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सोशल मीडिया बनाम सरकार

 कोई शक नहीं सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले बढ़े हैं, तो वैसे ही इसका दुरुपयोग करने वाले भी बढ़े हैं। सवाल है कि क्या इसका एक मात्र उपाय 'बैन' लगाना है? विशेषज्ञों ने जो उपाय खोज निकाले हैं उनकी तरफ सरकार का ध्यान होना चाहिए।

  महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पवार ने विधानसभा में कहा कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि सोशल मीडिया नफरत फैलाने का जरिया बन चुका है। फेसबुक पर आपत्तिजनक पोस्ट के मामले में गत दिनों पुणे के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की हत्या कर दी गई थी। उप मुख्यमंत्री ने इसी संदर्भ में अपनी यह मांग केन्द्र सरकार के समक्ष रखी है।
इसमें दो राय नहीं कि धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने अथवा नफरत और हिंसा फैलाने के उद्देश्य से सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वालों पर रोक लगनी चाहिए। ऐसे असामाजिक तत्त्वों की पहचान करके उन्हें सजा भी मिलनी चाहिए। लेकिन अफसोस की बात है कि जब भी ऐसी कोई घटना घटित होती है, सत्ताधीश सोशल मीडिया पर बैन लगाने की मांग कर डालते हैं। मानों सोशल मीडिया के दुरुपयोग का एक ही रामबाण उपाय है कि उसे प्रतिबंधित कर दो। दो साल पहले उत्तर-पूर्व राज्यों के लोगों का देश के विभिन्न हिस्सों से पलायन की घटनाओं के बाद भी संसद में कुछ सांसदों ने सोशल मीडिया पर पाबंदी लगाने की मांग की थी। पूर्व केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की अच्छी-खासी तैयारी कर चुके थे। परन्तु इसके विरोध के उठते स्वरों में उन्हें अपने कदम पीछे की ओर खींचने पड़े। सिब्बल ने कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं के खिलाफ सोशल नेटवर्किंग पर की गई विपरीत टिप्पणियों के चलते यह प्रयास किया था। यानी हिंसा और नफरत की आपराधिक घटनाओं से ही नहीं, राजनीतिक कारणों से भी सोशल मीडिया के पर कतरने की कोशिशें होती रही हैं।
कोई शक नहीं जैसे सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले बढ़े हैं, वैसे ही इसका दुरुपयोग करने वाले भी बढ़े हैं। सवाल है कि क्या इसका एक मात्र उपाय 'बैन' लगाना है? कानूनी और इससे भी बढ़कर तकनीकी उपायों पर गंभीरता से बात क्यों नहीं की जाती है? जहां तक कानूनी उपाय की बात है, उसके लिए सूचना तकनीक कानून की धारा ६६-ए मौजूद है। पर यह भी सच्चाई है कि शासन ने अब तक इस कानून का दुरुपयोग ही अधिक किया है।
आपको कई घटनाएं याद होंगी। कैसे महाराष्ट्र में ठाणे की पुलिस ने दो निर्दोष लड़कियों को रात में घर से उठाकर थाने में बंद कर दिया था। इनमें एक लड़की ने बाल ठाकरे के निधन पर मुम्बई बंद पर फेसबुक पर अपनी राय जाहिर की थी और दूसरी लड़की ने उसे 'लाइक' किया था। प. बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का उदाहरण भी आपको याद होगा। जाधवपुर यूनिवर्सिटी के दो प्रोफेसरों को सिर्फ इसलिए जेल भेज दिया था कि उन्होंने मुख्यमंत्री का कार्टून बनाकर फेसबुक पर डाल दिया था। कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी में भी धारा ६६-ए का दुरुपयोग किया गया था। बाद में इस धारा के इस्तेमाल पर पुलिस के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिशा-निर्देश भी तय किए। इससे सायबर अपराधों पर अंकुश लगाने में कुछ हद तक मदद मिली है। फिर भी सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने में सूचना तकनीक कानून अपर्याप्त है। इसका मतलब यह भी नहीं कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग केवल 'बैन' लगाकर ही रोका जा सकता है। सरकारों को यही एक मात्र उपाय क्यों सूझता है? उनका ध्यान पता नहीं उन उपायों पर क्यों नहीं जाता जो सायबर विशेषज्ञ सुझाते रहे हैं। इन उपायों से गलत सूचनाएं देने वाले असामाजिक तत्त्वों की कुछ हद तक पहचान की जा सकती है। हालांकि अभी विस्तृत अनुसंधान और शोध कार्य बाकी है। लेकिन फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग पर झाूठ को पकड़ने के लिए यूरोपीय देशों में लाइ डिटेक्टर पर काम किया जा रहा है। इस प्रणाली से यह विश्लेषण किया जा सकेगा कि ऑनलाइन पोस्ट सत्य है या असत्य। यह भी पता चलेगा कि जिस अकाउंट से पोस्ट किया गया है, कहीं वो गलत सूचनाएं फैलाने के लिए तो नहीं बनाया गया है।
 कहा जा रहा है कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वालों पर प्रभावी जवाबी कार्यवाही के लिए सरकारों व पुलिस-प्रशासन की मदद करने के उद्देश्य से यह प्रणाली विकसित की जा रही है। इस अनुसंधान से यूरोपीय देशों के पांच विश्वविद्यालय जुड़े हैं। इनमें ब्रिटेन के शेफील्ड विश्वविद्यालय की मुख्य शोधकर्ता डा. कैलिना बोनशेवा के अनुसार यह लाइ डिटेक्टर सूचनाओं के स्रोत को वर्गीकृत करेगा जिससे उनके सच को जांचा-परखा जा सके। डा. कैलिना के अनुसार इस सिस्टम के खोज के परिणाम एक विजुअल डैशबोर्ड पर दिखाई देंगे ताकि यूजर जान सके कि कहीं यह अफवाह तो नहीं। सच-झाूठ को पकड़ने या अफवाह फैलाने वालों की पहचान करने में यह प्रणाली सफल होगी- यह भरोसा खोजकर्ताओं को है। एकबारगी इसमें अंदेशा भी हो तो भी सरकारों के लिए यह अच्छी खबर है। खासकर, उनके लिए जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भरोसा रखती हैं।
सायबर विशेषज्ञों ने अब तक जो उपाय खोज निकाले हैं उनकी तरफ सरकार का ध्यान होना चाहिए। इस क्षेत्र में जो अनुसंधान हो रहे हैं उसमें भी दिलचस्पी रखी जानी चाहिए। सरकारों को सोशल मीडिया का दुरुपयोग रोकने के वैकल्पिक उपायों पर ज्यादा जोर देना चाहिए न कि उस पर बैन लगाने के। केन्द्र की नई सरकार सोशल मीडिया समर्थक बताई जाती है। इसलिए उससे ऐसी उम्मीद करना बेमानी नहीं।
नेता का मुखौटा
टीवी पर 'लाइव' बहस के दौरान कई बार राजनेताओं की समझदारी का मुखौटा उतर जाता है। बात भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी की है। ए.बी.पी. न्यूज पर 'आप' पार्टी के प्रतिनिधि पर वे ऐसे उखड़े कि भाषा और तहजीब की मर्यादाएं भूल गए। आप प्रतिनिधि ने भ्रष्टाचार के किसी मामले में अरुण जेटली की चुप्पी पर नकवी से सवाल पूछा। नकवी उस पर स्क्रीन पर ही बरस पड़े- जेटली तुम्हारे बाप के नौकर नहीं हैं। एंकर की टोकाटोकी के बीच नकवी बोलते ही चले गए और यह वाक्य दोहराते रहे। यही नहीं उन्होंने आप के पेनलिस्ट को 'बेइमान' और 'बदतमीज' के विशेषणों से भी अलंकृत कर डाला।

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हिन्दी मीडिया के लिए खास दिन

 हिन्दी केवल सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं है। यह एक विशाल समाज की संस्कृति को जानने-समझने का महत्त्वपूर्ण जरिया भी है।
बीते माह पत्रकारिता से जुड़े दो महत्त्वपूर्ण दिवस गुजरे। माह की शुरुआत (3 मई) प्रेस स्वतंत्रता दिवस से हुई जिसकी चर्चा इस स्तंभ में की गई थी। माह का अन्त (30 मई) हिन्दी पत्रकारिता दिवस से हुआ। हालांकि दोनों अवसरों पर पत्रकारिता-जगत में कुछ खास हलचल देखने को नहीं मिली लेकिन मीडिया चाहे तो इन अवसरों का पूरा लाभ उठा सकता है। 3 मई जहां मीडिया की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी को परखने का एक वैश्विक अवसर है तो 30 मई का संबंध भी भारत में  विशाल पाठक समूह से है। इस बहाने हम हिन्दी पत्रकारिता से जुड़े विविध मसलों पर विमर्श कर सकते हैं। देखा जाए तो अपने पाठक-श्रोता-दर्शक के विराट समूह के प्रति विश्वास और प्रतिबद्धता के मूल्यांकन का यह सुनहरा अवसर हो सकता है।
यह सही है कि 30मई का सीधा संबंध हिन्दी के अखबारों से है लेकिन जिस घटना से यह प्रेरित है वह पूरे हिन्दी मीडिया जगत के लिए महत्त्वपूर्ण है। चाहे प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रॉनिक या फिर सोशल मीडिया ही क्यों न हो! जो भी हिन्दी पत्रकारिता के दायरे में आता है, उन सबके लिए इसका महत्त्व है। 30  मई 1826  यानी 188 वर्ष पूर्व हिन्दी का पहला अखबार कोलकाता से निकला था- 'उदंत मार्तंड'। पं. जुगल किशोर शुक्ला के संपादकत्व में यह अखबार एक साल बाद बंद हो गया था लेकिन हिन्दी में पत्रकारिता की लौ प्रदीप्त कर गया। उस वक्त रेडियो, टीवी नहीं थे। लिहाजा इसे क्यों नहीं सम्पूर्ण हिन्दी पत्रकारिता का प्रस्थान बिन्दु कहा जाए? 'उदन्त मार्तंड' की प्रकाशन तिथि 30 मई हिन्दी पत्रकारिता दिवस बन गई। दुर्भाग्य से यह दिवस कुछ औपचारिक सभा-संगोष्ठियों से अधिक महत्त्व नहीं पा सका है। हिन्दी में पत्रकारिता सिखाने वाले संस्थान और विश्वविद्यालयों के विभाग भी कुछ खास नहीं कर पाए हैं। बेहतर होगा कि हिन्दी में पत्रकारिता करने वाले मीडिया के सभी रूप- जिनमें अखबार, टीवी चैनल, सामुदायिक रेडियो, सोशल मीडिया आदि शामिल हैं- मिलकर इस दिशा में प्रयास करें। अखबार और समाचार-चैनल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। देश में सबसे बड़ा पाठक-श्रोता-दर्शक समूह हिन्दी में है। हिन्दी केवल सम्प्रेषण या अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं है। यह एक विशाल समाज की संस्कृति को जानने-समझने का महत्त्वपूर्ण जरिया भी है। इसलिए हिन्दी मीडिया यह देखे कि इस समाज की जरूरतें और आकांक्षाएं क्या हैं। उसकी मीडिया से क्या अपेक्षाएं हैं। उन अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए उसे जो कुछ करना चाहिए, क्या वह कर रहा है? खबरों की विश्वसनीयता का स्तर क्या है तथा जो सामग्री वह अपने पाठकों-श्रोताओं को दे रहा है, उसके प्रति उनका क्या नजरिया है। भाषाई मीडिया के बारे में भी उसे अपनी जानकारी पुख्ता करनी होगी। उसकी अच्छाइयों को आत्मसात करने की जरूरत है तो कमियों से सबक लेने की।
 हिन्दी मीडिया को अंग्रेजी मीडिया की पेशेगत कुशलता और गुणवत्ता से तुलनात्मक आकलन करना होगा। साथ ही उसकी बुराइयों से दूर रहना होगा। अनुकरण और अनुवाद की निर्भरता से छुटकारा पाने की जरूरत है। भाषा को लेकर हिन्दी मीडिया को स्व-मूल्यांकन करना निहायत जरूरी है। नई पीढ़ी के नाम पर जो भाषा वह परोस रहा है, उसके दीर्घकालीन परिणामों पर भी उसकी निगाह होनी चाहिए। मेधावी युवा हिन्दी मीडिया में अपना भविष्य क्यों नहीं देखता, इस पर विचार हो। हिन्दी पत्रकार को प्रशिक्षण के बेहतरीन अवसर सुलभ हों। संवाद-सम्प्रेषण के लिए उसके पास आधुनिक संसाधन हों। दरअसल, हिन्दी मीडिया के लिए करने को इतने काम हैं कि उनकी एक लम्बी सूची गिनाई जा सकती है। सवाल यह है कि सुधार और मूल्यांकन का काम साल में केवल एक विशेष दिवस पर ही क्यों हो- हर दिन क्यों न हो? ठीक बात है। स्व-मूल्यांकन निरन्तर चलने वाली एक सतत प्रक्रिया है इसके बावजूद दिवस-विशेष से इसे जोड़ कर देखना जरूरी है। ये दिवस हमें न केवल प्रेरित करते हैं बल्कि निरन्तर बेहतर करने के लिए सजग भी रखते हैं। हिन्दी पत्रकारिता दिवस एक महत्त्वपूर्ण अवसर है। हिन्दी मीडिया-जगत के लिए तो खास तौर पर। क्यों न हम इसे वर्ष का एक यादगार दिवस बना दें।
ब्रेकिंग न्यूज!
समाचार चैनल कभी-कभी बड़ी गलतियां कर जाते हैं। नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री मनोनीत होने पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि पर पुष्प अर्पित करने राजघाट गए। सभी समाचार चैनलों ने कवरेज की । हिन्दी के एक समाचार चैनल ने भी रिपोर्ट दिखाई। नरेन्द्र मोदी पुष्पांजलि अर्पित कर रहे थे। पूरे परदे पर दृश्य था। तभी बड़े-बड़े शब्दों में लिखा हुआ फोटो-शीर्षक प्रकट हुआ- मोदी की समाधि पर नरेन्द्र मोदी। यह बाकायदा 'ब्रेकिंग न्यूज' थी जो कई देर तक चली। बाद में संभवत: ठीक कर ली गई।

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