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पत्रकारों पर बढ़ते हमले


मौजूदा दौर में पत्रकारिता-कर्म दिनोंदिन मुश्किल बनता जा रहा है।  पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ रही हैं। दरअसल, मीडिया और पत्रकारों पर हमला वही करते हैं या फिर करवाते हैं जो बुराइयों में डूबे हुए हैं। ऐसे लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। ऊपर से सफेदपोश और भीतर से काले-कलुषित। किसी भी घटना से कोई सबक सीखा गया हो, देखने में नहीं आया।
राष्ट्रीय न्यूज चैनल का संवाददाता घायल अवस्था में आप बीती बता रहा था। उस पर आसाराम के समर्थकों ने हमला बोल दिया था। शरीर पर जगह-जगह चोटों के निशान थे। हमलावरों ने कैमरामैन व उसके साथी को भी घायल कर दिया था। कैमरामैन खून से लथपथ था। सिर पर गहरा घाव हुआ था। न्यूज चैनल टीम सदस्यों पर हमला तब हुआ, जब वे जोधपुर के पाल गांव में आसाराम के आश्रम के बाहर रिपोर्टिंग कर रहे थे। आई.बी.एन.-7 के संवाददाता भवानी सिंह एबीपी न्यूज को बता रहे थे—अचानक आश्रम के भीतर से कुछ लोग आए और उन्होंने हम पर हमला बोल दिया। हमें लातों, घूंसों, डंडों से पीटा गया। वे बहुत उग्र थे। यह तो शुक्र था कि आसपास रहने वाले ग्रामीणों ने हमें बचा लिया, वरना हमारी जान भी जा सकती थी। भवानी सिंह ने ग्रामीणों का शुक्रिया करते हुए उनमें से कुछ को कैमरे के सामने भी पेश किया। कैमरे के सामने ही घायल मीडिया कर्मियों को जिसने भी देखा, उसने इस पेशे के मुश्किल हालात पर जरूर सोचा होगा। एक दिन पहले ही भोपाल में भी आसाराम के समर्थकों ने हमला किया था। उन्हें पत्रकारों पर हमला करके मोटर साइकिल से भागते हुए देखा गया था।
मौजूदा दौर में पत्रकारिता-कर्म दिनोंदिन मुश्किल बनता जा रहा है। जैसे-जैसे समाज में पाखंड, अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार और अपराध बढ़ रहा है, पत्रकारों पर हमले की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। दरअसल, मीडिया और पत्रकारों पर हमला वही करते हैं या फिर करवाते हैं जो इन बुराइयों में डूबे हुए हैं। ऐसे लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। ऊपर से सफेदपोश और भीतर से काले-कलुषित। इनके धन-बल, सत्ता-बल और कथित सफल-जीवन से आम जनता चकित रहती है। वह इन्हें सिर-माथे पर बिठा लेती है। लेकिन मीडिया जब इनकी पोल खोलने लगता है तो ये बौखला जाते हैं और उन पर हमले करवाते हैं। पुलिस और शासन-तंत्र इन्हीं का साथ देते हैं। बल्कि कई बार तो मिले हुए भी नजर आते हैं। दिखावे के तौर पर जरूर मामले दर्ज कर लिये जाते हैं, लेकिन होता-हवाता कुछ नहीं। पिछले कई दिनों से आसाराम को लेकर खबरें चल रही थीं। उन पर नाबालिग लड़की के यौन शोषण के गंभीर आरोप लगे थे। इसलिए मीडिया वाले उनके इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे। इधर उनके समर्थक लगातार उग्र होते जा रहे थे। भोपाल और इंदौर में वे मीडिया कर्मियों पर हमला कर चुके थे। आसाराम गिरफ्तार कर जोधपुर लाये जाने वाले थे। उनके आश्रम में सैकड़ों समर्थक इक_े होते जा रहे थे। ऐसे में जोधपुर पुलिस ने सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त क्यों नहीं किए? जिस वक्त मीडिया कर्मियों पर हमला हुआ, पुलिस का कोई अधिकारी वहां क्यों नहीं था? क्यों घटना के तीन घंटे बाद पुलिस हरकत में आई? ऐसे कई सवाल मीडिया कर्मियों पर हर हमलों के बाद उठते रहे हैं। लेकिन किसी भी घटना से कोई सबक सीखा गया हो, देखने में नहीं आया। साफ है पत्रकारों पर हमलों के लिए सिर्फ हमलावर ही नहीं, शासन-तंत्र भी कम जिम्मेदार नहीं है।
ये हालात चिन्ताजनक हैं। खासकर, इसलिए कि पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में भारत विश्व के देशों में निरंतर पिछड़ता जा रहा है। दुनिया में मीडिया और पत्रकारों की सुरक्षा पर नजर रखने वाली ब्रिटेन की संस्था आई.एन.एस.आई. (इंटरनेशनल न्यूज सैफ्टी इंस्टीट्यूट) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सूची में सबसे खराब पांच देशों में भारत पत्रकारों के लिए 'दूसरा सबसे खतरनाक' देश है। पहले नंबर पर सीरिया है। इस संस्था ने  इस वर्ष की प्रथम छमाही आंकड़े जारी किए थे। इसके अनुसार भारत में जनवरी से जून माह तक 6 पत्रकार मारे गए। सीरिया में इस दौरान 8, पाकिस्तान में 5, सोमालिया में 4 और ब्राजील में 3 पत्रकारों की हमलों में मौत हो चुकी है। गौरतलब है कि ये दो माह पुराने आंकड़े हैं। अगर इसमें उत्तर प्रदेश में पिछले दो माह में हुई ४ पत्रकारों की हत्याओं को भी जोड़ दें तो संभवत: भारत सीरिया से भी आगे निकल जाएगा। इटावा जिले में राकेश शर्मा और बुलंदशहर जिले में जकाउल्ला तथा पिछले माह बांदा जिले में शशांक शुक्ला और लखनऊ जिले में लेखराम भारती— ये चार पत्रकार मारे जा चुके हैं। पुलिस अभी तक किसी भी हमलावर को गिरफ्तार नहीं कर पाई है।
स्पष्ट है, पिछले आठ माह में ही देश में 10 पत्रकार विभिन्न हमलों में मारे जा चुके हैं। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश के पत्रकार चन्द्रिका रॉय की परिवार सहित हत्या कर दी गई थी। पत्नी सहित उनके दो मासूम बच्चों को मौत की नींद में सुला दिया गया था। मुम्बई के खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे (जेडी) की हत्या को भी भूला नहीं जा सकता, जो महाराष्ट्र के अंडरवल्र्ड सरगनाओं की सच्चाइयों को उजागर कर रहे थे। मारपीट और कैमरा तोडऩे की तो सैकड़ों घटनाएं हैं। गत वर्ष जोधपुर में ही भंवरी देवी अपहरण कांड के दौरान महिपाल मदेरणा के समर्थकों ने पत्रकारों पर हमला बोल दिया था। छत्तीसगढ़ में पत्रिका के रायगढ़ ब्यूरो प्रमुख प्रवीण त्रिपाठी पर भी पार्षद के लोगों ने जानलेवा हमला किया था। पत्रकारों से मारपीट, अपहरण और हत्याओं की पृष्ठभूमि का एक मात्र सबब यही है कि मीडिया की आवाज को दबाया जाए। निश्चय ही पत्रकार मुश्किल हालात में काम कर रहे हैं। शासन-तंत्र पत्रकारों की सुरक्षा करने में नाकाम रहा है।
फिर संवेदनहीनता!
पत्रकारों में हेकड़ी और संवेदनहीनता की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। टीवी पत्रकारों में यह खासतौर पर देखी जा रही हैं। उत्तराखंड में बाढ़ के दौरान कई घटनाएं सामने आई थीं। एक टीवी संवाददाता तो भरे पानी में बाढ़ पीडि़त एक कमजोर ग्रामीण के कंधे पर बैठकर रिपोर्टिंग करते देखा गया था। ताजा घटना दीपिका कुमारी से जुड़ी है। दीपिका ने तीरन्दाजी में भारत का नाम रोशन किया है। वे गत दिनों पोलैण्ड में सम्पन्न हुए विश्व-कप में स्वर्ण पदक जीतकर स्वदेश लौटी थीं। दीपिका से इंटरव्यू करने के लिए सारे चैनल वाले उन पर मानो टूट पड़े थे। दीपिका ने उनसे गुजारिश की कि सब एक साथ उनसे इंटरव्यू कर लें। क्योंकि वे लगातार अभ्यास, यात्रा की थकान और सो न सकने के कारण सबको अलग-अलग इंटरव्यू देने में असमर्थ हैं। लेकिन संवाददाता अड़ गए। कुछेक तो बाकायदा दीपिका पर तंज कसने लगे, जिसका सार यह था कि स्वर्ण पदक जीतते ही दीपिका आसमान में उडऩे लगी है। संवाददाताओं के कठोर बोल और तानों से आहत दीपिका कुमारी सबके सामने ही रो पड़ीं। लेकिन खबर के भूखे संवाददाताओं पर कोई असर नहीं था। क्या देश का गौरव बढ़ाने वाली एक खिलाड़ी का हम मीडिया वाले इस तरह से स्वागत करते हैं! 30 अगस्त के अंक में 'हिन्दू' ने इस पूरी घटना का विवरण प्रकाशित किया और बिलखती हुई दीपिका कुमारी का फोटो भी, जो पीटीआई ने जारी किया था। इस विवरण को पढ़कर हर कोई यही कहेगा—संवेदनहीन मीडिया!!

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1 comments:

पूरण खण्डेलवाल said...

हालांकि मीडियाकर्मियों पर हमला होना दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन मीडिया ( इलेक्ट्रोनिक ) का भी अतिवादी और पक्षपातपूर्ण रुख लगातार दिखाई पड़ रहा है !