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कौन जिम्मेदार?

टिप्पणी
आई.आई.टी. में पढ़ाई करना युवाओं का सपना होता था, उनमें छात्रों का रुझान क्यों घट रहा है? इन सरकारी संस्थाओं की लगातार फीकी पड़ती चमक को लेकर पिछले कुछ समय से कई स्तरों पर, खासकर शिक्षाविदों में चिन्ता के स्वर उभर रहे थे। लेकिन अब जो आंकड़े सामने आए हैं, वह न केवल शिक्षा-क्षेत्र में बल्कि राज, समाज और सम्पूर्ण विद्यार्थी जगत के लिए चेतावनी की घंटी है। मानव संसाधन मंत्रालय के आंकड़ों में बताया गया है कि वर्ष 2010 में आई.आई.टी. में 769 छात्रों ने प्रवेश लेने से इनकार कर दिया। हालांकि, दावा किया जा रहा है कि बाद में स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। लेकिन अभी भी कई सीटें खाली पड़ी हैं—यह आई.आई.टी. से जुड़े प्रशासनिक पक्ष स्वीकार कर रहे हैं।
 आखिर आई.आई.टी. जैसी नामी संस्थाओं को विद्यार्थियों का टोटा क्यों पड़ रहा है? कई कारण बताए जा रहे हैं। एक कारण इंजीनियरिंग सेक्टर में नौकरियों की कमी को माना जा रहा है। अन्य क्षेत्रों में बढ़ते अवसरों को भी इन संस्थानों से छात्रों के मोहभंग का कारण बताया जा रहा है। यह भी माना जा रहा है कि आई.आई.टी. में अच्छे शिक्षकों की लगातार कमी होती जा रही है। एक कारण सरकार की दोषपूर्ण नीतियों को भी माना जा रहा है। जिसके तहत ज्यादातर संस्थानों में अनेक आरक्षित सीटें खाली रह जाती हैं। ये सीटें जरूरतमंद छात्रों से भरी जा सकती हैं, लेकिन नियम और कानून आड़े आ जाते हैं। रिसर्च पर ध्यान घटता जा रहा है। नतीजा यह है कि प्रौद्योगिकी शिक्षा में ठहराव आ गया है। नवाचार के अभाव में कोर्स नीरस होते जा रहे हैं। कोई दो राय नहीं देश के आई.आई.टी. संस्थानों में छात्रों के घटते रुझाान के ये महत्वपूर्ण कारण है।
रिजर्व सीटों के आंकड़े ज्यादा चौंकाने वाले हैं। प्राय: हर जगह भारी संख्या में सीटें खाली रह जाती है। सवाल है सरकार का इन सीटों पर करोड़ों रुपए खर्च होने के बावजूद कोई
ध्यान क्यों नहीं जाता? क्या संसद में आंकड़े पेश कर देना ही काफी है?
आरक्षित सीटें परिवर्तित नहीं की जा सकती। अदालत के आदेश है। लेकिन सरकार वस्तुस्थिति बताकर अदालत से पुनर्विचार की दरख्वास्त क्यों नहीं कर सकती? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम केवल यह ढोल पीट रहे हैं कि छात्रों का आई.आई.टी. में रुझाान कम हो रहा है, जबकि दूसरी ओर सैकड़ों छात्र प्रवेश से वंचित कर दिए जाते हैं। यह विकट स्थिति है जिसके लिए सरकार जिम्मेदार है। खाली रहने वाली रिजर्व सीटों को भरने की वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं होनी चाहिए? सरकारी नीतियों की विसंगतियां तो हैं ही, शैक्षणिक विसंगतियां भी कम नहीं हैं।
एक समय था जब भारत में आई.आई.टी. से निकले छात्रों को विदेशों में हाथों-हाथ नौकरी मिल जाती थी। देश में तो उसके लिए अवसरों की कोई कमी ही नहीं थी। लेकिन अब जो हालात बनते जा रहे हैं, वे हमारी शैक्षणिक दुरावस्था की ओर स्पष्ट इशारा है। हम केवल औसत इंजीनियर पैदा कर रहे हैं। इंजीनियरिंग के श्रेष्ठ अध्यापक नहीं। सरकार के नीति-निर्माताओं और शिक्षाविदों के लिए यह बड़ी चुनौती है कि वे इन संस्थानों को श्रेष्ठतम फैकल्टीज उपलब्ध कराएं। ऐसा वातावरण दें जिसमें शोध, नवाचार और प्रौद्योगिकी शिक्षा में भी छात्रों का रुझाान बढ़े। आई.आई.टी. ही नहीं, एन.आई.टी. तथा दूसरे उच्च शिक्षण संस्थानों के भी कमोवेश यही हालात हैं। उच्च शिक्षा के प्रति हमारी यह बेरुखी हमें बहुत महंगी पड़ेगी।

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कथनी और करनी का फर्क

उस दिन अखबारों में भ्रष्टाचार सम्बन्धी दो खबरें छपी थीं। पहली थी—भ्रष्टाचार पर रोक लगाने वाले ऐतिहासिक लोकपाल बिल के पास होने की खबर। खबर महत्त्वपूर्ण थी, लिहाजा सुर्खियों में थीं। दूसरी थी—मुम्बई के आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के कुख्यात घोटाले से जुड़ी खबर। यह सामान्य खबर की तरह लगभग सभी अखबारों में हाशिये पर छपी थी। 45 साल से जो बिल लटका हुआ था, वह राज्यसभा के बाद लोकसभा में भी सिर्फ 40 मिनट में पास हो गया था। बड़ी कामयाबी थी। अन्ना हजारे ने अनशन समाप्त कर दिया था। यूपीए सरकार, खासकर पांच राज्यों के चुनाव परिणाम से मायूस कांग्रेस नेताओं की आवाज फिर गले से निकलने लगी थी। लोकपाल की बधाइयां ली जा रही थी। दावे किए जा रहे थे—आर.टी.आई. भी हम लेकर आए थे और अब लोकपाल भी आखिरकार हम लेकर आए।
और इधर महाराष्ट्र में क्या हो रहा था, जहां कांग्रेस-राकांपा की गठबंधन सरकार है। आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाले को दफन किया जा रहा था। उस घोटाले को जिसकी जांच रिपोर्ट में कांग्रेस के चार मुख्यमंत्रियों के नाम हैं। लोकपाल वाले दिन ही महाराष्ट्र के राज्यपाल के. शंकरनारायणन ने सी.बी.आई. की पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर मुकदमा चलाने की अर्जी नामंजूर कर दी थी। यही खबर उस दिन अखबारों में हाशिये पर थी। शायद देश को मिले पहली बार लोकपाल के जश्न में यह बड़ी खबर ओझाल हो गई थी। आदर्श घोटाला उजागर होने के बाद महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक राव चव्हाण ने 9 नवम्बर 2010 को पद से इस्तीफा दे दिया था। वे इस घोटाले के 13 आरोपियों में शामिल थे। आपको याद होगा, मुम्बई में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी की विवादास्पद 31 मंजिला बिल्डिंग का निर्माण करगिल शहीदों के परिजनों को घर देने के लिए किया गया था। लेकिन तत्कालीन राजस्व मंत्री पद पर रहते हुए अशोक चव्हाण ने 40 फीसदी घर अन्य लोगों को दे दिए थे। इसमें उनके कुछ करीबी रिश्तेदार भी शामिल थे। बाद में अशोक चव्हाण मुख्यमंत्री बन गए। उन्होंने सी.बी.आई. के आरोप-पत्र में खुद का नाम शामिल किए जाने को चुनौती देते हुए दलील दी कि उन पर मुकदमे के लिए राज्यपाल से अनुमति नहीं ली गई। इस दौरान हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जे.ए. पाटिल के नेतृत्व में दो सदस्यीय जांच आयोग बनाया गया। आयोग का निष्कर्ष था— 'यह घोटाला नियमों को तोडऩे वाली एक शर्मनाक कहानी है जिसमें लालच, पक्षपात और भाई-भतीजावाद जमकर हुआ।' इस आयोग ने आदर्श सोसाइटी के 102 में से 44सदस्यों को घर आवंटित करने में घोटाला पाया। इसके लिए आयोग ने अशोक चव्हाण सहित पूर्व मुख्यमंत्रियों सुशील कुमार शिन्दे, विलासराव देशमुख तथा शिवाजीराव निलंगेकर को भी जिम्मेदार माना। कंडक्टर और ड्राइवर के नाम पर भी फ्लैट आवंटित थे। जबकि फ्लैट की कीमत लाखों रुपए थी।
चव्हाण के एतराज के बाद में सी.बी.आई. राज्यपाल के पास मुकदमे की मंजूरी के लिए गई। राज्यपाल की नामंजूरी के दो दिन बाद ही अखबारों में फिर खबर आई— 'महाराष्ट्र सरकार ने चर्चित आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाले की जांच-रिपोर्ट खारिज कर दी।' यानी जिस रिपोर्ट ने इस घोटाले को 'एक शर्मनाक कहानी' बताया उसे पृथ्वीराज चव्हाण की सरकार ने खारिज कर दिया। रिपोर्ट क्यों खारिज की गई, सरकार ने इसका कोई खुलासा नहीं किया। अलबत्ता किसी अधिकारी के हवाले से यह जरूर कहा गया कि जांच आयोग के निष्कर्षं से सरकार संतुष्ट नहीं है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट अप्रेल में ही सरकार को सौंप दी थी, लेकिन उसके निष्कर्षों से असंतुष्ट होने में सरकार को आठ माह लग गए। मौका भी कब चुना, जब भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए उसी दल की सरकार केन्द्र में लोकपाल बिल पास कराने का श्रेय ले रही है।
आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला लम्बे समय तक मीडिया में छाया रहा था। यह एक संवेदनशील मुद्दा बन गया था, क्योंकि सोसाइटी करगिल के शहीदों के परिवारों के लिए बनी थी। हालांकि आयोग ने रिपोर्ट में इसे शहीद परिवारों की योजना नहीं माना। लेकिन आरोपों में एक बिन्दु यह भी था कि शहीद परिवारों के नाम से योजना पास कराने के बाद इसे राजनीतिक संरक्षण में बदल दिया गया था। सोसाइटी से जुड़ी फाइलें महाराष्ट्र के शहरी विकास विभाग, यहां तक कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय तक से गायब हो गई जिसकी पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हुई थी। हाईकोर्ट के निर्देश पर इसकी जांच भी सी.बी.आई. को दी गई। इतना ही नहीं सोसाइटी के नक्शे तक गायब कर दिए गए। आरोप था कि मुम्बई में बिल्डरों और नेताओं का गठजोड़ इतना ताकतवर है कि पूरे मामले को सरकारी संरक्षण देकर योजना को वैधता प्रदान की गई। लिहाजा यह मामला देश के चर्चित घोटालों में शुमार हो गया था। संवेदनशीलता का एक कारण और था। मुम्बई के जिस इलाके में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी की यह इमारत खड़ी की गई, वह सेना की इंजीनियरिंग ट्रांसपोर्ट फेसिलिटी से सिर्फ २७ मीटर दूरी पर स्थित है। यहां सेना के हथियारबंद वाहन पार्क किए जाते रहे हैं। सेना और नौ-सेना के डिपो, जिनसे सैनिकों को हथियारों, विस्फोटकों और संवेदनशील उपकरणों की आपूर्ति की जाती रही है, इस इमारत से सिर्फ सौ मीटर दूर हैं। कोई भी इमारत की ऊंची छत से खड़ा होकर हमारे इन प्रतिष्ठानों को आसानी से निशाना बना सकता है। २६/११ के हमले के बाद तो संवेदनशीलता और बढ़ गई थी। संभवत: इसीलिए आदर्श हाउसिंग सोसाइटी की सौ मीटर ऊंची इमारत देश में भ्रष्टाचार की सर्वाधिक कलंकित नजीर बन चुकी थी। लेकिन सत्ताधीशों की क्या कहें! कथनी कुछ और करनी कुछ और। आचरण और व्यवहार की यह असंगति ही राजनेताओं को अविश्वसनीय बनाती जा रही है। लेकिन राजनेता है कि इससे कोई सीख लेते नजर नहीं आते।

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वी.आई.पी. के ठाठ-बाट!

टिप्पणी
कोई कितना ही बड़ा अपराधी हो या फिर शातिर आरोपी, अगर वह 'वी.आई.पी'. है तो सब उसके आगे सलाम बजाते ही मिलेंगे। चाहे नेता हो या अभिनेता या फिर कथित साधु-महात्मा। जोधपुर जेल में बंद हमारे स्वनामधन्य आसाराम बापू उदाहरण हैं। उनके वी.आई.पी. ट्रीटमेंट में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही। सरकारी तंत्र में जैसे एक-दूसरे को पीछे छोडऩे की होड़ मची है। जेल-प्रशासन सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बावजूद आसाराम को वह सब सुख-सुविधाएं मुहैया कराने में दुबला हुआ जा रहा है जो एक आम आरोपी को जेल में कतई संभव नहीं है। दूसरी तरफ सरकारी वैद्यजी अन्य सारे मरीजों को छोड़कर बुधवार को अस्पताल के विशेष कक्ष में आसाराम की पंचकर्म-चिकित्सा करने में व्यस्त रहे। संभव है मेडिकल बोर्ड की सलाह पर 'बीमारÓ आसाराम को उनकी मांग पर आयुर्वेद की यह विशेष चिकित्सा सुविधा मुहैया कराई गई हो। हालांकि फोटो देखकर नहीं लगता कि वे बीमार हैं, शायद भीतर कोई गड़बड़ी हो। उनकी चिकित्सा पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन एतराज चिकित्सा के तरीके पर है। भारी पुलिस लवाजमे के साथ आसाराम को आयुर्वेद चिकित्सालय लाया गया। आगमन के साथ ही उनका विशिष्ट उपचार शुरू हो गया। ढाई घंटे तक मरीज भटकते रहे। आयुर्वेद-चिकित्सा के कई चरण हैं। इसलिए हो सकता है कि आसाराम चिकित्सालय में बार-बार लाये जाएं। और बार-बार मरीज परेशान होते रहें। आखिर यह क्या तमाशा है! जोधपुर का जेल-प्रशासन शुरू से ही आसाराम के चरणों में बिछा हुआ नजर आता है। उन्हें जब गिरफ्तार किया गया था तो पुलिस उन्हें विमान से जोधपुर लेकर आई थी। साधारण अभियुक्त की तरह आसाराम को हवालात में रखने की बजाय सुविधाजनक आर.ए.सी. मुख्यालय में रखा गया। दूध और फल पेश किए गए थे। उनकी विभिन्न फरमाइशें पूरी की गईं। आसाराम के इर्द-गिर्द भारी सुरक्षा बल तैनात किए गए। यह सब देखकर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जी.एस. सिंघवी व वी. गोपाल गोड़ा की पीठ ने राजस्थान सरकार की आलोचना की थी। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने भी स्पष्ट आदेश दिया था कि आसाराम को संत नहीं सामान्य व्यक्ति माना जाए और इसी रूप में व्यवहार किया जाए। लेकिन आसाराम की आवभगत में कोई कमी न तब आई थी और न अब आई है। भले ही सरकार बदल गई। आसाराम के वी.आई.पी. ठाठ-बाट बरकरार है। जेल मैन्युअल की धज्जियां उड़ रही हैं। सवाल है आखिर जेलों में भी इन लोगों के शाही ठाठ-बाट क्यों कायम रहते हैं। पुलिस, जेल के अधिकारी तथा प्रशासन तंत्र उनके सामने घुटने टेके नजर आता है। दो दिन पहले लालू यादव जमानत पर छूट कर लाव-लश्कर के साथ घर पहुंचे। रास्ते में पुलिस के लोग उनके चरण धोते और चप्पल हाथ में उठाए देखे गए। संजय दत्त को बार-बार जेल से पेरोल मिल जाती है। जेल में उनको शराब मुहैया कराने का मामला अभी भी सुर्खियों में है। शासन-तंत्र का इस तरह वी.आई.पी. अपराधियों-आरोपियों के समक्ष समर्पण-भाव का राज क्या है— यह जनता को पता चलना चाहिए। आसाराम मामले में जोधपुर जेल प्रशासन की जांच जरूरी है। क्यों हिदायतों के बावजूद नाबालिग लड़की से दुराचार के आरोपी को लगातार विशेष सुविधाएं मुहैया कराई जा रही है। आसाराम पर और भी कई आरोप हैं। कौन-कौन अधिकारी उनके खैरख्वाह बने हुए हैं? क्यों बने हुए हैं—यह सब सामने आना चाहिए। नए डीजीपी ने बुधवार को ही जयपुर में चेताया—सुधर जाएं भ्रष्ट पुलिसकर्मी। मगर पुलिस है कि सुधरती नहीं।

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पाप धोने की कोशिश

 टिप्पणी
सार्वजनिक जीवन को पाक-साफ बनाने से जुड़ा लोकपाल विधेयक एक बार फिर केन्द्र की संप्रग सरकार सहित देश के तमाम राजनीतिक दलों के षड्यंत्रों का शिकार होता नजर आ रहा है। अन्ना हजारे के बार-बार हो रहे अनशन-आंदोलन और देश के चार राज्यों की ताजा करारी हार से डरी संप्रग सरकार ने भले ही रातों-रात इस विधेयक को संसद के इसी सत्र में पारित कराने की मंशा जाहिर की है। लेकिन सब जानते हैं कि राज्यसभा में संप्रग सरकार को बहुमत हासिल नहीं है। इसके बावजूद लोकपाल के प्रति सरकार का यह अचानक प्रेम क्यों उमड़ा?
सरकार का दावा है कि संशोधित विधेयक पर विपक्ष सहमत है। लेकिन अभी यह दूर की कौड़ी लगती है। भ्रष्टाचार और उसके विरोध में उबलते लोगों के गुस्से की संप्रग सरकार ने जिस कदर उपेक्षा की, शायद उसका पश्चाताप करने का यह उसे माकूल समय लग रहा है। दिल्ली में तो जो दल लोकपाल व केन्द्र सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए आन्दोलन से पैदा हुआ था उसी ने सत्तारूढ़ दल की बखिया उधेड़ दी। रही-सही कसर अन्ना हजारे ने अनशन शुरू करके पूरी कर दी। ऐसे में सरकार के पास कोई चारा नहीं था। वह इस विधेयक के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाना चाहती है ताकि लगे कि लोकपाल के लिए वह कितनी आतुर है। यह विधेयक लोकसभा में पहले ही पारित हो चुका था। इसके बाद इसमें कई संशोधन हुए। इसलिए राज्यसभा में पारित होने के बाद यह फिर लोकसभा में लाया जाएगा। इसकी असली परीक्षा तो राज्यसभा में होनी है। अगर राज्यसभा में विधेयक फिर अटक जाता है तो सरकार को अपने आपको पाक साबित करने में मुश्किल नहीं होगी। लोगों से कह सकेगी कि सरकार लोकपाल लाना चाहती है, विपक्ष आड़े आ रहा है। ठीकरा फिर दूसरे के सिर फोड़ दिया जाएगा।
यानी सरकार अब भी अवसर देखकर रंग बदलने की कोशिश कर रही है। उसके प्रयासों में ईमानदारी का अभाव स्पष्ट नजर आता है। अगर सरकार सचमुच लोकपाल के प्रति निष्ठावान होती तो मौजूदा सत्र के एजेन्डे में विधेयक को शामिल करती। राज्यसभा की प्रवर समिति ने 23 नवम्बर, 2012 को ही अपनी रिपोर्ट राज्यसभा को सौंप दी थी। इस रिपोर्ट पर सरकार सोती क्यों रही? दबाव बढ़ा तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने प्रवर समिति की सिफारिशों को मंजूरी दे दी। इसके बाद इसे फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया।
कैबिनेट की मंजूरी के बाद इसे तत्काल सदन में प्रस्तुत क्यों नहीं किया गया? देखा जाए तो सरकार इस सत्र में भी यह विधेयक लाने को उत्सुक नजर नहीं थी। लेकिन 8 दिसम्बर के बाद हालात बदलते ही सरकार ने भी अपना रंग बदल लिया। अच्छा है, यह विधेयक सत्र में शुक्रवार को रखे जाने के संकेत दिए गए हैं। विधेयक में प्रवर समिति के अधिकांश सुझावों को माना गया है। विधेयक पहले से काफी मजबूत हुआ है।
जितना सच यह है कि लोकपाल विधेयक के खिलाफ कोई भी दल नहीं बोलना चाहता, उतना ही सच यह भी है कि, कोई उसे पास भी नहीं कराना चाहता। सब जनता को भरमाना चाहते हैं। लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि देश की जनता अब पहले सी भोली-भाली नहीं रही। वह सबको देख रही है कि, बिल पर कौन, क्या गुगली खेल रहा है। जब चार माह बाद लोकसभा के चुनाव होंगे तब वह ऐसी गुगली खेलेगी कि सबके विकेट शून्य पर
गिरते नजर आएंगे। अभी भी समय है-सरकार सहित सभी राजनीतिक दल एक संकल्प
के साथ, संसद के चालू सत्र में ही भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए प्रभावी लोकपाल कानून पास करें। शायद उनके पाप कुछ धुल जाएं।

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मतदान बाद के चुनाव-सर्वेक्षण

इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के मार्फत मतदान बाद के सर्वेक्षणों को न केवल आम जन ने बल्कि दलों ने भी अपने नजरिए से देखा। इनकी विश्वसनीयता अभी सर्व-स्वीकार्य नहीं हुई है। हम निष्कर्षों पर नजर डालें, तो कहना होगा कि ये काफी हद तक परिणामों के
करीब पहुंचे।

4 दिसम्बर की शाम जब दिल्ली में पांच राज्यों के चुनाव का अन्तिम चरण था तो परिणामों को लेकर लोगों की जिज्ञासाएं भी चरम पर थीं। इसलिए तत्काल बाद आए विभिन्न एजेन्सियों के एग्जिट पोल के निष्कर्ष मीडिया में सुर्खियां बने। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के मार्फत मतदान बाद के इन सर्वेक्षणों को न केवल आम जन ने बल्कि राजनीतिक दलों ने भी अपने-अपने नजरिए से देखा। मतदान पूर्व और मतदान बाद के चुनाव सर्वेक्षण अक्सर विवादों में रहे हैं। कारण इनका अतीत का रिकार्ड है। कई बार सर्वेक्षणों के निष्कर्ष चुनाव परिणामों की सही तस्वीर बताने में नाकाम भी रहे। बल्कि सर्वेक्षणों के निष्कर्ष बिल्कुल उल्टे साबित हुए। इसलिए इनकी विश्वसनीयता अभी तक सर्व-स्वीकार्य नहीं हुई है। लेकिन अगर हम इस बार के चार राज्यों के एग्जिट पोल के निष्कर्षों पर नजर डालें, तो कहना होगा ये काफी हद तक चुनाव परिणामों के करीब पहुंचे। दिल्ली और राजस्थान में दलों की सीटों का आकलन ज्यादातर सर्वेक्षणों में गड़बड़ाया। लेकिन हार-जीत के नतीजे कमोबेश वही रहे। इनमें भी एक एजेन्सी का सर्वे तो चार राज्यों में बहुत करीब तक निष्कर्ष निकालने में कामयाब रहा। इन सर्वेक्षणों के आधार और आंकड़े तो विस्तृत रूप से उपलब्ध नहीं है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इनकी कवरेज ही यहां चर्चा का विषय है। आइए, एक नजर इन एग्जिट पोल पर डाल ली जाए।
मुख्य तौर पर मीडिया में पांच मतदान बाद सर्वेक्षण (एग्जिट पोल) सामने आए। इंडिया टुडे-ओर.आर.जी., टाइम्स नाउ-सी वोटर, आई.बी.एन.7-सी.एस.डी.एस., ए.बी.पी.-नीलसन और टुडेज-चाणक्य। सभी चुनावी सर्वेक्षणों में चार राज्यों में भाजपा को सबसे आगे बताया गया और कांग्रेस को नं. 2 पर बताया। केवल टुडेज चाणक्य ने दिल्ली में आप को नं. एक और भाजपा को नं.2 पर बताया। हालांकि सीटों में ज्यादा अन्तर नहीं था। चाणक्य के सर्वे में दिल्ली में किसी को स्पष्ट बहमत नहीं मिलने की बात स्पष्ट तौर पर कही गई थी। चाणक्य के एग्जिट पोल में आप को 31, भाजपा को 29 तथा कांग्रेस को 10 सीटें बताई गई थी। यानी त्रिशंकु विधानसभा। दिल्ली का परिणाम सबके सामने है।
अब जरा दिल्ली के ही दूसरे सर्वेक्षणों पर नजर डालिए। टाइम्स नाउ-सी वोटर के सर्वे में भी दिल्ली में त्रिशंकु विधानसभा की बात कही गई थी। हालांकि इसमेें कांग्रेस नं. 2 पर थी और आप को तीसरे नंबर पर बताया गया था। सीटें इस प्रकार थीं-भाजपा 31, कांग्रेस 20 तथा 15 आप। आप का आकलन करने में यह सर्वे जरूर गड़बड़ाया इसलिए कांग्रेस को लेकर भी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा। लेकिन परिणाम के मामले में यह सर्वे भी नतीजों का संकेत करने में सफल रहा। इंडिया टुडे और एबीपी ने दिल्ली में भाजपा को स्पष्ट बहुमत बताया जो गलत साबित हुआ, लेकिन बाकी तीनों राज्यों में इनके निष्कर्ष चुनाव परिणाम के मामले में सही साबित हुए।
मध्य प्रदेश में सभी एग्जिट पोल भाजपा की सत्ता में वापसी दर्शा रहे थे। लेकिन दो-तिहाई सीटों से भाजपा की वापसी का आंकड़ा कोई नहीं छू पाया- सिवाय चाणक्य के। चाणक्य का सर्वे मध्य प्रदेश में काफी सटीक रहा। इस सर्वे में भाजपा को 161 तथा कांग्रेस को सिर्फ 62 सीटें दी गई। मध्य प्रदेश के चुनाव परिणाम रहे- भाजपा-165 तथा 58 कांग्रेस। जबकि अन्य सर्वेक्षणों में भाजपा को 128 से 138 तथा कांग्रेस को 80 से 92 तक सीटें दी गईं। अलबत्ता आई.बी.एन. 7- सी.एस.डी.एस. का सर्वे सीटों के आकलन में काफी करीब (भाजपा 146 व कांग्रेस 67) तक पहुंच पाया।
छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला सभी पांचों सर्वेक्षणों में बताया गया था लेकिन भाजपा को स्पष्ट बहुमत सिर्फ इंडिया-टुडे- ओ.आर.जी. तथा चाणक्य के सर्वे में बताया गया। इंडिया टुडे के अनुसार भाजपा को 53 और कांग्रेस को 33 तथा चाणक्य के सर्वे मेें भाजपा को 51 तथा कांग्रेस को 39 सीटें बताई गई थी। चुनाव परिणाम रहे- भाजपा-49 तथा कांग्रेस-39। अन्य सर्वेक्षणों में भी कड़े मुकाबले के बावजूद भाजपा को बढ़त स्पष्ट तौर पर बताई गई थी।
राजस्थान के मामले में सीटों के बारे में सभी सर्वेक्षणों के निष्कर्ष नतीजों से काफी दूर रहे। कोई भी एग्जिट पोल कांग्रेस की इस कदर दुर्गति का आकलन नहीं कर पाया। हालांकि सभी सर्वेक्षण भाजपा के स्पष्ट बहुमत के आंकड़े दे रहे थे। इनमें भाजपा को 110 से लेकर 147 सीटों का अनुमान शामिल था। लेकिन कांग्रेस को मिलने वाली सीटों का औसतन अनुमान 50 सीटों के आसपास जाकर ठहरता था। कहना होगा राजस्थान के मामले में भी नतीजों को लेकर सर्वेक्षणों के अनुमान सटीक थे, लेकिन सीटों की संख्या का हिसाब सभी में गड़बड़ा गया था। राजस्थान में भाजपा को 162 और कांग्रेस को सिर्फ 21सीटें मिली। कहा जा रहा है चार राज्यों में भाजपा की लहर थी। चारों में से दो राज्यों-छत्तीसगढ़ और दिल्ली के परिणाम इसकी तथ्यात्मक पुष्टि नहीं करते। लेकिन राजस्थान की लहर का कोई भी सर्वेक्षण सटीक अनुमान नहीं लगा पाया, यह स्पष्ट है। इसके बावजूद चारों राज्यों (दिल्ली,मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) के मतदान बाद के सर्वे चुनाव-नतीजों का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह बताने में काफी हद तक कामयाब रहे। संदेह नहीं मतदान पूर्व और पश्चात किए जाने वाले सर्वेक्षणों का एक वैज्ञानिक आधार है, जिन्हें अपने तय मापदंडों पर किया जाए तो वे नतीजों का पूर्वाभास देने में काफी हद तक सफल हो सकते हैं।
मिजोरम की उपेक्षा
मीडिया ने उत्तर-पूर्व में स्थित हमारे एक छोटे-से मगर खूबसूरत राज्य मिजोरम की चुनाव सर्वेक्षणों में जमकर उपेक्षा की। जैसे यह राज्य भारत का हिस्सा ही न हो। 4 दिसंबर की शाम को जब एग्जिट पोल सामने आए तो किसी में भी मिजोरम का जिक्र तक न था।
गौर करने वाली बात यह है कि मिजोरम के लोगों ने बाकी चारों राज्यों में सबसे ज्यादा (82 फीसदी) मतदान में हिस्सा लिया था। मिजोरम की 40 सीटों की विधानसभा के चुनाव भी इसी दौरान हुए थे और जिसके परिणाम भी आ चुके हैं।

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