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सड़कों पर बारात

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राजस्थान हाईकोर्ट ने प्रशासन को हिदायत दी है कि जयपुर में सड़कों पर बारात निकलने के दौरान लोगों की आवाजाही पर असर नहीं पडऩा चाहिए। न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के दौरान नगर निगम से कहा कि भीड़ भरी सड़कों पर क्यों नहीं लगाते बारात पर पाबंदी। न्यायालय ने जैसे ज्यादातर नागरिकों के मन की बात कह दी। भीड़ भरी सड़कों के कारण आखिर कौन है जो परेशान नहीं होता। बड़े शहरों में ही नहीं कस्बों में भी अब तो बारात के कारण घंटों-घंटों जाम में लोग फंस जाते हैं। बढ़ते वाहनों का अम्बार, साइकिल व ऑटो रिक्शा की रेलमपेल, अतिक्रमण के चलते सिकुड़ती सड़कें, बेतरतीब चौराहे और ऊपर से बारातियों का बीच सड़क पर घेरा डालकर कई-कई देर तक डांस करना राहगीरों की मुसीबत बन जाता है।
वाहनों की कतारों के बीच खतरनाक आतिशबाजी देखकर तो कई बार दिल दहल उठता है। कहीं कोई हादसा हो गया तो बच कर निकलने की कोई जगह नहीं। इन हालात से बेपरवाह बारातियों को निश्चिन्त होकर मनोरंजन में मशगूल देखकर बड़ी पीड़ा होती है। आखिर कहां गया हमारा नागरिक दायित्व-बोध? बारात के कारण जाम में फंसे लोगों में कोई गंभीर मरीज भी हो सकता है, जिसे तत्काल चिकित्सा की जरूरत है। गत दिनों ऐसे ही एक जाम में एम्बुलेंस के फंसने से मरीज की मौत हो चुकी है। हालांकि कुछ जगह बारातियों को भी व्यवस्था बनाते देखा जाता है, लेकिन ज्यादातर ऐसा देखने में नहीं आता और राह से गुजरने वाले परेशान होते रहते हैं। ऐसे लापरवाह लोगों के लिए तो यातायात पुलिस और स्थानीय प्रशासन की खास तौर पर जरूरत महसूस होती है।
किसी बड़े आदमी के यहां विवाह-समारोह हो तो पुलिस वालों की लाइन लग जाती है व्यवस्थाएं बनाने में। लेकिन आम विवाह-समारोह में बीच सड़क पर यातायात में खलल डालते समय पुलिस का कोई परिन्दा भी नजर नहीं आता। दूरस्थ कॉलोनियों का तो भगवान ही मालिक है। एक ही मुख्य सड़क पर कई 'मैरिज गार्डन्स' और आमने-सामने गुजरती बारातों की ऐसी चिल्ल-पों मचती है कि बेचारे राहगीरों का 'बाजा' बज जाता है। माना शहर की ट्रैफिक व्यवस्था केवल बारातों की वजह से नहीं बिगड़ती। यातायात पुलिस और स्थानीय निगमों की कुव्यवस्थाएं इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं।
'पीक ऑवर्स' में तो रोजाना जाम के हालात बनते हैं। ऐसे में 'बारातियों' को कोसना ठीक नहीं। विवाह एक उत्कृष्ट सामाजिक संस्कार है जिसे समारोहपूर्वक मनाने का सबको हक है। इसके बावजूद हमारा दायित्व है कि हम सड़क पर बारात के दौरान कुछ चीजों का ध्यान रखकर राहगीरों की राह आसान बना सकते हैं और विवाह-समारोह का भी भरपूर आनन्द ले सकते हैं।

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स्वतंत्र मीडिया का दमन

सरकार के सुर में सुर मिलाकर बोलने वालों को उपकृत और विरोधी सुर को तिरस्कृत किया जाता है। राज्य सरकारों की यह आम प्रवृत्ति है। पर छत्तीसगढ़ की सरकार इससे भी आगे है।
दुनिया भर में पत्रकारिता के हालात और पत्रकारों की सुरक्षा पर नजर रखने वाली अन्तरराष्ट्रीय संस्था 'रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स' की रिपोर्ट के अनुसार प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भारत दुनिया के देशों में 140 वें पायदान पर है। यह रैंकिंग वल्र्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स-2014 में दर्ज की गई है।
हाल ही में जारी इस रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष भारत में पत्रकार सरकारी और गैर सरकारी दोनों स्तरों पर हिंसक निशाने पर रहे और 13 पत्रकार मारे गए। प्रेस की स्वतंत्रता का हनन और अभिव्यक्ति के दमन के मामले में भी भारत की कोई अच्छी तस्वीर प्रस्तुत नहीं की गई है। रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ और जम्मू-कश्मीर राज्यों का खासतौर पर जिक्र किया गया है, जहां प्रेस की स्वतंत्रता भारत में सर्वाधिक कुचली जा रही है। आतंककारी और अलगाववादी ताकतों के बीच जम्मू-कश्मीर में प्रेस के हालात जब-तब राष्ट्रीय सुर्खियां बनते रहे हैं।
इसी तरह छत्तीसगढ़ में भी माओवादी हिंसा और पत्रकारों पर हमलों की घटनाएं राष्ट्रीय मीडिया में स्थान पा जाती हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में प्रेस के दमन और अभिव्यक्ति को कुचलने की सरकारी कारगुजारियों की शायद ही कभी चर्चा होती है। जबकि राज्य की रमन सिंह सरकार पिछले लम्बे समय से प्रेस को दबाने और कुचलने का काम कर रही है। शासन और सत्ता की शक्ति का इस्तेमाल स्वतंत्र अभिव्यक्ति को रोकने में किस तरह किया जाता है, यह छत्तीसगढ़ में साफ देखा जा सकता है। सरकार के सुर में सुर मिलाकर बोलने वालों को उपकृत और विरोधी सुर को तिरस्कृत किया जाता है। राज्य सरकारों की यह आम प्रवृत्ति है। लेकिन छत्तीसगढ़ की सरकार इससे भी एक कदम आगे है। वह विरोध में उठने वाले एक सुर को भी बर्दाश्त नहीं कर सकती। सरकारी नीतियों का जनहित में विरोध करने वाले मीडिया को वह चुन-चुन कर निशाना बनाती हैं। हालांकि ज्यादातर स्थानीय मीडिया सरकार की कारगुजारियों पर चुप रहता है। अगर कोई बोलने की हिमाकत करता है तो उसे तरह-तरह से प्रताडि़त किया जाता है। धमकियां मिलती हैं।
'पत्रिका' को इसका कड़वा अनुभव है। 'पत्रिका' ने राज्य की सम्पदा को उद्योगपतियों के हाथों बेचने की सरकारी कारगुजारियों की एक-एक करके पोल खोली। छत्तीसगढ़ में बांध, नदी, तालाब, बगीचे यहां तक कि श्मशान की जमीनें भी उद्योगपतियों को बेच दी गई। अखबार की आवाज को दबाने और कुचलने की हर संभव कोशिश की गई। अखबार निर्भीकता और निष्पक्षता से मुद्दे उठाता रहा। भ्रष्टाचार की पोल खुलने पर सरकार किस तरह बौखला जाती है, यह छत्तीसगढ़ के लोग देख चुके हैं। क्या किसी मुख्यमंत्री द्वारा प्रेस कान्फ्रेंस बुलाकर अखबार को सरेआम धमकी देने का उदाहरण कहीं देखा है? मुख्यमंत्री की धमकी के बाद पत्रिका कार्यालय पर हमला किया गया। सरकार के दबाव के आगे झाुके बिना अखबार अपनी भूमिका निभाता रहा। सरकार की ज्यादतियां भी थमी नहीं। विधानसभाध्यक्ष के माध्यम से अखबार को सदन से बाहर कर दिया गया। पत्रिका संवाददाताओं के प्रवेश पत्र निरस्त कर दिए गए। अखबार ने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। कोर्ट ने अखबार के हक में आदेश सुनाए। लेकिन सवाल यह है कि क्या मीडिया की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति को कुचलने के ऐसे उदाहरण मिलेंगे? सबसे दुखद तो स्वतंत्र मीडिया के हितों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार संस्थाओं का खामोश रहना है। प्रेस परिषद, एडिटर गिल्ड जैसी संस्थाओं का क्या औचित्य, जब एक सर्वसत्तावादी सरकार अपनी शक्ति का इस तरह खुला दुरुपयोग करे। मीडिया संगठनों और संस्थाओं की यह उदासीनता ही सरकारों को मीडिया की स्वतंत्रता को कुचलने की ताकत देती है।
'रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स' ने अपनी रिपोर्ट को पत्रकारों से जुड़ी हत्याओं और माओवादी हिंसा पर केन्द्रित रखा है। निश्चय ही पत्रकारों की हत्या शर्मनाक कृत्य है। माओवादियों की जितनी भत्र्सना की जाए कम है। राज्य सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार ठहराई जानी चाहिए जो पत्रकारों की हिफाजत करने में नाकाम रही। लेकिन पत्रकारों और पत्रकारिता की सुरक्षा, स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर नजर रखने वाले मीडिया संगठनों व संस्थाओं को उन हालात पर भी गौर करना चाहिए जिनमें सरकारें मीडिया की आवाज को दबाने का दुस्साहस करती हैं।
कैमरा झूठ नहीं बोलता...
केन्द्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने दो दिन पहले महाराष्ट्र में युवा कांग्रेस के एक कार्यक्रम में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को जमकर कोसा। लेकिन मीडिया में उठते विरोध के बाद उन्होंने जिस तरह पलटा खाया, वह चर्चा का विषय बन गया है। शिन्दे साफ मुकर गए और कहा कि मैं तो सोशल मीडिया की बात कर रहा था। जबकि उनके भाषण में साफ तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर हमला बोला गया था। अब टीवी चैनल भाषण का वो फुटेज दिखा रहे हैं जिसमें शिन्दे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कांग्रेस पार्टी के खिलाफ नकारात्मक प्रचार करने का आरोप लगाते हुए मीडिया को हड़का रहे हैं। इसमें शिन्दे साहब जोश में मीडिया को 'कुचल' देने की धमकी तक देते हैं। अब ऑडियो-विजुअल मीडिया की क्या कहें—आदमी जो बोलता है और जो करता है उसे यह हूबहू रिकार्ड कर लेता है। क्योंकि कैमरा और माइक कभी झूठ नहीं बोलते!

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ये कैसी ठगी!


टिप्पणी
अगर आपका ए.टी.एम. कार्ड जेब में रखा हो और आपके मोबाइल पर जानकारी मिले कि आपके खाते से रुपए निकाले गए हैं। ये रुपए आपने नहीं किसी और ने निकाले हैं और वह भी किसी दूसरे शहर के ए.टी.एम. से। जाहिर है, आप बहुत ठगा हुआ महसूस करेंगे। किसी अनाम ठग से नहीं, बल्कि बैंक नामक उस जानी-पहचानी संस्था से, जिसमें करोड़ों लोगों ने भरोसा करके अपनी संचित राशि जमा कर रखी है।
जयपुर में हाल ही ऐसी कुछ घटनाएं हुई हैं। देश के अन्य कई शहरों में भी इस तरह की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इनकी तादाद भले ही अभी बहुत बड़ी न लगती हों, लेकिन ये ही हालात रहे तो हर दिन होने वाली चोरी और ठगी की वारदात की तरह आम हो जाएंगी। ऐसी सूरत में लोगों का बैंकों की ए.टी.एम. प्रणाली से तो भरोसा उठ ही जाएगा, बैंकिंग संस्था को भी बड़ा झाटका लग जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आखिर इन घटनाओं को साइबर अपराध मानकर बैंकें अपने ग्राहकों को केवल कानून और पुलिस के भरोसे कैसे छोड़ सकती है? बैंकों को इससे ऊपर उठकर सोचने की जरूरत है। बैंकों की चिन्ता में यह प्राथमिकता से शुमार होना चाहिए कि ए.टी.एम. क्लोनिंग की समस्या से कैसे निजात मिले। इस समस्या के तकनीकी उपाय तो होंगे ही। साइबर विशेषज्ञों का मानना है कि हर साइबर समस्या का निदान साइबर-जगत में ही मौजूद है। क्यों नहीं देश की सारी बैंकें चाहे वे सरकारी हों या निजी मिलकर इस समस्या का उपाय करें। उत्कृष्ट साइबर विशेषज्ञों के जरिए ऐसा सिस्टम बने जो ए.टी.एम. कार्ड की क्लोनिंग को लॉक कर सके। या तो क्लोनिंग ही संभव न हो और अगर हो तो वह किसी भी ए.टी.एम. मशीन पर कारगर न हो। तकनीक में सब कुछ संभव है। ए.टी.एम. कार्ड की पासवर्ड प्रणाली की समीक्षा करनी होगी। पासवर्ड की बजाय थम्ब इम्प्रेशन जैसे आधुनिक विकल्प मौजूद हैं, जो ज्यादा सुरक्षित हैं। बैंकों को नेट बैंकिंग की प्रणाली को भी दुरुस्त करना पड़ेगा। इसकी खामियों का फायदा उठाकर भी साइबर ठगी की जा रही है।
कुल मिलाकर बैंकों को अपने ग्राहकों को भरोसा दिलाना होगा कि उनके ए.टी.एम. कार्ड का कोई दुरुपयोग नहीं कर सकता। आजकल हर व्यक्ति ए.टी.एम. कार्ड रखता है। बैंक स्वयं भी ग्राहकों को यह कार्ड रखने का दबाव बनाती हैं। निश्चय ही यह कार्ड ग्राहकों को एक सहूलियत प्रदान करता है। लेकिन ऐसी घटनाएं उसे यह सहूलियत त्यागने को मजबूर कर देंगी। खाताधारी की नासमझाी या गलती से उसके साथ धोखा होता है तो बात समझ में आती है, लेकिन पूरी तरह सजग होते हुए अगर वह ऐसी साइबर ठगी का शिकार होता है तो बैंकें भी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। या तो बैंकें भरपाई करें या फिर मुकदमे का सामना करें।

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इंटरनेट और आपका बच्चा

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