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मीडिया से क्यों नाराज

यह शोचनीय स्थिति है—मीडिया के लिए भी और नेताओं के लिए भी, जो बिना सोचे-समझो कुछ भी बोल देते हैं। राजनेता बयान तो दे देते हैं, लेकिन जब विरोध होता है तो पलट जाते हैं या यह कहते हैं 'मेरा यह मतलब नहीं था।' इसलिए कहा जाता है, सोच-समझाकर बोलिए। सार्वजनिक जीवन में रहने वालों पर यह बात ज्यादा शिद्दत से लागू होती है।

वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह मीडिया से खफा हैं। क्योंकि सांसद मीनाक्षी नटराजन के बारे में उनके बयान को मीडिया ने गलत परिभाषित किया। दिग्विजय सिंह ही क्यों, कांग्रेस प्रवक्ता राज बब्बर, सांसद रशीद मसूद, केन्द्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला आदि राजनेता भी मीडिया से खफा होंगे, जिसने उनके सस्ते भोजन सम्बंधी बयानों को गलत परिभाषित किया। भले इन नेताओं ने दिग्विजय सिंह की तरह मीडिया पर प्रत्यक्षत: कोई दोष नहीं मंढा, मगर यह हकीकत है कि मीडिया के व्यापक विश्लेषण के चलते इन नेताओं को अपने बयानों पर खेद जताना पड़ा। रशीद मसूद अड़े रहे। इसके बावजूद कि वे दिल्ली में 5 रु. में खाना उपलब्ध होने का अपना दावा साबित नहीं कर सके। अलबत्ता, मीडिया ने पूरी दिल्ली में घूम-घूमकर यह जरूर साबित कर दिया कि भरपेट भोजन का भाव क्या है। दिग्विजय सिंह की जबान फिसल गई, लेकिन वे मानने को तैयार नहीं कि उनसे गलती हो गई। उल्टे मीडिया को ही शब्दों और मुहावरों का पाठ पढ़ा रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने कहा, 'मीडिया टीआरपी की अंधी दौड़ में भाग रहा है। किसी व्यक्ति की प्रशंसा में इस्तेमाल किए गए एक प्रचलित मुहावरे पर भी मीडिया ने सेक्स का लेबल चस्पां कर दिया। यह बहुत शोचनीय है।'
सचमुच यह शोचनीय स्थिति है—मीडिया के लिए भी और नेताओं के लिए भी, जो बिना सोचे-समझो कुछ भी बोल देते हैं। दो राय नहीं कि मीडिया अंधी दौड़ में भाग रहा है और उसने दिग्विजय सिंह के 'सौ टंच माल' के बयान को जिस तरह लपक कर लिया इससे उसकी नीयत का खुलासा हुआ। लेकिन दिग्विजय सिंह जी! आपने भी क्या कह दिया। माना आपने बुरी नीयत से नहीं कहा। जिसके लिए कहा उसने (सांसद) भी बुरा नहीं माना। लेकिन क्या सचमुच आपने एक प्रचलित मुहावरे का इस्तेमाल किया? 'सौ टंच माल!' क्या आप जैसे वरिष्ठ राजनेता को यह जानकारी नहीं कि असली मुहावरा 'सौ टंच खरा' है न कि 'सौ टंच माल।' आप वाले 'मुहावरे' का एक स्त्री के संदर्भ में इस्तेमाल करने के क्या मायने हैं। ऐसा तो बम्बइया फिल्में करती हैं, जिसे बोलचाल में 'टपोरी' भाषा कहते हैं। आप 'सौ टंच खरा सोना' कहना चाहते होंगे। बाद में आपके बयानों से भी यह स्पष्ट हुआ। तो आप यही बोलते। जो शब्द आप बोलते हैं, उसके मायने भी वही निकाले जाएंगे, जो वास्तव में हैं। अगर आप कहते हैं पांच रु. में भरपेट भोजन। तो लोग आपसे 5 रु. में भरपेट भोजन मांगेंगे। आप गरीबों का मजाक नहीं उड़ा सकते। राजनेता बयान तो दे देते हैं, लेकिन जब विरोध होता है तो पलट जाते हैं या यह कहते हैं 'मेरा यह मतलब नहीं था।' राजबब्बर और फारुख अब्दुल्ला ने यही किया। भाजपा सांसद चंदन मित्रा ने भी अमत्र्य सेन के बारे दिए बयान के बाद यही किया। इसलिए कहा जाता है, सोच-समझकर बोलिए। सार्वजनिक जीवन में रहने वालों पर यह बात ज्यादा शिद्दत से लागू होती है।
फिर वही घोड़े, वही मैदान
हम मीडिया वालों को यह शिकायत रहती है कि जब तक कोई मामला मीडिया की सुर्खियों में रहता है, उस पर
कार्यवाही का नाटक चलता है। जांच कमेटी बिठाई जाती है। बयान होते हैं। मामला जैसे ही ठंडा पड़ा, गाड़ी पुराने ढर्रे पर लौट आती है। दोषी अफसर या नेता अपनी कुर्सी फिर संभाल लेता है।
मीडिया में भी अपवाद नहीं। हाल ही में उस न्यूज चैनल ने अपने उस रिपोर्टर को चुपचाप वापस काम पर ले लिया, जिसे गुवाहाटी यौन उत्पीडऩ की घटना के बाद हटा दिया गया था। आपको याद होगा, गत वर्ष गुवाहाटी में एक किशोरी अपने दोस्तों के साथ जन्मदिन की पार्टी के बाद रेस्तरां से लौट रही थी। कुछ लोगों ने अचानक उन्हें घेर लिया। इन लोगों ने युवाओं से बर्बरता की। किशोरी के कपड़े फाड़ डाले। स्थानीय न्यूज चैनल ने इस घटना की रिकार्डिंग प्रसारित की। बाद में राष्ट्रीय चैनलों ने भी दिखाया। देशभर में यह घटना यू-ट्यूब के माध्यम से चर्चा का विषय बनी। खूब निन्दा हुई। इस घटना में चैनल न्यूज लाइव के एक रिपोर्टर का नाम सामने आया। सामाजिक कार्यकर्ता अखिल गोगोई ने आरोप लगाया था कि इस रिपोर्टर ने एक्सक्लूसिव वीडियो शूट करने के लिए भीड़ को उकसाया, जिसके परिणामस्वरूप लड़की को बेइज्जत किया गया। हालांकि ऐसी घटनाओं में रिपोर्टर से ज्यादा चैनल दोषी होते हैं, जो टी.आर.पी. के लिए रिपोर्टरों पर दबाव बनाते हैं। लेकिन उस वक्त चौतरफा निन्दा के चलते चैनल ने रिपोर्टर को हटा दिया और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बी.इ.ए.) ने भी मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित की। साल भर बाद मामला ठंडा पड़ गया और चैनल ने आरोपी रिपोर्टर को फिर काम पर रख लिया। मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के अनुसार- 'बी.इ.ए. ने अपना नाम चमकाने और न्यूज चैनल को लोगों के गुस्से से दूर रखने के अलावा किसी दूसरे उद्देश्य से इस कमेटी का गठन नहीं किया था। यह बात अब लगभग साल भर बाद स्पष्ट हो गई है।'
फेसबुक बनाम रिपलन
ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग का इस्तेमाल दुनिया में करोड़ों लोग करते हैं। लोकप्रियता के मामले में आज इनके सामने कोई दूसरी नेटवर्किंग साइट नहीं है। लेकिन 'रिपलन' का दावा है कि वह शीघ्र ही फेसबुक व ट्विटर जैसी साइट्स को पछाडऩे वाली है।
'रिपलन' की लांचिंग अमरीका के लॉस वेगास में 4 अगस्त को होने जा रही है। इंटरनेट मीडिया तकनीक के विशेषज्ञ क्रिस थॉमस के अनुसार इस साइट की खासियत यह है कि यह एक ओर फेसबुक की सभी सुविधाएं उपलब्ध कराएगी, वहीं 'एमेजोन' की तरह यूजर्स को सभी ब्रांडेड कंपनियों से भी जोड़े रखेगी। इस साइट की मदद से ऑनलाइन बिलों का भुगतान भी हो सकेगा। कंपनी का दावा तो यहां तक है कि इसके लांच होते ही विश्व के मीडिया का स्वरूप ही बदल जाएगा। 'रिपलन' ही नहीं, हरेक कंपनी लांचिंग से पहले बड़े-बड़े दावे करती ही है, उन्हें पूरा कितना कर पाती है, यह बाद में ही पता चलता है।

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