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गांधी मैदान की 'लाइव' कवरेज

आयोजकों के कुशल प्रबंधन और देरी से ही सही सतर्क हुई पुलिस व्यवस्था के चलते धमाकों के बीच पटना रैली नियोजित ढंग से सम्पन्न हो गई। न्यूज चैनल वालों ने भी अपने को संयत कर लिया था। शुरुआती विचलन के बाद वे संभल गए थे। रिपोर्टरों और कैमरामैन ने बहुत शानदार तरीके से मोर्चा संभाला। वे दो टीमों में बंटकर दायित्व निभा रहे थे।

रविवार को जो भी टीवी न्यूज चैनल देख रहा था, हतप्रभ था। पटना के गांधी मैदान में लाखों लोग जमा थे। मंच से उद्घोषणाएं हो रही थीं। नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा के बड़े नेताओं के पहुंचने का इंतजार था। वे साढ़े बारह बजे सभा-स्थल पर पहुंचेंगे। अभी आधा घंटा बाकी था। मैदान में भीड़ लगातार बढ़ रही थी। सुबह साढ़े नौ बजे पटना रेलवे स्टेशन पर दो धमाके हुए थे। उस वक्त रैली में आने वालों की विशेष रेलगाडिय़ां पटना स्टेशन पर पहुंच रही थीं। जबरदस्त भीड़-भड़क्का था। धमाके मामूली बताए गए। कोई जान-माल के नुकसान की खबर नहीं थी। स्टेशन पर किसी तरह की अफरा-तफरी की खबर भी नहीं थी। लेकिन चैनलों पर कयासबाजी शुरू हो चुकी थी। रैली की सुरक्षा को लेकर अटकलें लगाने और टिप्पणियां करने से टीवी एंकर बाज नहीं आ रहे थे। लग रहा था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कहीं पटरी से उतर कर कुछ अनहोनी का बायस नहीं बन जाए। प्रशासन और सुरक्षा एजेन्सियों के लोग साफ कर रहे थे कि धमाके बहुत मामूली थे। एक अधिकारी ने डींग हांकी—रैली से इन धमाकों का कोई 'कनेक्शन' (सम्बन्ध) नहीं है। लाइव रिपोर्टिंग से ही मालूम चला कि धमाकों से बेखबर लोग गांधी मैदान में जुट रहे थे। लोगों के आने का सिलसिला थमा नहीं था। स्थानीय नेताओं की भाषणबाजी चल रही थी।
अचानक पौने बारह बजे मैदान के पूर्वी छोर पर एक धमाका हुआ। रेलवे स्टेशन के बाद मैदान के पास यह पहला धमाका था। फिर क्या था। टीवी चैनलों के कैमरों का रुख पलट गया। रैली की बजाय इस धमाके पर फोकस होने लगा। एकबारगी तो लगा, लाइव कवरेज कर रहा सारा मीडिया इधर ही न उमड़ पड़े और सभा कहीं उखड़ न पड़े। इसी बीच मैदान के दूसरे छोर पर एक और धमाका हुआ। मंच से फिर घोषणा हुई—कृपया पटाखे न फोड़ें। कवरेज बता रही थी कि स्थानीय नेताओं के भाषण सुन रहे लोग अविचलित डटे रहे। मानों सचमुच पटाखे ही फूट रहे हैं। सिलसिला शुरू हो गया था। एक के बाद एक धमाके। बीस मिनटों में कुल छह धमाके। किसी को पता नहीं, क्या हो रहा है। स्टूडियो में बैठी एक न्यूज चैनल की एंकर चीख रही थी। उसे कुछ समझ नहीं पड़ रहा था। कभी वह रिपोर्टर से पूछती, कभी खुद ही बड़बड़ाती। सचमुच हतप्रभ करने वाले क्षण थे वे।
लाइव रिपोर्टिंग में प्राय: ऐसा ही होता है। घटनाएं हमारे आंखों के सामने घटती हैं। जो दिखाई देता है, वही सच लगता है। लाखों लोगों की भीड़ एकत्रित थी। महज एक अफवाह या गलतफहमी पूरे परिदृश्य को बदल कर रख सकती थी। उस वक्त देश भर में अनेक लोग न्यूज चैनलों को देख रहे होंगे। धुएं का उठता गुबार। भागते-बचते लोग। कुछ लोग घायलों की मदद करते हुए भी। सुरक्षाकर्मियों की घेराबंदी। चीख-पुकार। अफरा-तफरी। मैदान के जिस हिस्से में घटना घटी, बस वहीं तक यह सब सीमित। शायद तब तक दूसरी तरफ  कैमरे गए न हों। मुख्य मैदान में जमी भीड़ को जैसे मालूम ही न हो, मैदान में सीरियल ब्लास्ट हो रहे हैं। ऐसा पहली बार था। टीवी देखने वाले कयास लगा रहे थे, रैली रद्द होगी या नहीं। मुख्य वक्ता भाषण देने आएं या न आएं। मगर मुख्य वक्ता आए। भाषण भी हुए। लोग सुनते रहे और बाद में शान्ति से लौट भी गए।
कह सकते हैं कि रैली के आयोजकों के कुशल प्रबंधन और देरी से ही सही सतर्क हुई पुलिस व्यवस्था के चलते धमाकों के बीच एक बड़ी रैली नियोजित ढंग से सम्पन्न हो गई। लेकिन इतना ही नहीं था। न्यूज चैनल वालों ने भी अपने को संयत कर लिया था। शुरुआती विचलन के बाद वे संभल गए थे। रिपोर्टरों और कैमरामैन ने बहुत शानदार तरीके से मोर्चा संभाला। वे दो टीमों में बंटकर दायित्व निभा रहे थे। एक टीम मुख्य मैदान में स्थित घटना से अनभिज्ञ भीड़ और मंच पर केन्द्रित रही। दूसरी टीम मैदान के सिरों पर डंटी रही। जहां घटना घटती, दौड़कर वहीं पहुंच जाते। वे जानकारियों को संतुलित ढंग से दर्शकों तक पहुंचा रहे थे। स्टूडियो में बैठे एंकरों के हवाई सवालों को दरकिनार भी कर रहे थे। बीच-बीच में धमाकों की असरहीनता भी बता रहे थे, इससे 'पेनिक' नहीं फैला। हालांकि धमाकों में छह लोग मारे गए। कई घायल हुए। मगर सूचनाओं के संतुलन ने लोगों के मिजाज को सामान्य बनाए रखने में खासी भूमिका निभाई। आधी-अधूरी जानकारियां ऐसे वक्त पर लोगों के मिजाज को कैसे गर्मा देती है, यह हम मुजफ्फरनगर के दंगों में देख चुके हैं। अभी कुछ दिन पहले मीडिया, खासकर हिन्दी चैनलों ने किले के नीचे गड़े खजाने को लेकर जैसा 'महाअभियान' चलाया था, उससे उनकी काफी फजीहत हुई थी। देश में ही नहीं विदेशी समाचार जगत में भी उनकी हंसी उड़ी थी। इस पृष्ठभूमि में पटना के गांधी मैदान की रिपोर्टिंग कुछ आश्वस्त करती नजर आई।
ऑनलाइन पत्रकारिता
गत 19 अक्टूबर को ऑनलाइन न्यूज एसोसिएशन (ओ.एन.एस.) की ओर से प्रतिवर्ष दिए जाने वाले ऑनलाइन पत्रकारिता पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस अवसर पर ब्रिटेन के 'द गार्जियन' को ऑनलाइन पत्रकारिता के दो पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 'द गार्जियन' को रचनात्मक खोजी पत्रकारिता के लिए अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी की पूर्व खुफिया अधिकारी एडवर्ड स्नोडेन द्वारा लीक की गई जानकारियों को उजागर करने के लिए पुरस्कृत किया गया।  'द न्यूयार्क टाइम्स डाट कॉम' और 'द बोस्टन ग्लोब डाट काम' को भी पुरस्कारों के लिए चुना गया। न्यूयार्क टाइम्स अखबार को भी 'स्नोफाल' नामक फीचर रिपोर्टिंग के लिए चयनित किया गया। 'द बोस्टन ग्लोब' की वेबसाइट को ब्रेकिंग न्यूज श्रेणी में तथा अखबार को '68 ब्लाक्स' कार्यक्रम के लिए पुरस्कृत किया गया। 'वाशिंगटन पोस्ट' की 'एजरा क्लेन' तथा न्यूजीलैण्ड के 'स्टफ नेशन' को भी ऑनलाइन कमेन्टरी के लिए पुरस्कृत किया गया। रेडियो कनाडा को श्रोताओं से संवाद के एक कार्यक्रम के लिए पुरस्कृत किया गया।

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कैसे हो साफ-सुथरी राजनीति

राजा भैया केवल सपा की सरकार में ही मंत्री बने हों, ऐसी बात नहीं। भाजपा के कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के समय में भी वे मंत्रिमंडल में शामिल रहे हैं। बाहुबलियों का आसरा सभी दल प्राप्त करते रहे हैं। कोई प्रत्यक्ष तो कोई परोक्ष। इस मामले में सारे दलों में समानता है। यही पाखंड से भरी राजनीति कही जाएगी, जिसके चलते देश में शायद ही कभी साफ-सुथरी राजनीति की बात सोची जा सकती है।
 राजनीतिक सुधारों पर राजनीति ही किस तरह निर्लज्जता से प्रहार करती है, यह ज्वलन्त उदाहरण है। देश में आपराधिक रिकार्ड वाले नेताओं के खिलाफ एक वातावरण बन रहा था। केन्द्र सरकार विवादास्पद अध्यादेश वापस लेने को मजबूर हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को पलटने की राजनीतिक दलों की मंशा नाकाम रही थी। चुनाव आयोग ने मतदाताओं को 'नोटा' का विकल्प देकर एक शुरुआत कर दी थी। निष्कर्ष यह कि विभिन्न दलों और सरकारों पर दागियों-अपराधियों को लेकर थोड़ा नैतिक दबाव बन रहा था।
अचानक अखिलेश यादव की सरकार ने इसकी धज्जियां उड़ा दी— बाहुबली नेता राजा भैया को फिर मंत्री बना कर। गत शुक्रवार को लखनऊ के राज भवन में मंत्रिमंडल विस्तार का समारोह आयोजित हुआ। कई आपराधिक मामलों में लिप्त राजा भैया को राजभवन के गांधी सभागार में मंत्री-पद की शपथ दिलाई गई। वह भी अकेले। सिर्फ पांच मिनट में शपथ ग्रहण समारोह सम्पन्न हो गया। राजा भैया फिर से कैबिनेट मंत्री बन गए। समर्थकों ने जयघोष किया— 'राजा भैया जिन्दाबाद! जिन्दाबाद! जिन्दाबाद!!'
यू.पी. के निर्वाचन क्षेत्र कुंडा के निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह को आप जानते हों या नहीं, लेकिन राजा भैया का नाम बखूबी जानते होंगे। आप ही क्यों, उन्हें पूरा देश जानता है। अपने आपराधिक कारनामों से वे मीडिया में अक्सर सुर्खियों में रहते हैं। इस वर्ष मार्च में वे फिर सुर्खियों में आए। जब उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी जिया-उल-हक की पत्नी ने पति की हत्या का उन पर आरोप लगाया। उन्हें मंत्रिमंडल से हटा दिया गया। उनके खिलाफ सी.बी.आई. ने जांच की। जांच के बाद सी.बी.आई. ने उन्हें क्लीन चिट दे दी। हालांकि अदालत में अभी मामला लंबित है। पर रघुराज प्रतापसिंह उर्फ राजा भैया फिर कैबिनेट मंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए।
ध्यान देने की बात यह है कि राजा भैया न तो सत्तारूढ़ दल के विधायक हैं और न ही अखिलेश सरकार को सत्ता में रहने के लिए किसी निर्दलीय विधायक के समर्थन की वैधानिक आवश्यकता है। विधानसभा चुनाव में जनता ने युवा नेता अखिलेश को भरपूर समर्थन दिया था। इसलिए एक बाहुबली नेता को सरकार में शामिल करने की क्या मजबूरी थी, यह सवाल हर किसी के जेहन में था। हत्या के आरोप में इस्तीफा देने के बाद तो सरकार से हर कोई यही उम्मीद कर रहा था कि राजा भैया की मंत्रिमंडल में वापसी संभव नहीं होगी। आखिर कोई सरकार राह चलते बदनामी क्यों मोल ले? खासकर तब, जब देश भर में अपराधियों-दागियों के खिलाफ वातावरण बन रहा हो। लेकिन जिस तरह आनन-फानन में राजा भैया को मंत्रिमंडल में पुन: शामिल किया गया उससे साफ हो गया, उत्तर प्रदेश सरकार को न जनमत की परवाह है और न ही अदालत, चुनाव आयोग जैसी वैधानिक संस्थाओं की। आड़ ली गई सी.बी.आई. की। इस सरकारी संस्था ने राजा भैया को पुलिस अधिकारी की हत्या के आरोप से मुक्त कर दिया। इसलिए राजा भैया निष्कलंक और साफ-सुथरे हैं।
यह बिलकुल संभव है कि राजा भैया इस मामले में निर्दोष हों, लेकिन उनकी जो छवि है, उससे राज्य सरकार क्यों बावस्ता रहना चाहती है? खासकर तब, जबकि राजा भैया आठ अन्य आपराधिक मामलों में भी फंसे हुए हैं। और वे इनमें से किसी में भी दोषमुक्त नहीं हुए हैं। एक मामला तो खुद सी.बी.आई. ही देख रही है। मुद्दा यह नहीं है कि एक दागी और विवादास्पद व्यक्ति को मंत्री बनाया गया, महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे समय में बनाया गया, जब राजनीति में सफाई अभियान की कोशिशें शुरू हुई हैं। संवैधानिक संस्थाएं ही क्यों, राजनीतिक संस्थाएं भी इसके लिए प्रतिबद्ध होनी चाहिए। जिस व्यापक बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंपी उससे तो राजनीतिक शुचिता के लिए उसकी जिम्मेदारी अधिक बढ़ जानी चाहिए थी। लेकिन अफसोस की बात है कि जब राहुल गांधी के बयान के बाद विवादास्पद विधेयक वापस लेने के कयास लगाये जा रहे थे तो सबसे पहले समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने ही विरोध किया। एक ऐसा राज्य जिसकी देश के प्रधानमंत्री के चुनाव में सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका मानी जाती है, उस राज्य के राजनीतिक कर्ता-धर्ताओं का यह रवैया दुर्भाग्यपूर्ण है। राजा भैया केवल समाजवादी पार्टी की सरकार में ही मंत्री बने हों, ऐसी बात नहीं। भाजपा के कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह के समय में भी वे मंत्रिमंडल में शामिल रहे हैं। बाहुबलियों का आसरा सभी दल प्राप्त करते रहे हैं। कोई प्रत्यक्ष तो कोई परोक्ष। इस मामले में सारे दलों में समानता है। यही पाखंड से भरी राजनीति कही जाएगी, जिसके चलते देश में शायद ही कभी साफ-सुथरी राजनीति की बात सोची जा सकती है। तो क्या दागी, अपराधी, बाहुबली नेता जनता पर इसी तरह राज करते रहेंगे? मीडिया में सुर्खियां बनती रहेंगी?
मीडिया और विदेशी पूंजी
एक समय था जब मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश को लेकर सख्त विरोध था। तर्क था कि समाचार-पत्र जनमत निर्मित करते हैं। विदेशी पूंजी निवेश से जनमत पर असर पड़ सकता है। इसलिए मीडिया को विदेशी पूंजी निवेश से दूर ही रखा जाए। लेकिन धीरे-धीरे यह विचार ढीला पड़ गया। पहले 26 फीसदी विदेशी पूंजी निवेश आया और अब 49 प्रतिशत की तैयारी शुरू कर दी गई है। भारत में अखबारों की प्रतिनिधि संस्था इंडियन न्यूज पेपर सोसाइटी ने गत दिनों सूचना प्रसारण मंत्रालय को एफ.डी.आई. संबंधी अपनी सहमति भेज दी है। इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 49 प्रतिशत पर सहमति जताई गई है। यह सहमति केन्द्र सरकार की ओर से विदेशी निवेश की समीक्षा के लिए बनाई गई मायाराम समिति द्वारा मांगे गए सुझाावों पर दी गई। प्रस्ताव को अंतिम रूप देने की कार्रवाई चल रही है।
पत्रकार बने अभिनेता
मीडिया और फिल्म उद्योग के अन्तर्संबंधों की पोल खोलती एक लघु फिल्म में मीडिया कर्मियों ने ही विभिन्न किरदार निभाए हैं। आई.आई.एम.सी. के छात्र रह चुके मयंक सिंह फिल्म के निर्देशक हैं तथा पी.टी.आई., यू.एन.आई., दैनिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, पांचजन्य आदि से जुड़े युवा पत्रकारों ने भूमिकाएं अभिनीत की हैं। खास बात यह है कि 'जम के रखना कदम' नामक इस लघु फिल्म को हाल ही अन्तरराष्ट्रीय लघु फिल्म समारोह के लिए नामित किया गया है, जिसमें अन्य 12 देशों की 25 सर्वोत्तम लघु फिल्में चुनी गई हैं।

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