RSS

तहलका पर कालिख के छींटे

तहलका के रिपोर्टरों और पत्रकारों ने ये उपलब्धियां जिसके नेतृत्व में अर्जित की, उसी की मूर्ति खंडित हो गई। गोवा की घटना केवल एक सम्पादक-पत्रकार के पतन की घटना मात्र नहीं है, यह तहलका के पतन की भी घोषणा है। निश्चय ही मीडिया-जगत के लिए यह अफसोसजनक है।

अपनी शुरुआत से ही तहलका साहसी और तीखी पत्रकारिता के अपने संकल्प पर कायम रहा है। यह उन कुछ संस्थानों में से एक है, जो अपने मूल्यों से कभी समझाौता नहीं करते।'
ये शब्द फिल्मकार अभिनेता आमिर खान के हैं, जिनका इस्तेमाल तहलका संस्थान अपनी प्रचार सामग्री में अक्सर करता है, लेकिन अब ये शब्द बहुत अटपटे लगेंगे। गोवा की घटना ने तरुण तेजपाल के साथ ही तहलका की साख भी चौपट कर दी। इस घटना का एक दुखद और चिन्तनीय पहलू यह भी है कि जिस संस्थान ने देश की खोजी पत्रकारिता में एक नई जान फूंकी, वह आज शर्मनाक मोड़ पर आ खड़ा है। तरुण तेजपाल की हरकत ने अपने साथ ही संस्थान को भी गर्त में ला दिया। आप कह सकते हैं, तरुण तेजपाल अपने में कोई सम्पूर्ण संस्थान नहीं हैं और तहलका को बनाने में समर्पित पत्रकारों की एक पूरी टीम रही है। इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन संस्थान के सर्वोच्च शीर्ष पर बैठे व्यक्ति पर लगी कालिख के छींटों से कोई संस्थान कैसे बचा रह सकता है? तेजपाल तो तहलका के संस्थापक भी हैं और सम्पादक भी। उनकी हरकत से सम्पादक की गरिमा और पत्रकारिता का पेशा भी शर्मसार हुआ है।
महिलाओं के यौन-उत्पीडऩ की बढ़ती घटनाओं से लोग उद्वेलित हैं। निर्भया कांड ने सबको हिलाकर रख दिया था। अनुमान था कि इस घटना के बाद लोगों के आन्दोलन व आक्रोश से एक सामाजिक दबाव बनेगा और ऐसी घटनाओं में कमी आएगी। छेड़छाड़ और यौन-उत्पीडऩ के वाकिये कम होंगे। कम-से-कम कार्यस्थलों पर तो महिलाएं सुरक्षित रह सकेंगी, लेकिन जब जिम्मेदार और प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोग ही अपने मातहतों के साथ ऐसा बर्ताव करेंगे, तो उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती। शायद इसीलिए सोशल मीडिया में तरुण तेजपाल पर लोगों का गुस्सा विस्फोटक बनकर सामने आया। गोवा की घटना भले ही तहलका के दफ्तर में नहीं घटी, लेकिन यह कार्यस्थल पर घटी घटना मानी जाएगी। गोवा में 8 से 10 नवम्बर को तहलका का सालाना कार्यक्रम 'थिंक' आयोजित था। पीडि़त पत्रकार अपनी ड्यूटी निभा रही थी। आयोजन में देश-विदेश की कई जानी-मानी हस्तियां आमंत्रित की गई थीं। इन मेहमानों की देखभाल की जिम्मेदारी तहलका स्टाफ पर थी। इसी दौरान तहलका के सम्पादक तरुण तेजपाल ने अपनी स्टाफ सदस्य के साथ दुराचार किया। लगातार दो बार। दो अलग-अलग दिनों में होटल की लिफ्ट के भीतर। पीडि़त पत्रकार ने इस घटनाक्रम का जो विवरण तहलका की प्रबंध सम्पादक शोमा चौधरी को लिखा उससे साफ है कि तरुण तेजपाल ने संस्थान में अपनी हैसियत का बेजा फायदा उठाते हुए अपनी बेटी की उम्र की मातहत कर्मचारी के साथ यौन-दुराचार किया।
यह स्पष्टत: सुप्रीम कोर्ट की विशाखा गाइड लाइन की धज्जियां उड़ाने वाली घटना थी। इस घटना ने मीडिया संस्थानों में कार्यरत व अन्य महिला कर्मियों में भी वरिष्ठ पुरुष कर्मियों के प्रति विश्वास को ठेस पहुंचाई है। कार्यालय में जिसकी संरक्षक की भूमिका थी, उसी ने भक्षक का रूप धारण कर लिया।
घटना से निपटने की जिस तरह 'आन्तरिक' कोशिश हुई, वह भी कम निराशाजनक नहीं। अभियुक्त ने माफी मांग ली और पश्चाताप स्वरूप छह माह के लिए स्वयं को पद से अलग भी कर लिया। वाह क्या न्याय है! कोई भी पीडि़ता इससे कैसे संतुष्ट हो सकती थी? यही वजह रही कि घटना सार्वजनिक हो गई और मामले पर तहलका प्रबंधन के परदा डालने के प्रयास बेनकाब हो गए। इस घटना से चुपचाप निपटने की कोशिश से जाहिर होता है कि महिला यौन-उत्पीडऩ के मामले किस तरह दबाये जाते हैं। पीडि़त पत्रकार अगर साहसी और सजग ना होती, तो लोगों को घटना की भनक तक नहीं पड़ती। यौन-उत्पीडऩ की ज्यादातर घटनाएं शायद इसी तरह दबा दी जाती हैं। दुर्भाग्य से अधिकतर महिलाएं भी साहस नहीं जुटा पातीं। सबसे स्याह पहलू यह है कि यह सब एक ऐसे मीडिया-संस्थान में घटित हुआ, जो न केवल महिला-अधिकारों की पैरवी करता रहा है, बल्कि उनके हर तरह के उत्पीडऩ के खिलाफ मजबूती से खड़ा नजर आता है। छत्तीसगढ़ में पुलिस हिरासत के दौरान सोनी सोरी के साथ रौंगटे खड़े कर देने वाली यौनिक यातनाओं का खुलासा पढ़कर हर कोई दंग रह गया था। आज वही तहलका स्त्री, वह भी एक सहकर्मी स्त्री के यौन-उत्पीडऩ के प्रति ऐसा ठंडा रवैया अख्तियार करता है, तो मायूसी होती है। निराश होने का कारण यह भी है कि तहलका के जिस प्रबंधन ने इसे आन्तरिक मामला बताया, उसकी कमान एक महिला के हाथ में है।
गोवा की घटना को कुछ देर के लिए तहलका का आन्तरिक मामला भी मान लें, तो क्या फर्क पड़ेगा? तहलका को नुकसान तो होना ही था। हालांकि तहलका के भीतर से कुछ प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, जिनके अनुसार, तहलका पर कोई संकट नहीं है। तहलका के पत्रकार अपना काम कर रहे हैं। जिसने बुरा किया वही भुगतेगा भी। तहलका पर कोई आंच नहीं है। कई दूसरे लोगों का भी मानना है कि तरुण तेजपाल का मतलब 'तहलका' संस्थान नहीं है। तरुण तेजपाल के पश्चाताप का सन्देश स्टाफ कर्मियों में बंट चुका था। सभी स्टाफकर्मी इस पश्चाताप से संतुष्ट नहीं थे, यह बाद की घटनाओं से भी स्पष्ट हो गया।
तहलका के रिपोर्टरों ने कई उत्कृष्ट रिपोर्टें लिखीं। इन पर तहलका को कई पुरस्कार भी मिले। तहलका ने मीडिया की दुनिया में 'स्टिंग्स' को एक नया आयाम दिया। राजनीति से लेकर नौकरशाही, पुलिस-तंत्र और खेल-जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ किया। देश के रक्षा सौदे किस तरह रिश्वतखोरी पर टिके हैं, और भद्रजनों का खेल क्रिकेट मैच फिक्सिंग के जाल में किस हद तक फंस चुका है, यह सब तहलका ने बताया। तहलका के रिपोर्टरों और पत्रकारों ने ये उपलब्धियां जिसके नेतृत्व में अर्जित की, उसी की मूर्ति जब खंडित हो जाए, तो उनके पास ऐसी कौन-सी नैतिक शक्ति बचेगी कि वे संस्थान को ऊंचे पायदानों पर पहुंचाते जाएं। सचमुच गोवा की घटना केवल एक सम्पादक-पत्रकार के पतन की घटना मात्र नहीं है, यह तहलका के पतन की भी घोषणा है। निश्चय ही मीडिया-जगत के लिए यह अफसोसजनक और दुखद है। खासकर इसलिए भी कि 'पेड न्यूज', 'राडिया टेप' और 'जिन्दल जी न्यूज' जैसे प्रकरणों में मीडिया की विश्वसनीयता पहले से ही सवालों से घिरी हुई है।

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS

क्यों हो जनमत सर्वे पर रोक?

किसी राजनीतिक दल को लेकर जनता का एक समूह क्या विचार रखता है, उसको व्यक्त करने से रोकना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करना ही माना जाएगा। जनमत सर्वेक्षण एक रैण्डम पद्धति है। यह सारी दुनिया में 'सेफोलॉजी' के रूप में मान्य है।

  वर्ष 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ओपिनियन पोल्स (जनमत सर्वेक्षणों) पर रोक लगाना चाहती थी। बाकायदा अध्यादेश लाने की तैयारी हो चुकी थी। लेकिन अटार्नी जनरल सोली सोराबजी की राय के बाद सरकार ने अपना इरादा त्याग दिया। सोली सोराबजी ने जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध के खिलाफ राय व्यक्त की थी।
वर्ष 2009 में मनमोहन सिंह सरकार एग्जिट पोल के साथ ही ओपिनियन पोल पर भी प्रतिबंध लगाने की इच्छुक थी। लेकिन अटार्नी जनरल मिलन बनर्जी ने सरकार को सलाह दी कि अगर ओपिनियन पोल्स प्रतिबंधित किए गए तो सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देगा। क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा। सीधे तौर पर यह संविधान की धारा 19 (1) ए का उल्लंघन माना जाएगा। इसके विपरीत वर्ष 2013 में अटार्नी जनरल जी.ई. वाहनवती ने केन्द्र सरकार को जनमत सर्वेक्षणों पर रोक लगाने की सलाह दी। चुनाव आयोग पहले से ही यह मांग करता रहा है। यूपीए सरकार को भी इस बार जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध अपने अनुकूल लग रहा है। लिहाजा चुनाव-पूर्व जनमत सर्वेक्षणों पर रोक को लेकर जी-तोड़ कवायद की जा रही है। इसी के चलते चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से इस बारे में राय मांगी। मुख्यत: कांग्रेस प्रतिबंध के पक्ष में और भाजपा प्रतिबंध के खिलाफ है। कई अन्य छोटे दल तथा प्रादेशिक पार्टियां जनमत सर्वेक्षणों के पक्ष और खिलाफत में अपनी-अपनी राय व्यक्त कर चुकी हैं।
इसका मतलब यह नहीं है कि जो दल प्रतिबंध का समर्थन कर रहे हैं, वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ हैं। जो विरोध कर रहे हैं वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार हैं। दलों का समर्थन या विरोध राजनीतिक कारणों से है तथा अवसरवादिता के अलावा कुछ नहीं है। लेकिन यह मुद्दा केवल मीडिया के लिए ही नहीं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से सरोकार रखने वाली सभी संस्थाओं और व्यक्तियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस पर गंभीरता से चर्चा की जरूरत है। जो सवाल सीधे तौर पर उठते हैं, वे हैं—
क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में ओपिनियन पोल्स पर प्रतिबंध लगना चाहिए?
क्या जनमत सर्वेक्षण मतदाताओं की स्वतंत्र राय को प्रभावित करते हैं?
क्या जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध का मतलब सीधे तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक है?
पहली बात, जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध क्यों लगे? क्या दुनिया में किसी भी देश में जनमत सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध है? सिर्फ फ्रांस में चुनाव से24 घंटे पहले जनमत सर्वे पर रोक है। यदि वहां कोई मीडिया संस्थान सर्वे के निष्कर्ष प्रकाशित ही करना चाहता है तो उसे सर्वे के नमूने और आंकड़ों की विश्लेषण पद्धति का खुलासा करके इजाजत लेनी होती है। अलबत्ता, यह जरूर कह सकते हैं कि भारत जैसे विशाल और विविध दलीय देश में जनमत सर्वेक्षण अभी उतने सटीक नहीं है। लेकिन क्या इन्हें अपनी त्रुटियों से सीखकर निखरने, अधिक वैज्ञानिक और तार्किक होने का अवसर नहीं मिलना चाहिए?
दूसरी बात, क्या जनमत सर्वेक्षण सचमुच मतदाताओं की स्वतंत्र राय को प्रभावित करते हैं। व्यवहार में तो ऐसा नहीं देखा गया। बल्कि कई बार तो उल्टा ही देखा गया है। सबको मालूम है ,2004 में जब सारे जनमत सर्वेक्षण एन.डी.ए. सरकार की वापसी का संकेत कर रहे थे तब यू.पी.ए. की सरकार सत्ता में आई। शायद ही कोई सर्वे एजेन्सी ऐसी होगी, जिसका कोई भी निष्कर्ष हमेशा शत-प्रतिशत सही साबित हुआ है। साफ है, जिसको जिसे वोट देना है वह उसी को देगा। मतदाता कई कारणों को आधार बना कर मतदान करता है। उस पर अकेले सर्वे का असर नहीं पड़ता। थोड़ा बहुत पड़ता भी है तो इतना कम कि उससे मतदान परिणाम प्रभावित नहीं होता।
तीसरी बात, जनमत सर्वेक्षणों पर रोक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखा जाना चाहिए या नहीं। क्यों नहीं। सोली सोराबजी और मिलन बनर्जी जैसे दिग्गज कानून विशेषज्ञों ने यूं ही सरकार को राय नहीं दी थी। 1999 में चुनाव आयोग ने कुछ दिशा-निर्देश तय करके जनमत सर्वे को प्रतिबंधित कर दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मामला चला गया। कोर्ट ने कहा, आयोग को प्रतिबंध लगाने का हक नहीं। वह सिर्फ संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनावों पर नियंत्रण या देखरेख की शक्ति रखता है। किसी राजनीतिक दल को लेकर जनता का एक समूह क्या विचार रखता है, उसको व्यक्त करने से रोकना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करना ही माना जाएगा। तर्क दिया जाता है कि किसी क्षेत्र के लाखों लोग क्या सोचते हैं, यह सर्वेक्षणों में चंद लोगों की राय से कैसे जान सकते हैं। जनमत सर्वेक्षण एक रैण्डम पद्धति है। यह सारी दुनिया में 'सेफोलॉजी' के रूप में मान्य है। सभी देशों में इसी विधि से सर्वेक्षण किए जाते हैं। ऐसे में सर्वेक्षणों को प्रतिबंधित करना जनता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करना है।
महत्त्वपूर्ण बात यह कि क्या यह प्रतिबंध जनमत सर्वे तक ही सीमित रहेगा? इस बात की क्या गारण्टी कि अखबारों में छपने वाले चुनाव-विश्लेषण, रिपोर्टें, समीक्षाएं और सम्पादकीयों पर भी प्रतिबंध की गाज नहीं गिरेगी? जब बात मतदाताओं को प्रभावित करने की ही हो तो मीडिया पर प्रतिबंध की सूची में सबसे पहले आने का खतरा होगा। जिस दल या नेता के खिलाफ रिपोर्टिंग होगी, वही मीडिया के खिलाफ हो जाएगा और प्रतिबंध की मांग करेगा।
जनमत सर्वेक्षणों पर रोक का  मजबूत तर्क यह है 'पेड न्यूज' की तरह 'पेड ओपिनियन पोल' पर भी रोक लगनी चाहिए। जिस तरह 'पेड न्यूज' पर रोक का आशय 'न्यूज' पर रोक नहीं है, उसी तरह 'पेड ओपिनियन पोल' पर प्रतिबंध का आशय भी 'ओपिनियन पोल' पर प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। दोनों में फर्क जरूरी है। 'पेड ओपिनियन पोल' या स्पॉन्सर्ड ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध का शायद ही कोई विरोध करेगा। जनमत सर्वेक्षणों के सर्वमान्य मापदंड बनाए जा सकते हैं, जिनका पालन जरूरी हो, तो भी स्वीकार्य होगा। लेकिन स्वतंत्र 'ओपिनियन पोल' पर प्रतिबंध लगाना स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर रोक लगाने के समान ही खतरनाक साबित होगा।

  • Digg
  • Del.icio.us
  • StumbleUpon
  • Reddit
  • RSS