RSS

साइबर, सिनेमा और मीडिया

साइबर अश्लील साहित्य पर रोक लगाने को लेकर सुझाव मांगे गए हैं। बच्चों के लिए तो ऐसा तंत्र बनाना ही होगा, जो उन्हें ऐसे अश्लील साहित्य से रोक सके। कुछ देश ऐसा कर भी रहे हैं। लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि इस समस्या का समग्र समाधान होना चाहिए। केवल साइबर साहित्य पर रोक लगाकर बच्चों व युवाओं को 'पथभ्रष्ट' होने से नहीं रोका जा सकता।

देश के प्रमुख अखबारों में राज्य सभा सचिवालय की ओर से एक विज्ञापन छपा है। इसमें साइबर अश्लील साहित्य पर रोक लगाने सम्बन्धी एक याचिका पर लोगों के लिखित सुझाव व टिप्पणियां आदि आमंत्रित की गई हैं। राज्य सभा सांसद भगत सिंह कोश्यारी की अध्यक्षता में गठित समिति इस याचिका पर विचार कर रही है।
जैनाचार्य विजयरत्नासुन्दर सुरिजी और राज्य सभा सांसद विजय दर्डा की याचिका में कहा गया है कि भारत की दो-तिहाई जनसंख्या 35 वर्ष से कम आयु वाले व्यक्तियों की है। हमारी जनसंख्या का यह बड़ा हिस्सा, जो हमारे राष्ट्र की भविष्य की आशा है, वह साइबर अश्लील साहित्य के माध्यम से पथभ्रष्ट, विकृत और भ्रमित हो रहा है। याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि साइबर अश्लील साहित्य से किशोरों यहां तक कि वयस्कों पर भी अत्यन्त दुष्प्रभाव पड़ रहा है, जिससे मानसिक-शारीरिक प्रकृति की कई प्रकार की समस्याएं, यौन रोग, लैंगिक विकृतियां इत्यादि उत्पन्न हो रही हैं। इससे बच्चों के यौन शोषण के मामलों में भी वृद्धि हो रही है। आजकल कम्प्यूटर और टेलीविजन के अतिरिक्त मोबाइल फोन भी किशोरों के लिए इस प्रकार की अश्लील साइट्स देखने का एक आसान जरिया बन गए हैं। लिहाजा इन पर रोक लगाने के कदम उठाए जाएं।
याचिका में आई.टी. यानी सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम-2000 में संशोधन करने का आग्रह किया है ताकि कम्प्यूटर/मोबाइल पर अश्लील साहित्य को देखना एक ऐसा अपराध बनाया जा सके जिसके लिए ऐसी साइट्स के निर्माताओं, वितरकों और उसे देखने वालों के लिए कड़ी सजा का उपबंध हो।
इस याचिका का आशय स्पष्ट है, परन्तु निहित उद्देश्य अस्पष्ट है। इसमें साइबर साहित्य से बच्चों व युवाओं पर पडऩे वाले कुप्रभावों पर जो चिन्ता जाहिर की गई है वह एकांगी और अपूर्ण है। इसलिए बड़ा सवाल यह है कि याचिका से क्या हासिल होगा। मान लें राज्य सभा की याचिका समिति ने साइबर अश्लील साहित्य पर रोक लगाने की अनुशंसा कर दी तो क्या केन्द्र सरकार रोक लगा पाएगी? और मान लें कि केन्द्र सरकार ने रोक लगा दी तो क्या अकेले साइबर साहित्य पर रोक पर्याप्त होगी? अगर अश्लील साहित्य देश में किसी भी माध्यम से सुलभ है तो कोई उससे कैसे बच सकता है। सिनेमा, टीवी और मीडिया भी मौजूदा दौर में अश्लीलता के लिए काफी हद तक जिम्मेदार ठहराए जा रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि इनकी पोर्न साइट्स से तुलना नहीं की जा सकती। लेकिन बच्चों और किशोरों के कच्चे मन पर कई बार इनके कुप्रभाव भी सामने आए हैं। देश में इनकी पहुंच साइबर संसार से ज्यादा व्यापक है। ये माध्यम अलग-अलग कानून और आचार-संहिताओं के दायरे में आते हैं। ऐसे में अकेले सूचना प्रौद्योगिकी कानून-2000 में संशोधन से क्या होगा।
हाल ही में12 जुलाई को केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पोर्न साइट्स को लेकर जो दलील दी है उससे तो साफ है कि वह इन पर रोक लगाने में सक्षम ही नहीं है। इससे पहले सरकार ने 13 जून को जिन 39 वेबसाइट्स को प्रतिबंधित किया था वे ही नहीं रोकी जा सकी तो ऐसी सैकड़ों साइट्स को सरकार कैसे रोक पाएगी। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बाकायदा शपथ-पत्र पेश कर कहा कि सभी विदेशी पोर्न साइट्स पर रोक लगाना संभव नहीं है, क्योंकि इन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। ये ज्यादातर अमरीका या अन्य देशों से संचालित होती हैं। अमरीकी साइट्स 18 यूएससी 2257 के तहत संचालित है। इसका मतलब यह नहीं कि अश्लील साइट्स पर रोक नहीं लगानी चाहिए। खासकर, बच्चों के लिए तो ऐसा तंत्र बनाना ही होगा, जो उन्हें रोक सके। कुछ देश ऐसा कर भी रहे हैं। लेकिन महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि इस समस्या का समग्र समाधान होना चाहिए। केवल साइबर साहित्य पर रोक लगाकर बच्चों व युवाओं को 'पथभ्रष्ट' होने से नहीं रोका जा सकता।
बर्दाश्त नहीं आलोचना
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं—मीडिया की तो कतई नहीं। आपको याद होगा कार्टून मसले पर दो प्रोफेसरों की गिरफ्तारी की जब देश भर के मीडिया में आलोचना हुई तो उन्होंने धमकी दे डाली कि पश्चिम बंगाल में वे सरकारी टीवी चैनल चालू करेंगी। फिर उन्होंने अखबारों पर गुस्सा निकाला। उन्होंने प. बंगाल के सभी सरकारी तथा सरकार की मदद से चलने वाले पुस्तकालयों में उन अखबारों पर रोक लगा दी, जो उनकी आलोचना करते थे। इन पुस्तकालयों को सिर्फ वे अखबार ही खरीदने की छूट है, जिनके नाम सरकार ने तय कर रखे हैं। इनमें हिन्दी का एक भी अखबार नहीं है। तेरह अखबारों की सरकारी सूची में ज्यादातर उन अल्पज्ञात अखबारों के नाम हैं जो 'दीदी' के गुणगान के लिए जाने जाते हैं।
पिछले साल जब सरकार का यह फैसला आया तो अधिवक्ता वासवी रायचौधरी ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर सरकार के फैसले को अनैतिक और द्वेषपूर्ण बताया। उन्होंने इस फैसले को खारिज करने की मांग की, जिस पर गत दिनों सुनवाई करते हुए कोलकाता हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के आदेश को संशोधित करने का आदेश दिया है। हाईकोर्ट ने कहा है कि लोकप्रिय और बहु-प्रसारित अखबारों को पुस्तकालयों में रखने की निषेधाज्ञा को तुरन्त खत्म कर दिया जाए। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को 17 जुलाई तक का समय दिया है। और साथ ही चेताया भी है कि अगर सरकार ऐसा स्वयं नहीं करती तो हाईकोर्ट की ओर से समुचित व्यवस्था की जाएगी।
अब देखना है कि सरकार अपना अडिय़ल रवैया छोड़कर बाकी अखबारों के पढऩे के पाठकों के अधिकार की बहाली करती है कि नहीं।
विज्ञापन बनाम खबर
विज्ञापन के बदले खबर छापने या प्रसारित करने के आरोप मीडिया पर अक्सर लगाए जाते हैं। यह उदाहरण रंगे हाथ पकड़े जाने का है। लखनऊ के एक हिन्दी दैनिक ने चार कॉलम में खबर छापी— 'डीएवी कैंट एरिया के छात्रों ने लहराया परचम'। कई छात्रों के फोटो भी थे। खबर के बीच में रंगीन बॉक्स में लिखा— 'डीएवी स्कूल अपना विज्ञापनदाता है। इस कारण कृपया इस खबर को रंगीन पेज पर सभी फोटो के साथ जगह देने की कोशिश करें...' दरअसल, ये पंक्तियां किसी सीनियर द्वारा दिया गया ऐहतियाती निर्देश था, जो कंपोज होकर हूबहू अखबार में छपा गया और पाठकों के हाथ में भी पहुंच गया।

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS

0 comments: