों को ई-मेल से भेजा था। मुम्बई में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी पर बवाल मचा। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर व्यक्त अभिव्यक्तियों को जिस तरह दबाने की कोशिशें की गईं, उससे लोगों को लगा कि सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने पर तुली है। प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी सरकार की इन कार्रवाइयों का कड़ा विरोध हुआ। परिणामस्वरूप आज केन्द्र सरकार भी स्वीकार कर रही है कि धारा 66-ए के तहत मिले अधिकारों का पुलिस व शासन ने दुरुपयोग ही किया है।
सुप्रीम कोर्ट की ताजा व्यवस्था इसी दृष्टिकोण को मजबूती देती है। पालघर थाने के निचले दर्जे के पुलिस कर्मचारी जिस तरह लड़कियों को पकड़कर थाने में ले आए, वह कतई उचित नहीं था। न्यायमूर्ति वी.एस. चौहान व न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की पीठ की इस व्यवस्था के बाद सबकी निगाहें मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर व जस्टिस जे. चेलमेश्वर की पीठ पर टिकी हैं, जो मुख्य मामले की सुनवाई कर रही है। श्रेया सिंघल ने जनहित याचिका में धारा 66-ए को निरस्त करने की मांग की है। याचिका में कहा गया है कि इस धारा से नागरिकों को मिले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन हो रहा है। यह धारा संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन है। याचिका में शीर्ष अदालत से मांग की गई है कि पुलिस को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 व156(1) में मिले गिरफ्तारी के अधिकार को अनुच्छेद 19 (1) यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अनुकूल बनाया जाए।
धारा 66-ए की कई विसंगतियों और विरोधाभासों को लेकर कानूनविद् अपनी राय प्रकट कर चुके हैं। इसमें दो राय नहीं कि यह एक विवादित धारा है। सूचना तकनीक कानून वर्ष 2000 में बनाया गया था और 2008 में इसे संशोधित करते हुए धारा 66-ए जोड़ी गई थी। समय की मांग है सूचना तकनीक कानून को व्यावहारिक बनाया जाए। विवादित बिन्दुओं पर गौर किया जाए। कम-से-कम यह सुनिश्चित किया जाए कि संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को इस कानून से कोई ठेस नहीं पहुंचे।
'टैम' का पलटवार
टीवी के दर्शकों की संख्या का हिसाब-किताब रखने वाली एजेन्सी 'टैम' (टेलीविजन ऑडियंस मैजरमेंट) पर विवादों के बावजूद टीवी प्रसारण उद्योग आज भी इसी एजेन्सी पर निर्भर है। टैम मीडिया रिसर्च प्रा.लि. की मीडिया रेटिंग को लेकर जब-तब विवाद छिड़ते रहे हैं। एन.डी. टीवी और प्रसार भारती 'टैम' पर गलत आंकड़े देने का आरोप लगा चुके हैं। अब बारी 'टैम' की है। 'टैम' ने अपने द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों को गलत ढंग से पेश करने तथा स्वयं को नम्बर वन टीवी चैनल घोषित करने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने का मुद्दा उठाया है। 'टैम' के अनुसार खास अवसरों पर चैनलों की यह प्रवृत्ति अकसर सामने आती है। चुनावों के दौरान सारे चैनल स्वयं को नंबर वन बताने लगते हैं। 'टैम' ने इस प्रवृत्ति पर अंकुश के लिए एक स्टैंडर्ड मीडिया गाइड लाइन जारी की है। इसमें कहा गया है कि 'टैम' डाटा भारतीय टीवी दर्शकों के व्यवहार को अच्छी तरह समझता है। 'टैम' ने डाटा और आंकड़े जुटाने के तरीकों में काफी बदलाव किया है। अत: जब भी कोई चैनल अपनी पोजिशन का दावा करे तो वह साफ तौर पर समय, दिन और बाजार का भी उल्लेख करे ताकि लोगों को सही तथ्यों की जानकारी मिल सके। इतना ही नहीं 'टैम' ने अपनी टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पाइन्ट्स) व्यवस्था में पारदर्शिता के लिए छह सदस्यीय पैनल का गठन भी किया है। 'टैम' की यह कवायद उसकी विवादित छवि को धोने में कितनी मददगार होगी, यह आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन अपने ऊपर होते टीवी चैनलों के हमलों का उसने माकूल जवाब देने की 'जुगत' जरूर कर ली है।

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कभी अति, कभी अनदेखी

दर्शकों-श्रोताओं से दूर जाकर कोई चैनल अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता, लेकिन क्या यह सचमुच टीआरपी की अंधी दौड़ है या कुछ और भी? समाचार चैनलों का मौजूदा बर्ताव (या भटकाव!) कई सवाल खड़े करता है, लेकिन मीडिया को सबसे ऊपर उठकर देखने की जरूरत है खासकर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को।

कई बार मीडिया समान महत्व के मुद्दों में से किसी एक को उछालकर बाकी मुद्दों से आंख फेर लेता है। मान लेता है कि अपना दायित्व पूरा हुआ। कई बार मीडिया कमतर मुद्दों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, लेकिन जरूरी मुद्दों की अनदेखी कर जाता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो भेड़चाल साफ दिखाई पड़ती है। नरेन्द्र मोदी के भाषणों की सजीव प्रसारण की होड़ शुरू हुई, तो कोई चैनल पीछे रहना नहीं चाहता। जो चैनल मोदी को पानी पी-पी कर कोसते थे, वे भी इस होड़ में शामिल हो गए। टीआरपी के लिए सब जायज है। ठीक है, दर्शकों-श्रोताओं से दूर जाकर कोई चैनल अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता, लेकिन क्या यह सचमुच टीआरपी की अंधी दौड़ है या कुछ और भी? समाचार चैनलों का मौजूदा बर्ताव (या भटकाव!) कई सवाल खड़े करता है। चुनाव नजदीक आ रहे हैं। राजनीतिक दलों के लिए उन मुद्दों को उछालना कोई नई बात नहीं है, जो उनके सियासी हितों को पूरे करते हों। जिन मुद्दों से सियासी हित नहीं सधते, ऐसे मुद्दे उनके लिए कोई मायने नहीं रखते हैं। लेकिन मीडिया को इससे ऊपर उठकर देखने की जरूरत है, खासकर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को।
सरबजीत सिंह का ही मामला लें। ऐसा नहीं है कि अफजल गुरु को फांसी के बाद ही सरबजीत का मुद्दा उठा। समाचार चैनल काफी पहले से ही यह मुद्दा उठाते रहे हैं। सरबजीत की बहन दलजीत कौर के विस्तृत बयान, इंटरव्यू, परिजनों की प्रतिक्रियाएं आदि को लेकर चैनल भावुक कहानियां दिखाते रहे हैं। कई बार ऐसा भी देखा गया कि किसी एक चैनल ने बिना किसी संदर्भ या प्रसंग के सरबजीत के परिजनों से बातचीत कर ली, तो दूसरे चैनल भी शुरू हो गए। यह सही है कि सरबजीत का मामला हटकर है, लेकिन चैनलों में इस मुद्दे को लेकर जिस तरह विवेकहीन प्रतिस्पर्धा रही, उससे सरबजीत मानों दो देशों के बीच सम्बंधों के प्रतीक बन गए। इसीलिए सरबजीत की हत्या पर भारत में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। राजनेताओं ने इसी का फायदा उठाकर खूब बयान दिए। अपनी-अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश हुई। हर कोई मीडिया में बयान देकर मानो अपने को दर्ज करा देना चाहता हो। मीडिया के जरिए जो भावनात्मक उफान पैदा किया गया, उसका लाभ उठाने में कोई पीछे नहीं छूटा। पंजाब की अकाली सरकार ने तुरत-फुरत सरबजीत को शहीद का दर्जा दे डाला। ऊपर से तीन दिन का राजकीय शोक! राहुल गांधी का कभी कोई बयान नहीं आया था, वे भी सरबजीत के परिजनों को ढांढस बंधाने जा पहुंचे। अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए भिखीविंड में होड़ मच गई। मीडिया के कैमरे इतने कि आंखें चौंधिया जाएं। हर कोई शवयात्रा को 'लाइव' बनाने में जुट गया।
पाकिस्तान में पहले भी ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। थोड़े दिन पहले ही लाहौर की उसी कोट लखपत जेल में चमेल सिंह को कैदियों ने मार डाला, जहां सरबजीत पर हमला किया गया था। लेकिन चमेल सिंह के लिए किसी ने दो आंसू भी नहीं बहाये। कम-से-कम ऐसा ज्वार तो बिल्कुल नहीं उठा, जो सरबजीत के मामले में हुआ। क्या इसलिए कि मीडिया ने चमेल सिंह के मुद्दे को उछाला नहीं? या फिर इसलिए कि चमेल सिंह का मामला किसी राजनीतिक दल का हित नहीं साधता था? भारत के कितने कैदियों के साथ पाकिस्तान में क्या बर्ताव हो रहा है, किसी चैनल ने जानने की कोशिश नहीं की। कोट लखपत जेल में ही बंद 20 भारतीय कैदी तो ऐसे हैं, जो मानसिक रूप से बीमार हो चुके हैं। पकड़े जाते वक्त ये लोग बिल्कुल स्वस्थ थे। लेकिन जेल में इनके साथ हुए बर्ताव ने इन्हें लगभग पागल होने की कगार पर पहुंचा दिया। इनके साथ क्या बदसलूकी और उत्पीडऩ हुआ होगा, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। सारे मानवाधिकारी मौन हैं।
दोनों देशों के बंदियों के लिए बनी भारत-पाकिस्तान न्यायिक समिति ने हाल ही पाकिस्तान दौरे में पाया कि कराची, रावलपिंडी और लाहौर में बंद 535 कैदियों में से 469 को तो नियमानुसार भारतीय दूतावास के अधिकारियों से मिलने तक नहीं दिया गया। गौरतलब है कि इनमें 483 गरीब मछुआरे हैं, जो मछली पकड़ते वक्त अनजाने में सीमा पार कर गए। समुद्र में सीमा का भ्रम हो ही जाता है। रोजी-रोटी की तलाश में गए अक्सर दोनों देशों के मछुआरे पकड़े जाते हैं। उन्हें छोड़ा भी जाता है। लेकिन पाकिस्तानी जेलों का जो हाल है, उसमें थोड़े समय में ही बंदी के साथ जो बर्ताव होता है, वह असहनीय है। भारत सरकार के विदेश मामलों के मंत्रालय के अनुसार पाकिस्तान की जेलों में 1,184 भारतीय बंदी हैं। इन्हें मुक्त कराने में केन्द्र सरकार क्या कर रही है तथा इन बंदियों का पाकिस्तान में क्या हाल है, यह जानना भी जरूरी है। लेकिन इनके परिजनों की व्यथा मीडिया में अक्सर स्थानीय विवरणों में गुम होकर रह जाती है।
इतना ही नहीं, सबसे दुखद मुद्दा तो उन 53 सैन्य कर्मियों का है, जो 1965 व १1971 के युद्ध में सीमा की रक्षा करते हुए पाक सैनिकों के हत्थे चढ़ गए। इनका आज तक कोई पता नहीं चल पाया है कि ये जिन्दा हैं या मर गए। पाकिस्तान इनके बारे में खामोश है। इनके दुखी परिजन अपनी पीड़ा व्यक्त करते रहे हैं। मेजर एस.सी. गुलेरी के परिजन पिछले 42 साल से उनके घर लौटने का इंतजार कर रहे हैं। मेजर का वाकिया कम दर्दनाक नहीं। दो दिन पहले उनकी शादी हुई थी। 1971 का युद्ध छिड़ गया। अचानक सेना से बुलावा आया और वे सरहद पर चले गए। लेकिन वापस कभी नहीं लौटे। कैप्टन जे.सी. शर्मा के परिजन भी लंबे अरसे से उनके घर लौटने का इंतजार कर रहे हैं। ये लोग वे थे, जो हमारी रक्षा करने के लिए सीमा पर गए थे। समय-समय पर इन 53 युद्ध बंदियों के परिजन भारत सरकार से मांग करते रहे हैं, लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगती। इन्हें लेकर केन्द्र सरकार क्यों इतनी लाचार है? इस दौरान विभिन्न राजनीतिक दल केन्द्र की सत्ता में रहे। किसी ने भी भारत के युद्ध बंदियों को लेकर गंभीर प्रयास नहीं किए। क्यों? मीडिया के लिए यह मुद्दा कभी इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा, जितना हाल में सरबजीत का रहा। सरबजीत का मुद्दा उठाना, गलत नहीं। गलत दूसरे मुद्दों की अनदेखी है। सरबजीत की प्रतिक्रिया भारत में सनाउल्लाह के रूप में सामने आई। अगर यह सिलसिला चल पड़े तो कितना खतरनाक होगा? इन दोनों मामलों को लेकर जो सियासी नफा-नुकसान भारत के राजनीतिक दलों से जुड़ा है, वही पाकिस्तान में भी है। 10 मई को पाकिस्तान में चुनाव है। सियासी पार्टियां अपनी-अपनी चालें चल रही हैं। वे दोनों मामलों को अपने ढंग से भुनाने की कोशिश कर रही हैं। वे मीडिया को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहती हैं। मीडिया इस दिशा में अधिक सजग नहीं दिखता। वह किस मामले में अति करेगा, तथा किस मामले की अनदेखी; कुछ भी कहना आसान नहीं।

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