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एग्जिट पोल और चुनाव नतीजे

अंतिम मतदान और चुनाव परिणाम की घोषणा के बीच का अधिकांश समय मीडिया में विभिन्न एजेंसियों के एग्जिट पोल पर केन्द्रित विश्लेषणों में गुजरा। एग्जिट पोल कितने उपयोगी और खरे हैं, इस पर फिर बहस हुई।
मतदान करने के बाद हर कोई जानने को उत्सुक रहता है कि चुनाव परिणाम क्या होगा। एग्जिट पोल की संरचना शायद इसीलिए हुई होगी। १२ मई की शाम अब तक का सबसे लम्बा लोकसभा चुनाव सम्पन्न होते ही टीवी चैनलों पर एग्जिट पोल की झाड़ी लग गई। लोगों ने भी इन्हें रुचि लेकर देखा और पढ़ा। नौ चरणों के मतदान की प्रतीक्षा काफी उबाऊ हो चली थी। अंतिम मतदान के बाद सबकी नजरें चुनाव परिणामों पर टिकी थी। इसमें दो राय नहीं कि लोगों की जिज्ञासा का सम्पूर्ण समाधान १६ मई के चुनाव परिणामों से ही हुआ। इस बार देश के करीब ५५ करोड़ नागरिकों ने मतदान में हिस्सेदारी निभाई थी। अंतिम मतदान और चुनाव परिणाम की घोषणा के बीच का अधिकांश समय मीडिया में विभिन्न एजेंसियों के एग्जिट पोल पर केन्द्रित विश्लेषणों में गुजरा। एग्जिट पोल कितने उपयोगी और खरे हैं, इस पर बहस हुई। एग्जिट पोल हमेशा बहस और विवाद का विषय रहे हैं। यहां हम यह जानते हैं कि गत चार माह के दौरान देश में हुए दो चुनावों के दौरान एग्जिट पोल की भूमिका क्या रही। नवम्बर-दिसम्बर 2013 में पांच राज्यों के चुनाव के बाद अप्रेल-मई 2014 में लोकसभा चुनाव हुए। विधानसभा चुनाव के दौरान मुख्यत: पांच एग्जिट पोल सामने आए। ये थे- इंडिया टुडे- ओ.आर.जी., टाइम्स नाऊ- सी वोटर, आई.बी.एन.7- सी.एस.डी.एस., ए.बी.पी.- नीलसन और टुडेज- चाणक्य। लोकसभा चुनाव के दौरान मुख्यत: छह एग्जिट पोल रहे। ये थे- टाइम्स नाऊ-ओ.आर.जी., सी.एन.एन.आई.बी.एन.- सी.एस.डी.एस., हेडलाइन्स टुडे- सिसरो, ए.बी.पी.- नीलसन, न्यूज 24-टुडेज चाणक्य और सी वोटर-इंडिया टीवी।
लोकसभा चुनाव में सभी एग्जिट पोल में भाजपा नीत एन.डी.ए. को आगे और कांग्रेस नीत यू.पी.ए. को पीछे बताया गया। यहां तक कि सभी सर्वेक्षणों में एन.डी.ए. को पूर्ण बहुमत मिलता बताया गया। केवल टाइम्स नाऊ- ओ.आर.जी. के सर्वेक्षण ने एन.डी.ए. को पूर्ण बहुमत (272) के आंकड़े से दूर (257) रखा। हालांकि यू.पी.ए. को इसने भी काफी पीछे (135) माना। लेकिन नरेन्द्र मोदी या भाजपा के पक्ष में लहर का अनुमान कोई भी नहीं लगा पाया सिवाय एक सर्वेक्षण एजेन्सी के। न्यूज-24 टुडेज चाणक्य ने अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत के आंकड़े से काफी आगे (291) पहुंचा दिया जो चुनाव परिणाम (282) के करीब रहा। इसी सर्वे में एन.डी.ए. को 340 सीटें दी गईं जो अनुमान के काफी करीब 336 (चुनाव परिणाम) रही। लेकिन कांग्रेस की इतनी दुर्गति होगी, इसका अनुमान कोई नहीं लगा पाया। यू.पी.ए. के लिए सर्वाधिक उदार टाइम्स नाऊ का सर्वे रहा जिसने उसे 135 सीटें दी। लेकिन कांग्रेस को सभी ने दो अंकों में ही समेट कर रखा। जहां तक तीसरे मोर्चे या अन्य का सवाल है तो इनके हिस्से में आई सीटों 148 (चुनाव परिणाम) के आस-पास ही प्राय: सभी सर्वेक्षणों के निष्कर्ष रहे। सी.एन.एन.आई.बी.एन.- सी.एस.डी.एस. का एग्जिट पोल को ही अपवाद (170) कह सकते हैं। लोकसभा चुनाव के संदर्भ में अगर इन एग्जिट पोल का आकलन करें तो यह कहना पड़ेगा कि सोलहवीं लोकसभा की तस्वीर कैसी बनेगी, इसका काफी हद तक आभास मतदाताओं को मिल चुका था। बाद में चुनाव परिणाम ने इसकी पुष्टि भी की। यह जरूर है कि भाजपा के प्रति मतदाता ऐसा ऐतिहासिक रुझान दिखाएंगे- यह आकलन एग्जिट पोल नहीं कर सके। लेकिन यह आकलन तो कोई नहीं कर सका था।
भाजपा भी नहीं। एग्जिट पोल लोगों की जिज्ञासाओं को सहलाने का काम कर सकते हैं। शान्त करने का नहीं। एग्जिट पोल चुनाव परिणाम की दिशा बता सकते हैं। और यही एग्जिट पोल ने किया। दिसम्बर माह में हुए पांच राज्यों के चुनावों में भी यही हुआ था। एग्जिट पोल के निष्कर्ष चुनाव नतीजों के काफी करीब रहे। लगभग सभी सर्वे में बताया गया कि दिल्ली में शीला दीक्षित और राजस्थान में अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकारें खतरे में हैं। हालांकि दिल्ली और राजस्थान में दलों की सीटों के आकलन में ज्यादातर सर्वेक्षण गड़बड़ाए लेकिन हार-जीत के नतीजे कमोबेश वही रहे जो चुनाव परिणाम में सामने आए। छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला बताया गया। इसके बावजूद सभी सर्वेक्षणों में भाजपा को बढ़त बताई गई थी। मध्य प्रदेश में सभी एग्जिट पोल में भाजपा की सत्ता में वापसी दर्शाई गई थी। यह दूसरी बात है कि दो-तिहाई सीटों से वापसी का अनुमान सिर्फ एक सर्वे ही लगा पाया। दिल्ली में हालांकि 'आप' पार्टी को लेकर ज्यादातर सर्वेक्षण सही अनुमान नहीं लगा पाए थे लेकिन त्रिशंकु विधानसभा के संकेत जरूर दे दिए थे। राजस्थान में जिस कदर कांग्रेस की दुर्गति हुई, उसका अनुमान कोई एग्जिट पोल नहीं लगा पाया। भाजपा की वापसी के मामले में सबके निष्कर्ष समान थे।
   एक बार फिर यही कि एग्जिट पोल चुनाव परिणाम की केवल दिशा बताते हैं, नतीजे नहीं। यह सही है कि दिशा बताने में भी एग्जिट पोल पूर्व में कई बार चूके हैं इसके बावजूद लोकतांत्रिक ढांचे में इन सर्वेक्षणों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में जो उपयोगिता है, वह बनी रहेगी।

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संस्कृत को आधुनिक परिवेश से जोडऩा होगा : प्रो. शास्त्री

साक्षात्कार
'संस्कृत को जब तक हम आधुनिक परिवेश में नहीं देखेंगे और नए संदर्भ से नहीं जोड़ेंगे, तब तक संस्कृत का सुधार  नहीं होगा।'
यह कहना है, राष्ट्रीय संस्कृत आयोग के अध्यक्ष, जाने-माने विद्वान, संस्कृत के प्रथम भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त लेखक और पद्मभूषण  से सम्मानित प्रो. सत्यव्रत शास्त्री का।
 आम धारणा है कि सरकारी आयोग अथवा संस्थान बंधे-बंधाए ढांचे और लीक पर चलने के अभ्यस्त होते हैं। किसी नएपन की उम्मीद उनसे नहीं की जाती। प्रो. शास्त्री इससे उलट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वे संस्कृत आयोग के कामकाज और भूमिका को प्रासंगिक बनाना चाहते हैं। इसलिए संस्कृत के महत्त्व व उपयोगिता को नए सिरे से परिभाषित करते हैं। राष्ट्रीय जन-जीवन में उपेक्षित हो चली संस्कृत की महत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए वे ८४ वर्ष की आयु में भी किसी युवा की तरह संकल्पबद्ध नजर आते हैं।
हाल ही में वे जयपुर आए तो उनसे मुलाकात का सुयोग मिला। वे धाराप्रवाह बोलते हैं। उनकी स्मरण शक्ति गजब है। श्लोक, कविताएं, उद्धरण आदि उन्हें खूब याद रहते हैं। बातचीत में वे इनका भरपूर उपयोग करते हैं। वे संस्कृत के परम्परागत पंडितों से अलग दिखाई पड़ते हैं और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की गतिविधियों पर पूरी पकड़ रखते हैं। केन्द्र सरकार ने ५८ साल बाद संस्कृत आयोग का फिर से गठन किया। दिसंबर २०१३ में आयोग बनाया गया और उन्हें अध्यक्ष पद का उत्तरदायित्व सौंपा। वे बताते हैं, १९५६ में पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने पहला संस्कृत आयोग गठित किया था। उस दौर का भारत अलग था। अब नया भारत है। आज की आवश्यकताएं बदल गई हैं। इसलिए आयोग को भी अपना नजरिया बदलना होगा। देश में संस्कृत की रीति-नीति निर्धारित करने का आयोग पर वृहत्तर उत्तरदायित्व है। प्रो. शास्त्री संस्कृत आयोग की भूमिका और उद्देश्य को लेकर स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हैं। वे आयोग को वैचारिक उदारता और समन्वयवादी स्वरूप देना चाहते हैं, जो आज की परिस्थितियों के अनुकूल हो। वे संस्कृत की रीति-नीति निर्धारित करने में देश में व्यापक जन-भागीदारी के समर्थक हैं। उन्होंने एक प्रश्नावली तैयार करवाई है जो देश भर में संस्कृत विद्वानों, संस्थाओं और संस्कृत में रुचि रखने वाले प्रत्येक समूह को भेजी जा रही है। वे चाहते हैं कि संस्कृत को आधुनिक संदर्भों से जोडऩे के लिए आयोग को पर्याप्त संख्या में सुझााव प्राप्त हो। उनका मानना है कि संकीर्ण और कट्टरपंथी दुराग्रहों से संस्कृत का नुकसान ही अधिक हुआ है। जब तक हम संस्कृत को आधुनिक परिवेश में नहीं देखेंगे, तब तक सुधार नहीं होगा। आज के वैश्विक युग में वही भाषा टिक सकती है जो समय की जरूरतों को पूरा करे।
तो क्या संस्कृत में आज की आवश्यकताओं को पूरा करने का सामथ्र्य है?
'बिल्कुल है। संस्कृत अत्यन्त समृद्ध भाषा है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की ऐसी कोई शाखा-प्रशाखा नहीं है जो संस्कृत में मौजूद नहीं।' वे कहते हैं, संस्कृत में विशाल साहित्य लिखा गया है। संस्कृत में खगोल शास्त्र है, गणित है, नक्षत्रों के बारे में समृद्ध जानकारियां हैं। कृषि विज्ञान पर अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। संस्कृत में पेड़-पौधों के बारे में इतनी विस्तृत सूचनाएं हैं जो संभवत: आज के वनस्पति शास्त्र (बोटनी) में भी नहीं होगी। संस्कृत में हवाई जहाज (विमान शास्त्र) पर सदियों पहले ग्रंथ लिखे गए हैं। चिकित्सा-विज्ञान में तो भरपूर साहित्य है। लाखों ग्रंथ पांडुलिपियों के रूप में मौजूद हैं जिनका अभी पूरी तरह से अध्ययन ही नहीं हुआ है। वे बताते हैं कि भारत सरकार के पास ५० लाख पांडुलिपियों की सूचना है जिनमें अकेले संस्कृत की ३० लाख पांडुलिपियां हैं। इनमें ज्ञान-विज्ञान की भरपूर सामग्री समाहित है।
प्रो. शास्त्री मानते हैं कि एक भाषा के रूप में संस्कृत में वे तमाम संभावनाएं हैं जिनकी आज जरूरत है। कमी इस बात की है कि हम संस्कृत में निहित शक्ति और संभावनाओं को आज के समाज के साथ जोड़ कर नहीं चल पा रहे।
'क्या इसीलिए संस्कृत समाज से कट गई है? आज का युवा संस्कृत में भविष्य और रोजगार की संभावनाएं क्यों नहीं देखता?'
'क्योंकि हमने संस्कृत को परम्परागत शिक्षण और कर्मकांड तक सीमित करके रख दिया है। या फिर संस्कृत शिक्षा को इतना दुरुह बना दिया है कि सीखने की रुचि ही खत्म हो जाए। युवा पीढ़ी संस्कृत में तब तक उदासीन रहेगी, जब तक हम संस्कृत को आज की जरूरतों और भविष्य की संभावनाओं से नहीं जोड़ देते। संस्कृत को कम्प्यूटर से जोड़ा जाए। संस्कृत का की-बोर्ड बन गया है, लेकिन उसे संचालित करने वाले ऑपरेटर नहीं है। हमें संस्कृत शिक्षा और आधुनिक सूचना तकनीक के बीच तालमेल बिठाना होगा। संस्कृत शिक्षण भी सरल बनाना होगा।' प्रो. शास्त्री का स्पष्ट मत है कि संस्कृत में रोजगार की संभावनाएं कम नहीं हैं। अगर हम उन पर विचार करें तो कई नए द्वार खुल सकते हैं। संस्कृत का एक अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप है। हम इसे पर्यटन से भी जोड़ सकते हैं। जैसे चीन, जापान और कंबोडिया, ताइवान, थाईलैंड आदि द. पूर्व एशियाई देश भारत में धार्मिक पर्यटन के लिए खूब आते हैं। वे भारत में बुद्ध से संबंधित स्थलों का भ्रमण करते हैं। इन पर्यटकों को यह कमी बहुत खलती है कि इन धर्म स्थलों की जानकारी कोई उन्हें अपनी भाषा में बताए। हम युवा पर्यटक गाइड तैयार कर सकते हैं। इसके लिए संस्कृत विद्यार्थियों को इन देशों की भाषाओं का ज्ञान कराया जाना चाहिए। संस्कृत विद्यार्थी के लिए इनकी भाषा सीखना बहुत आसान है। क्योंकि द.पूर्व एशियाई देशों की भाषा में संस्कृत के शब्द बहुतायत में है।
चीनी भाषा में संस्कृत के ३६०० शब्द हैं। संस्कृत जानने वाला थाईलैण्ड की भाषा समझा सकता है। साथ ही संस्कृत की शिक्षण प्रक्रिया भी सरल करनी होगी। हमें बच्चे की समझा और रुझाान को देखना होगा और भारी-भरकम शब्दों की बजाय सरलीकरण पर जोर देना होगा। प्रो. शास्त्री उदाहरण से समझााते हैं— 'बच्चे को संस्कृत का ज्ञान शुरू में उन शब्दों से कराएं जिनसे वह परिचित है। जैसे गौ (गाय) जंगल (वन), घास (चारा) आदि शब्दों से निर्मित वाक्य— गो जंगले घासं खादति। इस वाक्य का हर शब्द बच्चा जानता है। इसी तरह दूध के लिए संस्कृत का दुग्ध बच्चे का परिचित शब्द है। ऐसे जाने-माने शब्दों का उपयोग करके पाठ्यक्रम तैयार हो तो संस्कृत सीखना उसके लिए आसान होगा और वह सीखने में रुचि भी लेगा।'
प्रो. शास्त्री कहते हैं कि संस्कृत शिक्षा को भारतीय भाषाओं से जोड़ा जाए। प्रत्येक भारतीय इससे जुड़ेगा। संस्कृत जानने वाला अधिकांश भारतीय भाषाओं को समझा सकता है चाहे मराठी हो या तेलुगु, मलयालम हो या कन्नड़, तमिल हो या बंगाली या फिर उडिय़ा—सभी में संस्कृत की बड़ी हिस्सेदारी है। इन भाषाओं को संस्कृत परस्पर जोड़ती है। संस्कृत सारी भाषाओं की कड़ी है। इसीलिए राष्ट्रीय जन-जीवन में सर्व-स्वीकार्य है।
प्रो. शास्त्री न केवल संस्कृत आयोग अध्यक्ष के रूप में बल्कि एक विद्वान के तौर पर भी संस्कृत को आधुनिक जन-जीवन से जोडऩे के प्रबल पक्षधर हंै। २९ सितंबर १९३० को जन्मे प्रो. शास्त्री का सम्पूर्ण जीवन संस्कृत के प्रचार-प्रसार में समर्पित रहा है। उन्होंने १९५५ में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया। अपने चालीस वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने विभागाध्यक्ष व कला संकायध्यक्ष का पदभार भी संभाला। वे जगन्नाथ विश्वविद्यालय, पुरी के कुलपति भी रहे। उन्होंने जर्मनी, कनाडा, बेल्जियम, फ्रांस, अमरीका, इंग्लैण्ड सहित द. पूर्वी एशियाई अनेक देशों में भ्रमण किया और संस्कृत के प्रसार में योगदान किया। उन्होंने थाईलैण्ड के राजपरिवार को संस्कृत शिक्षा से जोड़ा और वहां के शिल्पाकोर्न विश्वविद्यालय में संस्कृत अध्ययन केन्द्र खुलवाया। उनको संस्कृत सेवाओं के लिए थाईलैण्ड, इटली, रोमानिया और कनाडा के कई महत्वपूर्ण पुरस्कार मिल चुके हैं। देश में ही उनके नाम पुरस्कार और मान-सम्मान तथा अलंकरणों की एक लम्बी फेहरिस्त है। उनके नाम करीब ६५ पुरस्कार दर्ज हैं। संस्कृत साहित्य रचनाओं में उनका अविस्मरणीय योगदान है। उन्होंने संस्कृत और अंग्रेजी में गद्य और पद्य में अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनमें सर्वाधिक चर्चित पुस्तक 'श्रीरामकीर्ति महाकाव्यम्' है जिसके लिए उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।
वे मानते हैं कि हमारे अतीत को समझाने के लिए ही नहीं, अन्य भारतीय भाषाओं को जानने-समझाने के लिए भी संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है। संस्कृत के जरिए ही हम कई देशों की जड़ों को पहचान सकते हैं। संस्कृत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी सदियों पहले थी।
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प्रेस की स्वतंत्रता और हमले


प्रेस की स्वतंत्रता के कई बिन्दु हैं। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का परिवेश, मीडिया के लिए मजबूत वैधानिक ढांचा, पारदर्शिता, पत्रकारों की सुरक्षा आदि कई पक्ष हैं जिनसे प्रेस की स्वतंत्रता का स्तर आंका जाता है। इनमें पत्रकारों की सुरक्षा काफी महत्वपूर्ण है।

हाल ही प्रेस स्वतंत्रता दिवस (3 मई) आया और चला गया।  चुनावी हलचल के बीच शायद इस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। प्रेस की स्वतंत्रता के लिए दुनिया में यह दिन खास तौर पर याद किया जाता है। यूनेस्को ने 3 मई 1991 में नामीबिया के विंडोक शहर में विश्व-सम्मेलन आयोजित किया था। सम्मेलन में शामिल सभी देशों ने मिलकर प्रेस की स्वतंत्रता के सिद्धान्त मंजूर किए थे। तब से ही विश्व भर की सरकारों को प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति वचनबद्धता की याद दिलाने के लिए 3 मई विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है। मीडिया संगठनों और पत्रकारों के लिए ही नहीं, लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति के लिए यह दिवस मायने रखता है।
प्रेस की स्वतंत्रता के कई बिन्दु हैं। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का परिवेश, मीडिया के लिए मजबूत वैधानिक ढांचा, पारदर्शिता, पत्रकारों की सुरक्षा आदि कई पक्ष हैं जिनसे प्रेस की स्वतंत्रता का स्तर आंका जाता है। इनमें पत्रकारों की सुरक्षा काफी महत्वपूर्ण है। दुनियाभर में पत्रकारों पर बढ़ते हमलों की घटनाएं प्रेस की स्वतंत्रता की राह में सबसे बड़ी बाधा है। पिछले साल भर का रिकार्ड देखें तो पाएंगे कि विश्व में पत्रकारों पर जहां जानलेवा हमले किए गए, वहीं उन्हें जान से मारने की धमकियां भी कम नहीं मिलीं। 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' के 2014 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक के अनुसार 180 देशों में प्रेस की स्वतंत्रता के हनन के मामले साल-दर-साल बढ़ रहे हैं। मौजूदा प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 3395 से बढ़कर 3456 पर पहुंच गया है। इसका मतलब है दुनिया के विभिन्न देशों में प्रेस की स्वतंत्रता के हनन की घटनाएं1.8 फीसदी दर से बढ़ रही है। 'हफिंगटन पोस्ट' के अनुसार इस साल अब तक दुनिया के विभिन्न हिस्सों में 14 पत्रकार हमलों में मारे जा चुके हैं। जबकि पिछले वर्ष कम-से-कम 70 पत्रकारों की हत्या की गई थी। अफगानिस्तान, टर्की, और सीरिया आदि तो ऐसे देश हैं जहां पत्रकारिता करना सबसे खतरनाक पेशा बन गया है। अफगानिस्तान में गत माह ही एसोसिएट प्रेस की दो महिला पत्रकारों को गोली मार दी गई जिसमें प्रेस फोटोग्राफर एन्जा नेडरिगंस मारी गईं और केथी गेनन बुरी तरह से घायल हो गईं। सी.पी.जे. (कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स) के डिप्टी एडिटर रॉब मोने के अनुसार— 'विश्व में प्रत्येक आठ दिनों के दरम्यान कम से कम एक पत्रकार मार दिया जाता है। कई जगह  हालात इतने खतरनाक हैं कि अत्यन्त अनुभवी और दक्ष पत्रकार भी या तो मारा जाता है या फिर हमले में घायल हो जाता है, जैसा कि अफगानिस्तान में हाल ही इन दो महिला पत्रकारों के साथ हुआ।'
ताजा हमला पाकिस्तान के मशहूर पत्रकार हामिद मीर पर हुआ, जिन पर कट्टरपंथियों ने गोलियां बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए। उनका इलाज चल रहा है लेकिन तालिबानी धमकियां उन्हें अभी भी लगातार मिल रही हैं। ब्रिटेन की संस्था आई.एन.एस.आई. (इंटरनेशनल न्यूज सैफ्टी इंस्टीट्यूट) ने गत वर्ष पांच देशों की सूची में भारत को पत्रकारों के लिए दूसरा खतरनाक देश बताया था।
कुछ माह पहले देश में छत्तीसगढ़ में माओवादियों ने जाने-माने पत्रकार साईं रेड्डी की निर्मम हत्या कर दी। साईं रेड्डी रमन सिंह सरकार द्वारा प्रायोजित सलवा जुडूम तथा माओवादियों के हिंसक आन्दोलन दोनों के खिलाफ माने जाते थे। साईं रेड्डी की हत्या पर हाल ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने  बयान जारी कर कहा कि 'गलतफहमी वश' उनकी हत्या हो गई। मुम्बई के खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे को अंडरवल्र्ड के माफियाओं ने मार डाला था। वहीं मध्यप्रदेश के पत्रकार चन्द्रिका राय की परिवार सहित निर्मम हत्या कर दी गई। इसी तरह उत्तर प्रदेश में राकेश शर्मा, शशांक शुक्ला, जकाउल्ला और लेखराम भारती नामक पत्रकार अलग-अलग वारदातों में मारे जा चुके। छत्तीसगढ़ में पत्रिका के रायगढ़ ब्यूरो प्रवीण त्रिपाठी पर जानलेवा हमला किया गया। ये सभी घटनाएं पिछले साल-दो-साल की हैं।
पत्रकारों पर हमलों की घटनाएं तो अनगिनत हैं जिनमें वे या तो बाल-बाल बच गए या फिर घायल हुए। इसी तरह पत्रकारों को धमकाने या परिवार को आतंकित करने की घटनाओं में भी बेशुमार वृद्धि हुई है। गत दिनों 'द ट्रिब्यून' के संवाददाता देवन्दर पॉल के घर पर पेट्रोल बम से हमला किया गया जिसमें वे बाल-बाल बच गए। इस वर्ष जनवरी माह में कोलकाता में सरकारी सचिवालय के बाहर पत्रकारों की पुलिस ने उस वक्त पिटाई कर डाली, जब वे पं. बंगाल सरकार के एक कार्यक्रम को कवर करने गए थे। पत्रकारों ने जब विरोध जताया तो उन्हें पुलिस के एक आला अधिकारी ने धमकाया— 'तुम लोग मेरा पावर नहीं जानते? हमें हर व्यक्ति को हड़काने का अधिकार है।' पुलिस अफसर ही क्यों, गृह मंत्री सुशील कुमार शिन्दे भी सोलापुर की एक सभा के दौरान सरेआम मीडिया को 'कुचलने' की धमकी दे चुके हैं। हालांकि बाद में बात बढ़ती देख वे पलट गए कि उनका मतलब सोशल मीडिया से था। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उनकी पोल खोल दी। टीवी पर कई बार उनका धमकी भरा ऑडियो-विजुअल प्रसारित किया गया। द्वारिका के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती ने एक पत्रकार को उस वक्त थप्पड़ जड़ दिया जब उसने नरेन्द्र मोदी के बारे में राजनीतिक सवाल पूछा।
इसमें दो राय नहीं अपनी साख को लेकर इस वक्त मीडिया के समक्ष सर्वाधिक चुनौती भरा दौर है। इसके बावजूद मीडिया की स्वायत्तता और सुरक्षा को लेकर कोई संशय नहीं होना चाहिए। मीडिया पर हमले अतिवादी गुटों, आतंकियों, बाहुबलियों के अलावा सरकारों द्वारा प्रायोजित व समर्थित भी होते हैं। अक्सर इनके बहुत सूक्ष्म रूप और तरीके रहते हैं। प्रेस स्वतंत्रता जैसे दिवस न केवल सरकारों को उनकी वचनबद्धता की याद कराते हैं बल्कि दुनिया भर के मीडिया संगठनों को स्वतंत्र अभिव्यक्ति के प्रति संकल्पित भी करते हैं।

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मतदान और सोशल मीडिया

सोशल मीडिया पर खासकर युवा  परिचितों और विभिन्न समूहों को मतदान के लिए प्रेरित कर रहे हैं। देखने में आ रहा है कि 40 के आस-पास की पीढ़ी भी मतदान के लिए सोशल नेटवर्किंग का भरपूर इस्तेमाल कर रही है।

आम चुनाव का छठा चरण 24 अप्रेल को सम्पन्न होगा जिसमें 12 राज्यों के 117 सीटों पर मतदान होगा। इससे पहले (17 अप्रेल) पांचवें चरण में 121 सीटों पर मतदान के साथ ही देश की तकरीबन आधी संसदीय सीटों पर मतदान हो चुका है। मतदान के आंकड़ों को देखें, तो साफ है कि लगभग सभी राज्यों में मतदान प्रतिशत बढ़ा है। पांचवें चरण के मतदान में मणिपुर जरूर अपवाद है जहां गत बार (2009) की तुलना में तीन फीसदी वोटिंग घटी। शेष राज्यों में मतदान प्रतिशत का आंकड़ा लगातार बढ़ता हुआ दिखाई पड़ रहा है। इसमें दो राय नहीं कि लोगों में मतदान के प्रति रुझाान बढऩे के कई कारण हैं। इनमें चुनाव आयोग की सक्रियता, सामाजिक संगठनों, संस्थाओं, प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का पूरा योगदान है। लेकिन विश्लेषकों के अनुसार इसमें सोशल मीडिया की सबसे बड़ी भूमिका है। अब तक के सभी चरणों के मतदान सोशल नेटवर्किंग पर छाये हुए हैं।
सोशल मीडिया पर लोग खासकर युवा फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स एप, इंस्टाग्राम, लिंक्ड इन आदि पर मित्रों, शुभचिन्तकों, परिचितों और विभिन्न समूहों को मतदान के लिए प्रेरित कर रहे हैं। देखने में आ रहा है कि 40 के आस-पास की पीढ़ी भी मतदान के लिए सोशल नेटवर्किंग का भरपूर इस्तेमाल कर रही है। लोग मतदान के बाद स्याही लगी अंगुली दिखाते हुए तस्वीरें शेयर कर रहे हैं। मतदान वाले दिन तो 'ट्विटर' पर 'आई वोटेड' टॉपिक दिनभर ट्रेंड करता है। व्हाट्स एप पर मतदान के लिए लाखों की तादाद में मैसेज शेयर किए जा रहे हैं। जब आपका कोई परिचित या प्रिय व्यक्ति फेसबुक या व्हाट्स एप पर कहता है, 'मैंने वोट डाला, आप भी डालें', तो इसका आप पर असर जरूर पड़ता है। इस तरह के संदेशों की सोशल मीडिया में जैसे बाढ़ आई हुई है।
हालांकि वर्ष 2009 में भी और कुछ माह पहले हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी सोशल मीडिया का असर देखा गया था। लेकिन आम चुनाव-2014  इस मायने में अब तक के सभी चुनावों में विशेष है। मतदान प्रतिशत बढऩे का कारण कई राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि खास राजनेता और दल के प्रति लोगों का इस बार जबरदस्त रुझान है। कुछ हद तक वे सही हो सकते हैं। लेकिन मतदान बढऩे के पीछे सोशल मीडिया की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस बार का चुनाव अनूठा है कि वर्चुअल संसार राजनीतिक प्रचार का सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। इसका आभास आम चुनाव-२०१४ की घोषणा से काफी पहले हो चुका था। आपको याद होगा आई.आर.आई.एस. नालेज फाउंडेशन तथा इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिशन ऑफ इंडिया के संयुक्त तत्वावधान में एक अध्ययन किया गया था जिसकी मीडिया में खूब चर्चा हुई थी। 'पत्रिका' के पाठक इस स्तंभ में विस्तृत रूप से    (7 जनवरी 2014) इस बारे में पढ़ चुके हैं। इस अध्ययन में कहा गया था कि 543 लोकसभा सीटों में से 160 सीटों के नतीजों को सोशल मीडिया प्रभावित कर सकता है। इस अध्ययन के बाद देश के राजनीतिक मिजाज में खासा परिवर्तन आ चुका है। हम बात चुनाव परिणामों पर प्रभाव की नहीं कर रहे। हमारा फोकस देशव्यापी मतदान प्रतिशत बढऩे पर है।
अनेक बड़े शहरों में बढ़ता हुआ मतदान का आंकड़ा इस बात का सबूत है कि पढ़ा-लिखा शहरी वर्ग भी वोटिंग के लिए बड़ी तादाद में घर से निकलकर आया है। देश में करीब 20 करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं। फेसबुक के मामले में भारत दुनिया का नं. 2  देश है। यहां करीब 14 करोड़ उपभोक्ता शहरी हैं। वे एक-दूसरे से मनोरंजन के साथ ही ज्वलंत मुद्दों और राजनीतिक विषयों पर खुलकर विमर्श कर रहे हैं। ऐसे में यह विशाल समूह मतदान के प्रति उदासीन रहे, यह संभव नहीं। दूसरी ओर गांवों में भी यह समूह तेजी से विस्तार पा रहा है। इंटरनेट एवं मोबाइल एसोसिएशन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की विकास दर शहरों से भी ज्यादा है, जो इस समय 58 फीसदी सालाना तक पहुंच गई है। सोशल नेटवर्किंग पर सक्रिय भारत के गांवों-शहरों में एक विशाल और नए किस्म का राजनीतिक समूह बन चुका है। यह समूह अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुए नजर आता है।
क्या कहता है विदेशी मीडिया
चुनावों को लेकर देश के मीडिया और राजनीतिक पंडितों के अपने-अपने विश्लेषण और अनुमान है। लेकिन नौ चरणों में हो रहे हमारे इन चुनावों को विदेशी मीडिया किस नजर से देख रहा है, आइए जानें—
गार्जियन ने नरेन्द्र मोदी की चर्चा करते हुए 'मोदी नोमिक्स' यानी गुजरात पैटर्न की अर्थव्यवस्था को तेजी से विकसित जरूर बताया लेकिन अखबार के दृष्टिकोण में गुजरात मानव विकास सूचकांक के मामले में निराश करता है।
द साउथ  चाइना पोस्ट ने भारत के अगले प्रधानमंत्री को सलाह देते हुए लिखा कि उसे चीन और भारत के संदर्भ में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। अखबार के अनुसार व्यापार और कूटनीतिक सम्बन्ध दोनों देशों के बीच सबसे उत्तम रास्ता है।
फोरेन अफेयर्स का मानना है कि भारत में कोई भी प्रधानमंत्री का पद संभाले, उसके लिए विदेश नीति में कोई नाटकीय और दूरगामी परिवर्तन करना संभव नहीं होगा।
द न्यूयार्क टाइम्स ने मौजूदा चुनावों के संदर्भ में लिखा—तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ऐसी शख्सियत हैं जो अगली किसी भी साझाा सरकार को बनाने या तोडऩे में मुख्य भूमिका अदा कर सकती हैं।

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